सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में यह साफ कर दिया है कि हत्या के प्रयास के लिए दोषी ठहराए गए व्यक्ति को दस साल से ज़्यादा सश्रम कारावास की सज़ा नहीं दी जा सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अगर आजीवन कारावास की सजा ना मिली हो तो अपराधी को इससे ज्यादा अवधि तक जेल में नहीं रखा जा सकता है।
न्यायामूर्ति सीटी रविकुमार और न्यायामूर्ति राजेश बिंदल की पीठ ने आईपीसी की धारा 307 के तहत सज़ा को स्पष्ट करते हुए हत्या के प्रयास के मामलों के लिए निर्धारित अधिकतम सज़ा का पालन करने का आदेश दिया है। कोर्ट ने कहा कि हत्या के प्रयास के लिए सज़ा के मामले में कानून स्पष्ट है। आईपीसी की धारा 307 के पहले भाग में अधिकतम दस साल कारावास की सजा निर्धारित की गई है जबकि दूसरे भाग में आजीवन कारावास की सजा का प्रावधान है।
अदालत ने सुनवाई के दौरान कहा, “जब कानून ने स्पष्ट शब्दों में धारा 307 आईपीसी के पहले भाग के तहत आरोप साबित होने पर अधिकतम सजा निर्धारित की है और जब संबंधित कोर्ट ने अभियुक्त को दोषी ठहराते समय आजीवन कारावास की सजा नहीं दी, तो किसी भी परिस्थिति में दोषी को दी जाने वाली सजा आईपीसी की धारा 307 के पहले भाग के तहत निर्धारित सजा से अधिक नहीं हो सकती।”
जानकारी हो कि भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस), जो 1 जुलाई से लागू हुई है, की धारा 109 के तहत हत्या के प्रयास को इन्हीं प्रावधानों के साथ बरकरार रखा गया है।
अपने फैसले में कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि अगर धारा 307 के दूसरे भाग के तहत दोषी को आजीवन कारावास की सजा नहीं दी जाती है, तो एकमात्र दूसरा विकल्प पहले भाग के तहत निर्धारित सजा है। इसमें साफ उल्लेख है कि सजा की अवधि अधिकतम दस साल तक हो सकती है और जुर्माना भी लगाया जा सकता है।
आईपीसी की धारा 307 हत्या के प्रयास की सजा से संबंधित है और इसे दो भागों में बांटा गया है। पहला भाग हत्या के प्रयास से संबंधित है, जिसके लिए दस साल तक की कैद और जुर्माना हो सकता है। वहीं दूसरे भाग में उन स्थितियों का जिक्र है जहां पीड़ित को नुकसान पहुंचा हो, जिसमें दोषी को आजीवन कारावास की सजा भी दी जा सकती है।
सजा हमेशा अपराध के अनुसार होनी चाहिए- सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट में हत्या के प्रयास के एक मामले में 14 साल की जेल की सजा सुनाए गए दो दोषियों की अपील पर सुनवाई चल रही थी। हरियाणा के अतिरिक्त एडवोकेट जनरल नीरज और एडवोकेट पीयूष बेरीवाल ने तर्क दिया कि शारीरिक चोट की प्रकृति और उसके बाद की स्थिति के हिसाब से दोषियों को 14 साल की जेल की सजा मिलनी चाहिए। हालांकि कोर्ट ने इससे इनकार कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने सजा सुनाने में आनुपातिकता के सिद्धांत को रेखांकित किया और इस बात पर जोर दिया कि सजा अपराध के अनुरूप होनी चाहिए।
कोर्ट ने कहा, “धारा 307 का विश्लेषण करने से यह स्पष्ट हो जाएगा कि यह कानून वास्तव में ‘कुलपे पोएना पर एस्टो’ के तर्ज पर बना है, जिसका मतलब है ‘दंड अपराध के अनुपात में होना चाहिए या सजा अपराध के अनुरूप होनी चाहिए।”
लैटिन कहावत ‘क्युलपे पोएना पार एस्टो’ ‘Culpae Poena Par Esto’ का अर्थ है कि सज़ा अपराध के अनुपात में होनी चाहिए; सज़ा अपराध के अनुरूप होनी चाहिए। इस सिद्धांत को लंबे समय से आपराधिक न्याय की आधारशिला माना जाता रहा है।