इलाहाबाद उच्च न्यायलय लखनऊ खंड पीठ ने लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाले एक प्रेमी युगल को राहत देने से इनकार करते हुए कहा है कि कानून पारम्परिक तौर पर विवाह के पक्ष में है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रेमी युगलों की सुरक्षा व लिव-इन को लेकर जो निर्णय पारित की गए हैं, उनमें भी शीर्ष अदालत ने सिर्फ समाज की सच्चाई को स्वीकार किया है, न कि ऐसे रिश्तों को बढ़ावा देने का उक्त निर्णयों में कोई इरादा है।
इस्लाम में भी विवाह पूर्व शारीरिक संबंध कायम करने का विरोध-
न्यायमूर्ति संगीता चंद्रा और न्यायमूर्ति नरेंद्र कुमार जौहरी के पीठ ने सुनवाई के दौरान यह टिप्पणी की कि इस्लाम भी विवाह पूर्व शारीरिक संबंधों के विरुद्ध है और ऐसे कृत्य को व्याभिचार मानते हुए, इसे ‘जिना’ कहा गया है। उक्त टिप्पणियों के साथ न्यायालय ने याचिका को खारिज कर दिया।
इस तरह के रिश्तों में आती हैं तमाम परेशानियां-
न्यायालय ने 28 अप्रैल को याचिका पर विस्तृत आदेश पारित करते हुए कहा कि याचियों ने अपने वैवाहिक स्थिति के बारे में कोई स्पष्ट कथन नहीं किया है और न ही इस तथ्य का उल्लेख है कि वे निकट भविष्य में विवाह करने जा रहे हैं। न्यायालय ने यह भी पाया कि याचिका में पुलिस द्वारा परेशान करने के किसी भी विशेष घटना का कोई उल्लेख नहीं है।
याचिका में सर्वोच्च न्यायालय के तमाम आदेशों का हवाला दिया गया था जिस पर न्यायालय ने टिप्पणी कि उक्त निर्णयों को लिव-इन संबंधों को बढ़ावा देने के तौर पर नहीं देखा जा सकता। न्यायालय ने यह भी टिप्पणी की कि युवाओं में यह जागरुकता भी लानी होगी कि ऐसे रिश्ते तमाम कानूनी परेशानियों को उत्पन्न करते हैं जैसे सम्पत्ति में बंटवारा, हिंसा, लिव-इन पार्टनर के साथ धोखा, पार्टनर से अलगाव अथवा उसकी मृत्यु के पश्चात पुनर्वास व ऐसे संबंधों से पैदा हुए बच्चे की कस्टडी आदि ।
उच्च न्यायालय ने कहा कि स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने भी भरण- पोषण के मामलों में लिव-इन पार्टनर को ‘पत्नी’ की परिभाषा में शामिल करने से इंकार किया है।