दिल्ली हाई कोर्ट के जज जस्टिस यशवंत वर्मा पर लगे आरोप: क्या भारत में न्यायिक जवाबदेही प्रभावी है?
न्यायपालिका में भ्रष्टाचार और जवाबदेही पर पुनः चर्चा
दिल्ली हाई कोर्ट के जज जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ हाल ही में लगे आरोपों ने भारत की उच्च न्यायपालिका में न्यायिक जवाबदेही और भ्रष्टाचार पर एक बार फिर बहस छेड़ दी है। उनके आवास पर अघोषित नकदी मिलने की रिपोर्ट ने न्यायिक आचरण की जांच और दंडात्मक प्रक्रिया की प्रभावशीलता पर गंभीर प्रश्न खड़े किए हैं।
अब तक, सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के कई न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं, लेकिन आज तक किसी भी मौजूदा या पूर्व न्यायाधीश को न तो महाभियोग के तहत हटाया गया है और न ही दोषी ठहराया गया है। यह स्थिति न्यायिक जवाबदेही तंत्र की प्रभावशीलता पर गंभीर सवाल खड़े करती है। भारतीय संविधान और न्यायपालिका ने न्यायिक आचरण की जांच के लिए दो प्रमुख प्रणालियाँ बनाई हैं:
- इन-हाउस प्रक्रिया (In-house Procedure)
- महाभियोग प्रक्रिया (Impeachment Process)
लेकिन ये दोनों ही तंत्र अब तक किसी भी न्यायाधीश को वास्तविक दंडात्मक कार्रवाई के दायरे में लाने में असफल रहे हैं।
भारत में न्यायिक प्रतिरक्षा (Judicial Immunity) की अवधारणा
न्यायाधीशों को न्यायिक स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए प्रतिरक्षा (इम्युनिटी) दी जाती है, ताकि वे बिना किसी दबाव के निष्पक्ष निर्णय ले सकें। लेकिन यह प्रतिरक्षा असीमित नहीं होनी चाहिए, क्योंकि बिना नियंत्रण के शक्ति भ्रष्टाचार और अधिकारों के दुरुपयोग को जन्म देती है।
भारतीय संविधान के तहत अनुच्छेद 121 और अनुच्छेद 211 न्यायाधीशों के आचरण पर संसद या राज्य विधानसभाओं में चर्चा पर रोक लगाते हैं, जब तक कि यह महाभियोग की प्रक्रिया का हिस्सा न हो। के. वीरास्वामी बनाम भारत संघ (1991) के ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया कि उच्च न्यायालय और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों के खिलाफ किसी भी आपराधिक मुकदमे की शुरुआत के लिए भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) की पूर्व स्वीकृति आवश्यक होगी।
हालांकि, विशेषज्ञों का मानना है कि यह प्रतिरक्षा एक प्रकार की सुरक्षा ढाल बन चुकी है, जिससे न्यायपालिका पर बाहरी जांच और सार्वजनिक चर्चा असंभव हो गई है।
भारत में न्यायिक जवाबदेही के तंत्र
न्यायिक जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए भारत में कई तंत्र मौजूद हैं, लेकिन उनकी प्रभावशीलता हमेशा संदेह के घेरे में रही है। इनमें शामिल हैं:
- महाभियोग प्रक्रिया (Impeachment Process)
- इन-हाउस जांच प्रक्रिया (In-House Inquiry Mechanism)
- न्यायिक निगरानी निकाय (Judicial Oversight Bodies)
1. महाभियोग प्रक्रिया
भारत में न्यायाधीशों को हटाने की प्रक्रिया अत्यंत कठिन और दुर्लभ है। यह संविधान के अनुच्छेद 124(4) और (5) तथा न्यायाधीश (जांच) अधिनियम, 1968 के तहत संचालित होती है।
महाभियोग प्रक्रिया:
- लोकसभा के 100 सांसदों या राज्यसभा के 50 सांसदों द्वारा हस्ताक्षरित प्रस्ताव लाया जाता है।
- यदि प्रस्ताव स्वीकार कर लिया जाता है, तो तीन-सदस्यीय जांच समिति गठित की जाती है, जिसमें एक सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश, एक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और एक प्रख्यात न्यायविद शामिल होते हैं।
- यदि समिति न्यायाधीश को दोषी पाती है, तो यह प्रस्ताव संसद के दोनों सदनों में प्रस्तुत किया जाता है।
- प्रस्ताव को पास करने के लिए लोकसभा और राज्यसभा दोनों में दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता होती है।
- यदि प्रस्ताव पारित हो जाता है, तो राष्ट्रपति को न्यायाधीश को हटाने की सिफारिश की जाती है।
अब तक, किसी भी भारतीय न्यायाधीश को महाभियोग के माध्यम से नहीं हटाया गया है, क्योंकि यह प्रक्रिया अत्यधिक राजनीतिक और लंबी होती है। अधिकांश न्यायाधीश महाभियोग प्रक्रिया पूरी होने से पहले ही इस्तीफा दे देते हैं, जिससे उन्हें औपचारिक सजा से बचने का रास्ता मिल जाता है।
2. इन-हाउस जांच प्रक्रिया
सुप्रीम कोर्ट ने 1999 में एक इन-हाउस प्रक्रिया शुरू की थी, ताकि न्यायाधीशों के खिलाफ शिकायतों की जांच की जा सके।
- शिकायत को भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) या संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को सौंपा जाता है।
- यदि शिकायत गंभीर पाई जाती है, तो न्यायाधीश से जवाब मांगा जाता है।
- यदि उत्तर असंतोषजनक होता है, तो तीन-सदस्यीय जांच समिति गठित की जाती है।
- यदि आरोप सही पाए जाते हैं, तो न्यायाधीश को इस्तीफा देने की सलाह दी जाती है, अन्यथा मुख्य न्यायाधीश उनके न्यायिक कार्यों को वापस ले सकते हैं।
हालांकि, इस प्रक्रिया की गोपनीयता इसे अपारदर्शी बना देती है। उदाहरण के लिए, 2017-2021 के बीच न्यायिक भ्रष्टाचार पर 1,631 शिकायतें दर्ज हुईं, लेकिन इनमें से कितनों पर कार्रवाई हुई, यह अज्ञात है।
3. न्यायिक निगरानी निकाय
न्यायिक नियुक्तियों की प्रक्रिया सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम प्रणाली द्वारा नियंत्रित होती है, लेकिन इसमें निगरानी का कोई तंत्र नहीं है। राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) को 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक घोषित कर दिया था।
प्रमुख न्यायिक भ्रष्टाचार के मामले और जवाबदेही की कमी
- 1993: जस्टिस वी. रामास्वामी को वित्तीय अनियमितताओं का दोषी पाया गया, लेकिन लोकसभा में महाभियोग प्रस्ताव गिर गया।
- 2011: जस्टिस सौमित्र सेन के खिलाफ राज्यसभा में महाभियोग पारित हुआ, लेकिन लोकसभा में मतदान से पहले ही उन्होंने इस्तीफा दे दिया।
- जस्टिस पी. डी. दिनाकरण (2009-2011): कर्नाटक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पर संपत्ति अर्जन के गंभीर आरोप लगे। महाभियोग प्रक्रिया लंबी होने के कारण उन्होंने 2011 में इस्तीफा दे दिया।
- 2017: जस्टिस एस.एन. शुक्ला के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट की इन-हाउस जांच में भ्रष्टाचार सिद्ध हुआ, फिर भी वे 2020 तक पद पर बने रहे।
न्यायिक जवाबदेही में सुधार के सुझाव
- गोपनीयता हटाकर पारदर्शिता बढ़ाना – सभी न्यायिक जांच रिपोर्टों को सार्वजनिक किया जाए।
- वीरास्वामी निर्णय की समीक्षा – मुख्य न्यायाधीश की पूर्व अनुमति की अनिवार्यता को समाप्त किया जाए।
- न्यायाधीशों की संपत्ति की सार्वजनिक घोषणा अनिवार्य की जाए।
- महाभियोग प्रक्रिया को सरल और समयबद्ध किया जाए।
- न्यायिक नियुक्तियों में पारदर्शिता लाई जाए और NJAC जैसे सुधारों पर पुनर्विचार किया जाए।
निष्कर्ष
जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ लगे आरोपों ने फिर से यह सवाल खड़ा किया है कि क्या भारत की न्यायपालिका वास्तव में जवाबदेह है? जब तक न्यायिक जवाबदेही के लिए प्रभावी तंत्र स्थापित नहीं किए जाते, तब तक न्यायपालिका में भ्रष्टाचार और अनियमितताओं पर अंकुश लगाना असंभव बना रहेगा। जब तक न्यायिक जांच और दंडात्मक कार्रवाई के लिए अधिक प्रभावी तंत्र नहीं अपनाए जाते, तब तक न्यायिक भ्रष्टाचार के आरोप केवल आरोप बनकर रह जाएंगे, और कोई ठोस सुधार नहीं होगा।
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