जमानत याचिका की सुनवाई में एक दिन की भी देरी, ‘मौलिक अधिकारों’ का उल्लंघन – SUPREME COURT

सुप्रीम कोर्ट ने अगस्त 2023 से लंबित एक ज़मानत याचिका पर बार-बार स्थगन के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय की आलोचना की। न्यायालय ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक वर्ष से अधिक समय तक जमानत याचिकाएं लंबित रहने की प्रथा पर असंतोष व्यक्त किया।

न्यायमूर्ति बीआर गवई और न्यायमूर्ति केवी विश्वनाथन की पीठ ने जमानत याचिकाओं के एक साल से अधिक समय तक लंबित रहने की प्रथा पर असंतोष व्यक्त किया।

न्यायालय ने कहा, “हम जमानत याचिकाओं के एक साल से अधिक समय तक लंबित रहने की प्रथा को पसंद नहीं करते। ऐसे मामलों में एक दिन की भी देरी आरोपी के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है।”

न्यायालय बलात्कार के एक आरोपी की याचिका पर सुनवाई कर रहा था, जिसमें इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समक्ष उसकी जमानत याचिका पर बार-बार स्थगन को चुनौती दी गई थी।

आरोपी का प्रतिनिधित्व कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता सिद्धार्थ दवे ने इस बात पर प्रकाश डाला कि सर्वोच्च न्यायालय ने बार-बार जमानत आवेदनों के समय पर निपटान के महत्व को रेखांकित किया है।

इस पृष्ठभूमि में, दवे ने न्यायालय को सूचित किया कि उनके मुवक्किल की जमानत याचिका कई बार स्थगन और प्रभावी सुनवाई नहीं होने के बाद अगस्त 2023 से लंबित है।

इसके जवाब में, न्यायालय ने पूछा,

“इलाहाबाद उच्च न्यायालय में यह मुद्दा क्या है?”

सिद्धार्थ दवे ने उत्तर दिया,

“वे अत्यधिक बोझ और अत्यधिक काम के बोझ तले दबे हुए हैं।”

अंततः, सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय को यह सुनिश्चित करने का निर्देश देते हुए एक आदेश पारित किया कि जब मामला सूचीबद्ध हो, तो उस पर सुनवाई की जाए और उसका शीघ्रता से निपटारा किया जाए।

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सुनवाई नहीं होने पर आरोपी को होती है दिक्कत-

वही एक अन्य मामले में न्यायमूर्ति अभय एस ओका और न्यायमूर्ति एजे मसीह की बेंच ने हाईकोर्टों की ओर से जमानत देने से इनकार करने और आरोपियों को सांत्वना देने के लिए निचली अदालतों को मुकदमे की सुनवाई में तेजी लाने के निर्देश दिए जाने की प्रवृत्ति पर चिंता जताई। बेंच ने इस स्थिति को चौंकाने वाला बताया और कहा कि अदालतों की इस प्रवृत्ति के कारण आरोपी को लंबे समय तक हिरासत में रहना पड़ता है।

वाद शीर्षक – वाजिद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य

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