POLICE CUSTODY और JUDICIAL CUSTODY में फर्क, आइये विस्तार से जानते है-

अभी जल्द ही उच्च न्यायलय ने अबू सलेम मामले में सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले का हवाला देते हुए कहा कि भले ही शुरू में सलेम की हिरासत कानून के लिहाज से अनुचित थी, फिर भी अदालत ने जब सुनवाई के बाद सजा दे दिया तो उसकी हिरासत अवैध नहीं रहती है। इस मामले में बंदी प्रत्यक्षीकरण का मामला नहीं बनता है। यह तब होता जब आपकी हिरासत अवैध होती, लेकिन अब ऐसा नहीं है।

अबू सलेम की याचिका खारिज करते हुए उच्च न्यायलय ने कहा की न्यायिक हिरासत कभी अवैध नहीं हो सकती-

आइये विस्तार से जानते है पुलिस कस्टडी और जुडिशल कस्टडी के बारे में-

कस्टडी यानी किसी को हिरासत में लेना और अरेस्ट यानी गिरफ्तार करना भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत व्यक्तिगत आजादी के अधिकार पर सीधा हमला है, इसलिए, यह सुनिश्चित करने के लिए कानून में एक विस्तृत प्रक्रिया निर्धारित की गई है कि किसी व्यक्ति को केवल कानूनी उद्देश्यों के लिए ही अधिकारी द्वारा उचित, तार्किक और समानुपातिक तरीके से हिरासत में लिया जाये।

कस्टडी और अरेस्ट

वैसे कस्टडी यानी किसी को हिरासत में लेना और अरेस्ट यानी गिरफ्तार करना सुनने में एक जैसा लगता है। लेकिन दोनों अलग है। गिरफ्तार करने का मतलब है किसी व्यक्ति को पुलिस हिरासत में लेना जबकि हिरासत का मतलब किसी व्यक्ति पर नजर रखना या उसकी गतिविधियों पर आंशिक या पूरी तौर पर पाबंदी लगा देना। लेकिन यह सही है कि हर गिरफ्तारी में हिरासत होती है लेकिन हर हिरासत में गिरफ्तारी नहीं होती है। आमतौर पर पुलिस की अपराध की छानबीन, किसी अपराध को होने से रोकने और किसी व्यक्ति या व्यक्तियों को होने वाले नुकसान से बचाने के लिए किसी इंसान को गिरफ्तार करती है।

गिरफ्तार करने से एक व्यक्ति की निजी आजादी खत्म हो जाती है। वैसे कानून में अवैध गिरफ्तारी से एक व्यक्ति को बचाने के लिए कई प्रावधान किए गए हैं।

पुलिस हिरासत ( POLICE CUSTODY ) और न्यायिका हिरासत ( JUDICIAL CUSTODY ) में फर्क

पुलिस कस्टडी में आरोपी को पुलिस लॉकअप में रखा जाता है जबकि जुडिशल कस्टडी में कोर्ट की कस्टडी यानी जेल में रखा जाता है। किसी संज्ञेय अपराध के लिए एफआईआर दर्ज करने के बाद पुलिस किसी आरोपी को गिरफ्तार कर सकती है। गिरफ्तारी इस उद्देश्य से किया जाता है कि साक्ष्य के साथ छेड़छाड़ न हो या गवाहों को धमकाया नहीं जाए।

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जब पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए गए अभियुक्त को मजिस्ट्रेट के पास पेश किया जाता है तो उसके पास दो विकल्प होते हैं-

आरोपी को पुलिस हिरासत में या न्यायिक हिरासत में भेजना।

यह सीआरपीसी की धारा 167(2) के प्रावधानों से स्पष्ट है कि मजिस्ट्रेट को जो उचित लगता है उस प्रकार की कस्टडी वह आरोपी के लिए मुकर्रर कर सकता है।

पुलिस हिरासत POLICE CUSTODY में, पुलिस के पास आरोपी की शारीरिक हिरासत होगी। इसलिए जब पुलिस हिरासत में भेजा जायेगा, तो आरोपी को पुलिस स्टेशन में बंद कर दिया जाएगा। उस परिदृश्य में, पुलिस को पूछताछ के लिए आरोपी तक हर समय पहुंच होगी। न्यायिक हिरासत में, अभियुक्त मजिस्ट्रेट की हिरासत में होगा और उसे जेल भेजा जाएगा।

न्यायिक हिरासत JUDICIAL CUSTODY में रखे गये आरोपी से पूछताछ के लिए पुलिस को संबंधित मजिस्ट्रेट की अनुमति लेनी होगी। मजिस्ट्रेट की अनुमति से ऐसी हिरासत के दौरान पुलिस द्वारा पूछताछ, हिरासत की प्रकृति को बदल नहीं सकती है।

पुलिस कस्टडी की अवधि

पुलिस कस्टडी तब शुरू होती है जब पुलिस अधिकारी किसी संदिग्ध व्यक्ति को गिरफ्तार कर लेता है जबकि जुडिशल कस्टडी तब शुरू होती है जब न्यायाधीश आरोपी को पुलिस कस्टडी से जेल भेज देता है। पुलिस कस्टडी की अवधि 24 घंटे की होती है। 24 घंटे के अंदर पुलिस को किसी कोर्ट के समक्ष आरोपी को पेश करना होता है। लेकिन जुडिशल कस्टडी की कोई तय समयसीमा नहीं होती। जब तक मामला चलता रहे या संदिग्ध आरोपी जमानत पर रिहा न हो जाए, जुडिशल कस्टडी चलती रहती है।

गिरफ्तारी के बाद मजिस्ट्रेट के समक्ष पेशी के पहले 15 दिनों के भीतर ही आरोपी को पुलिस हिरासत में भेजा जा सकता है। सीआरपीसी की धारा 167(दो) का उपबंध-ए कहता है कि मजिस्ट्रेट पुलिस हिरासत में 15 दिनों की अवधि से परे अभियुक्तों की हिरासत अवधि बढ़ाने की अनुमति दे सकता है।

सामान्य भाषा, खासकर “पुलिस की हिरासत से अन्यथा पंद्रह दिनों की अवधि से परे” शब्दों पर विचार करते हुए यह व्यवस्था दी गयी कि पहले पंद्रह दिनों की समाप्ति के बाद 90 दिनों या 60 दिनों की शेष अवधि के लिए केवल न्यायिक हिरासत ही होगी तथा यदि पुलिस कस्टडी आवश्यक हुई तो इसका आदेश केवल पहले 15 दिनों के भीतर ही हो सकता है।

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अगर पुलिस किसी व्यक्ति के खिलाफ चार्जशीट दाखिल कर देती है तो फिर उस व्यक्ति को पुलिस कस्टडी में नहीं रखा जा सकता है। अगर किसी व्यक्ति की जमानत खारिज भी हो जाती है तो उसको पुलिस हिरासत में नहीं दिया जा सकता है।

किसी भी अपराध जैसे हत्या, लूटपाट, अपहरण, चोरी, धमकी आदि के मामले में पुलिस कस्टडी होती है जबकि कोर्ट की अवहेलना और अन्य मामलों में जुडिशल कस्टडी होती है।

रिमांड

कानूनी जानकार बताते हैं कि किसी मामले में की गई गिरफ्तारी के बाद जांच एजेंसी पूछताछ के लिए आरोपी को रिमांड पर ले सकती है। आरोपी को गिरफ्तार कर अदालत में पेशी के बाद 14 दिनों तक पूछताछ के लिए रिमांड पर लिया जा सकता है।

हालांकि जांच एजेंसी को अदालत को बताना होता है कि किस कारण रिमांड चाहिए। इसके लिए उसे अदालत के सामने तथ्य पेश करने होते हैं और अदालत जब जांच एजेंसी की दलीलों से संतुष्ट होती है, तभी आरोपी को रिमांड पर भेजा जाता है।

सुप्रीम कोर्ट ने इन सवालों का जवाब सीबीआई बनाम दाऊद इब्राहिम कास्कर के फैसले में दिया था।(13) अदालत ने व्यवस्था दी कि आगे की जांच के चरण में गिरफ्तार किये गये आरोपी के रिमांड का मामला धारा 167(दो) के तहत निपटा जाना चाहिए, न कि धारा 309(दो) के प्रावधानों के तहत। क्योंकि जहां तक उस आरोपी का संदर्भ है तो जांच अब भी जारी है और पुलिस को उसकी कस्टडी देने से इन्कार नहीं किया जा सकता।

दोबारा रिमांड

पुलिस रिमांड पर लिए जाने के बाद अगर आरोपी को न्यायिक हिरासत में भेज दिया जाए और दोबारा जांच में कोई नया तथ्य सामने आ जाए और आरोपी से दोबारा पूछताछ की जरूरत हो तो आरोपी को दोबारा रिमांड पर लिया जा सकता है लेकिन यह सब गिरफ्तारी के 14 दिनों के भीतर ही हो सकता है, उसके बाद नहीं। अगर गिरफ्तारी के 14 दिनों बाद जांच एजेंसी को कोई पूछताछ करनी है तो वह अदालत की स्वीकृति मिलने के बाद आरोपी से जेल में पूछताछ कर सकती है।

यदि परिस्थितियां न्यायोचित लगती हैं, तो सीआरपीसी (Cr.P.C.) की धारा 167 (दो) के तहत वर्णित प्रावधानों के अनुरूप निर्धारित समय सीमा (15 दिन में) न्यायिक हिरासत में भेजे गये आरोपी को पुलिस हिरासत और पुलिस हिरासत से न्यायिक हिरासत में भेजा जा सकता है।

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कब मिलेगी जमानत

पुलिस रिमांड के बाद आरोपी को जब तक जमानत न मिले, उसे न्यायिक हिरासत में रखने का प्रावधान है। चार्जशीट दाखिल होने तक आरोपी की न्यायिक हिरासत 14-14 दिनों के लिए बढ़ाई जाती है, जबकि चार्जशीट दाखिल होने के बाद न्यायिक हिरासत की अवधि मुकदमे की तारीख के हिसाब से बढ़ाई जाती है। कानूनी जानकार ने बताया कि सीआरपीसी (Cr.P.C.) की धारा-167 (2) के तहत समय पर चार्जशीट दाखिल न किए जाने पर टेक्निकल ग्राउंड पर जमानत दिए जाने का प्रावधान है।

अगर आरोपी के खिलाफ ऐसा मामला दर्ज हो, जिसमें 10 साल कैद से कम सजा का प्रावधान है तो टेक्निकल ग्राउंड पर आरोपी को जमानत दिए जाने का प्रावधान है, बशर्ते जांच एजेंसी ने आरोपी की गिरफ्तारी के 60 दिनों के भीतर चार्जशीट दाखिल नहीं की हो।

10 साल कैद या उससे ज्यादा सजा वाले मामले में अगर गिरफ्तारी के 90 दिनों के भीतर आरोपी के खिलाफ चार्जशीट दाखिल नहीं की जाती, तो जमानत मिल जाती है।

वहीं मकोका मामले में गिरफ्तारी के 30 दिनों तक पुलिस रिमांड पर लिए जाने का प्रावधान है। ऐसे मामले में अगर आरोपी के खिलाफ दर्ज केस में 10 साल से कम सजा का प्रावधान है तो चार्जशीट दाखिल करने के लिए 90 दिनों का समय होता है। इस अवधि में चार्जशीट नहीं होने पर आरोपी को जमानत मिल जाती है।

मकोका कानून इतना सख्त है कि इसके लगने के बाद किसी को आसानी से जमानत नहीं मिल सकेगी। मकोका के बाद उम्रकैद तक की सज़ा का प्रावधान है।

10 साल से ज्यादा सजा वाले मामले में 180 दिनों तक चार्जशीट दाखिल नहीं होने पर जमानत दिए जाने का प्रावधान है।

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