योग ही है आज का युग धर्म

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गिरीश्वर मिश्र

योग का शाब्दिक अर्थ सम्बन्ध (या जोड़ ) है और उस सम्बन्ध की परिणति भी।  इस तरह जुड़ना , जोड़ना, युक्त होना , संयुक्त होना जैसी प्रक्रियाएं योग कहलाती हैं जो शरीर, मन और सर्वव्यापी चेतन तत्व के बीच सामंजस्य स्थापित करती हैं। कुल मिला कर योग रिश्तों को पहचानने की एक अपूर्व वैज्ञानिक कला है, जो मनुष्य को उसके अस्तित्व के व्यापक सन्दर्भ में स्थापित करती है। सांख्य दर्शन का सिद्धांत इस विचार-पद्धति की आधार शिला है जिसके अंतर्गत पुरुष और प्रकृति की अवधारणाएं प्रमुख हैं। पुरुष शुद्ध चैतन्य है और प्रकृति मूलत: (जड़) पदार्थ जगत है।

पुरुष प्रकृति का साक्षी होता है। वह शाश्वत, सार्वभौम और अपरिवर्तनशील है। वह द्रष्टा और ज्ञाता है। चित्शक्ति भी वही है। प्रकृति जो सतत परिवर्तनशील है, उसी से हमारी दुनिया या संसार रचा होता है। हमारा शरीर भी प्रकृति का ही हिस्सा है जो प्राणवान है। उसके साथ संयोग ही प्रतिकूल अनुभव देने वाले दुःख का कारण बनता है। इस संयोग से मुक्ति पाना आवश्यक है। प्रकृति में गुणों की प्रधानता से गुणों के बीच द्वंद्व होता है। यह अविद्या से उपजता है और मनुष्य को दुःख की अनुभूति होती है। 

इसीलिए कहा गया – दु:खमेव सर्वं विवेकिनां . अज्ञान के बादल हटने पर ही कष्ट का निवारण संभव है। चूंकि हमारी चित्तवृत्ति बाह्य जगत से अनुबंधित रहती है और इस क्रम में सांसारिक क्लेश से पीड़ित होती है। इसके समाधान का उपाय मात्र आत्म-ज्ञान ही है जो मन और व्यवहार पर सायास नियंत्रण से ही आ सकता है। यह कार्य सरल नहीं होता क्योंकि मन बड़ा ही चंचल है और जिस वस्तु की ओर अग्रसर होता है वैसा ही होने लगता है। यदि मन पर बुद्धि का नियंत्रण न हो तो वह बेलगाम इधर-उधर भटकता ही रहे।. इस कार्य में हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ मन का साथ देती हैं।

फलत: यदि उस पर विवेक-बुद्धि का नियंत्रण न हो तो हमारे सारे कार्य अव्यवस्थित होने लगते हैं और मनुष्य अपने विनाश की ओर कदम बढाने लगता है। मोटे तौर पर देखें तो आज की त्रासदी यही है कि हम बाह्य वस्तुओं ( विषयों) कि चपेट में हैं और इन्द्रियों के खिंचाव में मन हमेशा डावांडोल रहता है और हम उसी को यथार्थ या वास्तविक मान उसी में रमे रहते हैं। एक इच्छा के बाद दूसरी, फिर तीसरी उसका तांता लगा रहता है क्योंकि वह क्षणिक की होती है और कभी भी सारी इच्छाएं पूरी न होने के कारण लगातार असंतोष का भाव बना रहता है। ऐसे विकल मनुष्य के लिए कमी , अभाव , और अतृप्ति आदि के भाव ही उसके प्रेरक बन जाते हैं।

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वह अज्ञानवश इसी को अपना वास्तविक स्वभाव मान बैठता है और कुंठा तथा क्षोभ से ग्रस्त जीता रहता है। उसमें भय , राग और क्रोध घर कर जाते हैं। इसके चलते अशांति रहती है और प्रसन्नता खो जाती है और सुख सपना हो जाता है। योग की विचार-पद्धति समग्र जीवन की एक सकारात्मक शैली उपलब्ध कराती है जो आज के जीवन विरोधी, शोषक और अस्त-व्यस्त करने वाली भ्रामक प्रणालियों का विकल्प प्रस्तुत करती है।

हमारी बहिर्मुखी दृष्टि बाह्य संसार को जानने-समझने को उद्यत रहती है पर अस्तित्व की अंतर्यात्रा अक्सर धरी की धरी रह जाती है। यहाँ तक कि शरीर , श्वास-प्रश्वास और शरीर के अंगों की समझ भी अधूरी ही रहती है। इसका परिणाम होता है कि हम सब आधि व्याधि से ग्रस्त रहते हैं। योग शरीर और उससे परे जीवन की समग्र व्यवस्था की दिशा देने का कार्य करता है।

योग का आधार तो शरीर है परन्तु इसका उत्कर्ष आध्यात्मिक अनुभव के शिखर की ओर अग्रसर करने वाला है। तकनीकी शब्दावली में भौतिक, सूक्ष्म और कारण शरीर तक योग की व्याप्ति है। अन्नमय कोश से शुरू हो कर प्राणमय कोश, विज्ञानमय कोश, मनोमय कोश से होते हुए आनंदमय कोश की यात्रा के लिए योग ही उपाय है। इसके लिए योग शास्त्र में प्राण की साधना का प्रामाणिक और अनुभवसिद्ध विधान किया गया है। योग का आरंभिक उल्लेख ऋग्वेद, शतपथ ब्राह्मण और बृहदारण्यक उपनिषद आदि प्राचीन में मिलता है परन्तु महर्षि पतंजलि द्वारा रचित योग सूत्र इसकी सबसे व्यवस्थित व्याख्या है।

आज देश विदेश में अनेक प्रकार के योग विभिन्न ज्ञान-परम्पराओं में विकसित हो चुके हैं। व्यावहारिक स्तर पर यह एक मनो-आध्यात्मिक प्रौद्योगिकी का रूप ले चुका है जिसका स्वास्थ्य की रक्षा और संबर्धन में उपयोग किया जा रहा है, परन्तु यह इसका एक पक्ष है। योग एक शास्त्र या ज्ञानानुशासन भी है और सांख्य-योग भारतीय दर्शन का प्रमुख अंग है।  योग आन्तरिक अनुशासन है जो यथार्थ ज्ञान और मानवीय परिस्थति में सटीक रूप से सर्वोत्तम (परफेक्शन) को उपलब्ध करने के लिए तत्पर है। योग-मार्ग पर चल कर अनानुबंधित, बिना मुखौटे के ,चेतना का वास्तविक स्वरूप अनुभवग्राह्य हो पाता है.।यह चेतना निजी अवबोध (अवेयरनेस ) न हो कर सभी तरह के अवबोध की आधार भूमि होती है। यह अस्तित्व (बीइंग) का अनिवार्य अंश है या कहें मानव स्वभाव का समग्र रूप है।

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योग चैत्य पुरुष और प्रकृति के मध्य समुचित सम्बन्ध को बताता है। प्रकृति का उद्विकास होता है। उसके सत्व गुण में चेतना, अर्थ और बुद्धि की विशेषताएं विद्यमान होती हैं। प्रकृति एक मनो अस्तित्व (साइकिक बीइंग) का रूप ले लेती है। चेतना के प्रतिविम्ब होने के कारण वस्तु (आब्जेक्ट) व्यक्ति (सब्जेक्ट) हो जाता है। सत्व का परिष्कृत रूप मनो सत्ता का रूप ले लेता है। इस तरह व्यक्ति चेतना का वहां तक भौतिक शारीरी रूप होता है, जिस सीमा तक चेतना व्यक्ति में प्रतिविम्बित होती है। शुद्ध या अकलुष चेतन सत्ता या ‘कैवल्य’ सत्वप्रधान पुरुष होता है. मन अवबोध का उपकरण है।

योग अहंकार और अस्मिता की सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए व्यक्ति की आत्मोन्नति का मार्ग प्रशस्त करता है। वह सांसारिक प्रपंच के अस्तित्व से परे ले जाता है। मन से स्वतंत्रता या मुक्ति ही प्रमुख चुनौती है। मन को अंतःकरण भी कहते हैं।

अर्थात वह भीतर की ज्ञानेन्द्रिय है. इसके साथ बुद्धि और अहंकार भी जुड़े होते हैं। गुणों की साम्यावस्था से विचलन होने से असंतुलन होता है। चित्त प्रकार्यात्मक मन है और आत्म तत्व चेतना में अवस्थित होता है।  चित्त प्रकृति और पुरुष के बीच मध्यस्थ का कार्य करता है। हमारे चित्त की सक्रियता के अनेक स्तर होते हैं, जिन्हें चित्त भूमि कहा गया है। ये हैं क्षिप्त , मूढ़ , विक्षिप्त , एकाग्र और निरुद्ध। क्षिप्त स्थिति में रजो गुण की प्रधानता और व्यक्ति उतावला, व्यग्र रहता है। मूढ़ स्थिति में तमो गुण प्रधान होता है और विवेक कार्य नहीं करता . इस यात्रा में संशय, प्रमाद और आलस्य जैसे अंतराय या बाधाएं आती हैं ।

आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधी दैविक ताप भी बाधक होते हैं।एकाग्र किसी पदार्थ या विचार पर केन्द्रित होने की सम्प्रज्ञात समाधि की स्थिति होती है और निरुद्ध असम्प्रज्ञात समाधि की स्थिति होती है। प्रमाण ( वैध ज्ञान) , विपर्याय (मिथ्या ज्ञान) , विकल्प (प्रतिमा) , निद्रा , स्मृति , और प्रत्यक्ष चित्त वृत्तियाँ मानस की अभिव्यक्ति होती हैं। प्रत्यक्ष निर्विकल्प और सविकल्प दोनों तरह का हो सकता है। हम जिसे कर्म कहते हैं वह हमारी इच्छाओं , संकल्पों , विचारों और व्यवहारों की नैतिक गतिकी होता है। स्मरणीय है कि अविद्या, अस्मिता , राग द्वेष , अभिनिवेश प्रमुख क्लेश हैं। योग का अभ्यास वापस सहज स्वाभाविक स्थिति में लाता है जिसे प्रतिप्रसव यानी मूल श्रोत की और लौटना कहते हैं।

मन ही समस्याओं का कारण भी है और समाधान भी। सुख सौमनस्य के लिए मनोबल की आवश्यकता होती है जो आज बहुत आवश्यक हो गया है। आज विश्व में चिंता, अवसाद आदि के रोगियों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है। जब मन में शान्ति हो तो प्रसन्नता प्रेरक होती है अन्यथा असंतुलित होने पर खुशी भी भयानक हो सकती है- : अव्यवस्थित चित्तानाम प्रसादोपि भयंकर : . योग मन की वृत्ति को नियमित-परिमार्जित कर सकारात्मक दिशा देता है। कहा गया विद्वान है विगत का शोक किये बिना, भविष्य की चिंता से मुक्त वर्त्तमान में जीते हैं। भूत काल से मुक्ति अर्थ होता है राग द्वेष से मुक्ति जो मानसिक स्वास्थ के लिए आवश्यक होता है।

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स्वस्थ शरीर और स्वस्थ मन से ही स्वस्थ जीवन निर्मित होता है। इसके लिए स्वस्थ और सक्रिय जीवन शैली होनी चाहिए। आज की तकनीक प्रधान जीवन में समय की उपलब्धताऔर शारीरिक सक्रियता की कमी के बीच आत्म-परीक्षण या आत्मालोचन का अवसर नहीं मिल रहा है। तमाम कल्पित अवरोध और बाधाएं मन को विचलित करती रहती हैं। स्वचालित पाइलट की तरह मन भ्रमण करता रहता है। अनियंत्रित चिन्तन-धारा हमारे आत्म-बोध पर नकारात्मक प्रभाव डालती है।

भविष्य आत्म चेतस जीवन में निहित है। यांत्रिक अनुक्रिया नहीं बल्कि सचेत जीवन जीना जरूरी है। आज बाहर की दुनिया की चेतना तो रहती है उसी में हम खोये रहते हैं। व्यक्तियों, वस्तुओं , घटनाओं से जुड़ना , चीजों को एकत्र करना , उपभोग और खर्च करना अर्थात भौतिक संलग्नता ही जीवन के केंद्र में आती जा रही है, पर हम सिर्फ भौतिक शरीर मात्र नहीं हैं। हम शरीर और मन के स्वामी हैं। हम बाहर के उद्दीपकों के प्रति प्रति क्रिया करने वाले निरे यंत्र नहीं हैं। योग शरीर, मन और आत्म की समग्र दृष्टि से संपन्न करता है। विश्व में सबके साथ आत्मीयता के लिए ध्यान को नियमित करना, समाज के प्रति सकारात्मक वृत्ति , दया, समानुभूति, और आदर का भाव आज की अनिवार्यता होती जा रही है। इन सबका मार्ग प्रशस्त करते हुए योग आज का युग धर्म हो रहा है। इसे स्वीकार कर जीवन में उतारना ही आज का युग धर्म है।

(लेखक सुप्रसिद्ध चिंतक और महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति हैं)

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