हाईकोर्ट ने माना कि यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण अधिनियम (POCSO) के तहत पेनेट्रेटिव यौन हमले व गंभीर पेनेट्रेटिव यौन हमले का अपराध पुरुषों और महिलाओं दोनों के खिलाफ लगाया जा सकता है।
न्यायमूर्ति अनूप जयराम भंभानी ने अपने हालिया आदेश में कहा कि पॉक्सो प्रावधानों के संयुक्त अध्ययनपर अधिनियम की धारा 3 में आने वाले शब्द ‘वह’ को यह कहकर प्रतिबंधात्मक अर्थ नहीं दिया जा सकता कि यह केवल पुरुष को संदर्भित करता है।
अदालत ने जोर देकर कहा कि इसे इसका इच्छित अर्थ दिया जाना चाहिए और इसके दायरे में लिंग के बावजूद कोई भी अपराधी शामिल है। अदालत ने कहा यह स्पष्ट है कि पॉक्सो अधिनियम में कहीं भी सर्वनाम ‘वह’ को परिभाषित नहीं किया गया है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि संसद ने बच्चों को यौन अपराधों से सुरक्षा प्रदान करने के लिए पॉक्सो अधिनियम बनाया है चाहे किसी बच्चे पर अपराध पुरुष द्वारा किया गया हो या महिला द्वारा।
न्यायालय को कानून के किसी भी प्रावधान की व्याख्या नहीं करनी चाहिए जो विधायी इरादे और उद्देश्य से अलग हो। प्रावधान के दायरे में किसी भी वस्तु का प्रवेश शामिल है, न कि केवल शरीर के अंग का, इसलिए यह कहना अतार्किक होगा कि अपराध केवल लिंग के प्रवेश तक ही सीमित है
सुंदरी गौतम नामक एक महिला ने उसके खिलाफ पॉक्सो अधिनियम की धारा 6 गंभीर यौन उत्पीड़न के लिए दंड के तहत आरोप तय करने के ट्रायल कोर्ट के आदेश को चुनौती दी थी। यह तर्क दिया गया कि गंभीर यौन उत्पीड़न के अपराध को पॉक्सो अधिनियम की धारा 3 में परिभाषित किया गया है, और इसलिए धारा 5 में आने वाले गंभीर यौन उत्पीड़न के अपराध को कभी भी किसी महिला के खिलाफ नहीं बनाया जा सकता है, क्योंकि परिभाषाओं को पढ़ने से पता चलता है कि इसमें केवल वह सर्वनाम का उपयोग किया गया है।
न्यायमूर्ति अनूप जयराम भंभानी की बेंच ने कहा कि पॉक्सो अधिनियम की धारा 3, जो पेनिट्रेटिव यौन हमले से संबंधित है, उसके दायरे में किसी वस्तु या शरीर के किसी अंग को प्रवेश कराना, या प्रवेश कराने के लिए बच्चे के शरीर के किसी अंग से छेड़छाड़ करना, या मुँह का प्रयोग करना शामिल है, इसलिए यह कहना पूरी तरह से अतार्किक होगा कि इन प्रावधानों के तहत अपराध के लिए केवल पेनिस के जरिए पेनेट्रेशन की बात कही गई है। अदालत ने तर्क को खारिज कर दिया और आरोपी-महिला के खिलाफ धारा के तहत आरोप को बरकरार रखा।
15 पन्ने के आदेश में जस्टिस ने कहा कि पॉक्सो अधिनियम बच्चों को यौन अपराधों से सुरक्षा देने के लिए बनाया गया था। बेशक बच्चे पर अपराध किसी पुरुष या महिला द्वारा किया गया हो। पीठ ने कहा, ‘धारा 3(ए), 3(बी), 3(सी) और 3(डी) में प्रयुक्त सर्वनाम ‘वह’ की व्याख्या इस प्रकार नहीं की जानी चाहिए कि उन धाराओं में शामिल अपराध केवल पुरुष तक ही सीमित हो जाए। यह ध्यान रखना बहुत जरूरी है कि उक्त प्रावधानों में पेनेट्रेटिव यौन हमले के दायरे में कोई वस्तु या शरीर का अंग डालना, या पेनेट्रेशन के लिए बच्चे के शरीर के किसी अंग से छेड़छाड़ करना या मुंह का इस्तेमाल करना शामिल है।’
अदालत ने कहा कि एक तरफ धारा 375 (दुष्कर्म) और दूसरी तरफ पॉक्सो की धारा 3 और 5 में परिभाषित अपराध की तुलना से पता चलता है कि इस तरह परिभाषित अपराध अलग-अलग हैं। धारा 375 में आने वाले पुरुष शब्द का दायरा और अर्थ वर्तमान कार्यवाही में इस अदालत के विचाराधीन नहीं है, लेकिन कोई कारण नहीं है कि पॉक्सो अधिनियम की धारा 3 में आने वाले व्यक्ति शब्द को केवल पुरुष के संदर्भ में पढ़ा जाए। तदनुसार यह माना जाता है कि पॉक्सो अधिनियम की धारा 3 और 5 में उल्लिखित कृत्य अपराधी के लिंग की परवाह किए बिना अपराध हैं, बशर्ते कि ये कृत्य किसी बच्चे के साथ किए गए हों।
मामले में हाई कोर्ट की विशेष टिप्पणी-
१- पॉक्सो के प्रावधानों से पता चलता है कि पॉक्सो अधिनियम की धारा 3 में प्रयुक्त शब्द ‘वह’ को ये अर्थ नहीं दिया जा सकता कि यह केवल पुरुष के लिए है। इसके दायरे में लिंग भेद के बिना कोई भी अपराधी (महिला और पुरुष दोनों) शामिल होना चाहिए।
२ -यह सही है कि सर्वनाम ‘वह’ को पॉक्सो अधिनियम में कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया है। पॉक्सो अधिनियम की धारा 2(2) के प्रावधान को देखते हुए, किसी को ‘वह’ सर्वनाम की परिभाषा पर वापस लौटना चाहिए, जैसा कि आईपीसी की धारा 8 में है।
३- इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि पॉक्सो एक्ट बच्चों को यौन अपराधों से बचान के लिए बनाया गया है। चाहे वो अपराध किसी पुरुष या महिला ने किया हो। अदालत को कानून के किसी भी प्रावधान की ऐसी व्याख्या नहीं करनी चाहिए जो विधायी इरादे और उद्देश्य से अलग हो।
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