दिल्ली हाई कोर्ट ने एक मामले में याचिकाकर्ता प्रतिवादी कंपनी में करीब 10 साल तक सीनियर फोरमैन था। उसने दावा किया कि विमुद्रीकरण के दौरान मुद्रा विनिमय में अपने नियोक्ता की सहायता करने से इनकार करने के बाद, उसके साथ प्रतिशोधात्मक कार्रवाई की गई।
जनवरी 2017 में उसका दिल्ली से चेन्नई तबादला कर दिया गया, जिसे उसने स्वीकार करने से इनकार कर दिया। उसने कहा कि तबादले के समय की वजह से उसके बच्चों की शिक्षा प्रभावित होगी। इसके अलावा, उसने यह भी कहा कि उसे एचआर मैनुअल के अनुसार तबादले से संबंधित सुविधाएं नहीं दी गईं। इसके बाद उसे दिल्ली में अपने कर्तव्यों को जारी रखने की अनुमति नहीं दी गई।
याचिकाकर्ता ने श्रम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और कहा कि तबादले की आड़ में उसकी सेवाएं समाप्त कर दी गईं। हालांकि, प्रतिवादी प्रबंधन ने तर्क दिया कि तबादला प्रशासनिक कारणों से हुआ था, न कि समाप्ति के कारण। श्रम न्यायालय ने फैसला सुनाया कि याचिकाकर्ता औद्योगिक विवाद अधिनियम के तहत एक “कर्मचारी” था, क्योंकि उसके कर्तव्य प्रबंधकीय प्रकृति के नहीं थे। इसने यह भी निष्कर्ष निकाला कि साक्ष्यों से पता चलता है कि याचिकाकर्ता की सेवाएं समाप्त नहीं की गई थीं, बल्कि उसे उसकी नियुक्ति की शर्तों के अनुसार चेन्नई स्थानांतरित कर दिया गया था। हालांकि, उसने स्थानांतरण आदेश का पालन करने से इनकार कर दिया।
आदेश से असंतुष्ट होकर उसने दिल्ली उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।
न्यायमूर्ति गिरीश कथपालिया ने पाया कि याचिकाकर्ता ने स्थानांतरण आदेश का पालन करने से इनकार कर दिया था और मैनुअल के अनुसार आवश्यक स्थानांतरण व्यय का अनुरोध नहीं किया था। न्यायालय ने यह भी कहा कि स्थानांतरण आदेश का पालन करने से 6 वर्ष और 4 वर्ष की आयु के बच्चों की शैक्षणिक क्षति नहीं होती। उच्च न्यायालय ने श्रम न्यायालय के निर्णय को बरकरार रखा और याचिका खारिज कर दी।