वह व्यक्ति जिसने भारत को बचाया- यथार्थवादी “सरदार बल्लभ भाई पटेल”

Estimated read time 1 min read

स्वतंत्र भारत के पहले उपप्रधानमंत्री और गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल की 70वीं पुण्यतिथि पर समर्पित-

सरदार पटेल के शासन में रहने के दौरान भारत का क्षेत्रफल पाकिस्तान के अस्तित्व में आने के बावजूद समुद्रगुप्त (चौथी शताब्दी), अशोक (250 वर्ष ईसापूर्व) और अकबर (16वीं शदाब्दी) के ज़माने के भारत के क्षेत्रफल से अधिक था-

आपका जन्म 31 अक्टूबर 1875 को गुजरात के खेड़ा जिले में हुआ था. उन्होंने अपनी अंतिम सांस 15 दिसंबर 1950 को मुंबई में ली.

किसान परिवार में जन्मे पटेल अपनी कूटनीतिक क्षमताओं के लिए भी याद किए जाते हैं. आज़ाद भारत को एकजुट करने का श्रेय पटेल की सियासी और कूटनीतिक क्षमता को ही दिया जाता है.

सरदार पटेल को अपनी स्कूली शिक्षा पूरी करने में काफी वक्त लगा. उन्होंने 22 साल की उम्र में 10वीं की परीक्षा पास की. परिवार में आर्थिक तंगी की वजह से उन्होंने कॉलेज जाने की बजाय किताबें लीं और ख़ुद ज़िलाधिकारी की परीक्षा की तैयारी करने लगे. इस परीक्षा में उन्होंने सर्वाधिक अंक प्राप्त किए. 36 साल की उम्र में सरदार पटेल वकालत पढ़ने के लिए इंग्लैंड गए. उनके पास कॉलेज जाने का अनुभव नहीं था फिर भी उन्होंने 36 महीने के वकालत के कोर्स को महज़ 30 महीने में ही पूरा कर दिया.

आज़ादी से पहले जूनागढ़ रियासत के नवाब ने 1947 में पाकिस्तान के साथ जाने का फ़ैसला किया था. लेकिन भारत ने उनका फ़ैसला स्वीकार करने के इनकार करके उसे भारत में मिला लिया.

‘चेंजिंग इंडिया- स्ट्रेट फ्रॉम हार्ट’- एसके सिन्हा

एक ज़माने में भारतीय थल सेना के उप प्रमुख और असम और जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल रहे एसके सिन्हा अपनी आत्मकथा ‘चेंजिंग इंडिया- स्ट्रेट फ्रॉम हार्ट’ में एक वाक़या बताते हैं, “एक बार जनरल करियप्पा को संदेश मिला कि सरदार पटेल उनसे तुरंत मिलना चाहते हैं. करियप्पा उस समय कश्मीर में थे. वो तुरंत दिल्ली आए और पालम हवाई अड्डे से सीधे पटेल के औरंगज़ेब रोड स्थित निवास पर पहुंचे. मैं भी उनके साथ था.”

वे कहते हैं, “मैं बरामदे में उनका इंतज़ार करने लगा. करियप्पा पाँच ही मिनट में बाहर आ गए. बाद में उन्होंने मुझे बताया. पटेल ने मुझसे बहुत ही साधारण सवाल पूछा. हमारे हैदराबाद ऑपरेशन के दौरान अगर पाकिस्तान की तरफ़ से कोई प्रतिक्रिया आती है तो क्या आप बिना किसी अतिरिक्त सहायता के उसका सामना कर पाएंगे? करियप्पा ने पूरे विश्वास से सिर्फ़ एक शब्द का जवाब दिया ‘हाँ’ और बैठक ख़त्म हो गई.”

वे कहते हैं, “दरअसल, उस समय भारतीय सेना के प्रमुख जनरल रॉय बूचर कश्मीर के हालात को देखते हुए हैदराबाद में कार्रवाई करने के पक्ष में नहीं थे. उधर जिन्ना धमकी दे रहे थे कि अगर भारत हैदराबाद में हस्तक्षेप करता है तो सभी मुस्लिम देश उसके ख़िलाफ़ उठ खड़े होंगे. उस बैठक के तुरंत बाद लौह पुरुष ने हैदराबाद में ऐक्शन का हुक्म दिया और एक हफ़्ते के अंदर ही हैदराबाद भारत का अंग बन गया.”

सोमनाथ मंदिर और सरदार

भारत के तत्कालीन उप-प्रधानमंत्री सरदार पटेल 12 नवंबर, 1947 को जूनागढ़ पहुंचे. उन्होंने भारतीय सेना को इस क्षेत्र में स्थिरता बहाल करने के निर्देश दिए और साथ ही सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण का आदेश दिया.

सरदार पटेल, केएम मुंशी और कांग्रेस के दूसरे नेता इस प्रस्ताव के साथ महात्मा गांधी के पास गए.ऐसा बताया जाता कि महात्मा गांधी ने इस फ़ैसले का स्वागत किया, लेकिन ये भी सुझाव दिया कि निर्माण के खर्च में लगने वाला पैसा आम जनता से दान के रूप में इकट्ठा किया जाना चाहिए, ना कि सरकारी ख़ज़ाने से दिया जाना चाहिए.

ALSO READ -  खादी और ग्रामोद्योग आयोग (केवीआईसी) ने शुरुआत की री-हैब परियोजना-

हिंडोल सेनगुप्ता लिखते हैं-

हिंडोल सेनगुप्ता लिखते हैं, “नेहरू का खेमा अपने नेता को एक विश्व नेता के तौर पर दिखाना पसंद करता है जबकि उनकी नज़र में पटेल एक प्राँतीय या ज़्यादा से ज़्यादा एक मुफ़स्सिल ‘स्ट्रॉन्ग मैन’ हैं जो जो हाथ मरोड़ कर राजनीतिक जीत दर्ज करते हैं. वहीं पटेल के समर्थक नेहरू को अच्छे कपड़े पहनने वाले एक कमज़ोर नेता के रूप में चित्रित करते हैं. उनका दावा है कि नेहरू में मुश्किल राजनीतिक परिस्थितियों को सँभालने का न तो दम था और न ही क्षमता.”

शायद नेहरू और पटेल की क्षमताओं का सबसे सटीक आकलन राजमोहन गाँधी ने अपनी किताब पटेल में किया हैं, “1947 में अगर पटेल 10 या 20 साल उम्र में छोटे हुए होते तो शायद बहुत अच्छे और संभवत: नेहरू से भी बेहतर प्रधानमंत्री साबित हुए होते. लेकिन 1947 में पटेल नेहरू से उम्र में 14 साल बड़े थे और इतने स्वस्थ नहीं थे कि प्रधानमंत्री के पद के साथ न्याय कर पाते.”

सरदार पटेल की जीवनी में राजमोहन गाँधी लिखते हैं

पटेल की जीवनी में राजमोहन गाँधी लिखते हैं, “1928 में बारदोली के किसान आँदोलन में पटेल की भूमिका के बाद पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष मोतीलाल नेहरू ने गाँधी को पत्र में लिखा, “इसमें कोई संदेह नहीं कि इस समय के हीरो वल्लभभाई हैं. हम उनके लिए कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं कि उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष बना दें. अगर किन्हीं कारणों से ऐसा नहीं होता हैं तो जवाहरलाल हमारी दूसरी पसंद होने चाहिए.”

राजमोहन गांधी लिखते हैं कि “पटेल बनाम नेहरू वाद-विवाद में नेहरू के पक्ष में दलीलें दी जाती थीं कि पटेल नेहरू से उम्र में 14 साल बड़े थे, वो युवाओं के बीच नेहरू की तुलना में उतने लोकप्रिय नहीं थे और ये भी कि नेहरू का रंग गोरा था और वो देखने में आकर्षक लगते थे जबकि पटेल गुजराती किसान परिवार से आते थे और थोड़े चुपचाप किस्म के बलिष्ठ दिखने वाले शख़्स थे. उनकी खिचड़ी मूछें थीं जिन्हें बाद में उन्होंने मुंडवा दिया था. उनके सिर पर छोटे बाल थे, आँखों में थोड़ी लाली थी और चेहरे पर थोड़ी कठोरता दिखाई देती थी.”

नेहरू और पटेल ने क़रीब क़रीब एक ही समय विलायत में वकालत पढ़ी थी. लेकिन इस बात के कोई रिकॉर्ड नहीं मिलते कि उस दौरान कभी उनकी कोई मुलाक़ात हुई थी या नहीं.

नेहरू और पटेल की क्षमताओं का सबसे सटीक आकलन राजमोहन गाँधी ने अपनी किताब पटेल में किया हैं, “1947 में अगर पटेल 10 या 20 साल उम्र में छोटे हुए होते तो शायद बहुत अच्छे और संभवत: नेहरू से भी बेहतर प्रधानमंत्री साबित हुए होते. लेकिन 1947 में पटेल नेहरू से उम्र में 14 साल बड़े थे और इतने स्वस्थ नहीं थे कि प्रधानमंत्री के पद के साथ न्याय कर पाते.”

राजमोहन गांधी

‘सरदार पटेल्स कॉरेसपॉन्डेंस’-दुर्गा दास

दुर्गा दास अपनी किताब ‘सरदार पटेल्स कॉरेसपॉन्डेंस’ में लिखते हैं कि “पटेल को अपने अंग्रेज़ी कपड़ों से इतना प्रेम था कि अहमदाबाद में अच्छा ड्राई क्लीनर न होने की वजह से वो उन्हें बंबई में ड्राई- क्लीन करवाते थे.”

ALSO READ -  रियर एडमिरल अजय कोचर ने पश्चिमी बेड़े (एफओसीडब्ल्यूएफ) की कमान संभाली-

बाद में वो गांधी के स्वदेशी आँदोलन से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने साधारण भारतीय कपड़े पहनने शुरू कर दिए.

”सरदार पटेल रहन-सहन में गांधी जैसी ज़िंदगी ही जीते थे. जब वो मरे जो उनकी बेटी ने एक पैसे का लिफाफा नेहरू को लाकर दिया. इसमें लिखा था संगठन का पैसा. पटेल के पैर में एक पुरानी किस्म की चप्पल रहती थी. बहुत छोटी सी धोती थी.

गुजरात का बारडोली का किसान सत्याग्रह, 1928-

ब्रिटिश हुकूमत ने बारडोली के किसानों पर लगने वाले टैक्स में अचानक 22 फ़ीसदी का इजाफा कर दिया. ग़रीब किसानों के लिए इतना कर देना संभव नहीं था.

वल्लभभाई पटेल ने किसानों की ओर से सरकार से अपील की. लेकिन इसका कोई फ़ायदा नहीं हुआ. पटेल ने फ़ैसला किया कि वो घर-घर जाकर किसानों से टैक्स न चुकाने की अपील करेंगे.

पटेल ने किसानों से कहा था, ”मैं आप लोगों को साफ़ बता दूं कि अंग्रेज़ी हुकूमत से लड़ने के लिए मैं आपको बड़े-बड़े हथियार नहीं दे सकता. बस आपका दृंढ निश्चय और सामर्थ्य ही है, जिससे आपको ये लड़ाई लड़नी है. लेकिन मैं आपको यक़ीन दिलाता हूं कि अगर आप कष्ट सहने के लिए तैयार हैं तो दुनिया की सबसे बड़ी ताकतें आपके आगे घुटने टेकेंगी. ये अंग्रेज़ न आपकी ज़मीन विलायत ले जाएंगे और न आपकी ज़मीन जोतेंगे. इनसे डरिए मत. एकता में रहेगा बल तो कोई और नहीं चला सकेगा आपकी ज़मीन पर हल.”

पटेल के प्रेरक भाषणों को सुनकर किसान एकजुट हुए. बारडोली के इस किसान सत्याग्रह पर सबकी आंखें टिकी हुईं थीं. नतीजा ये हुआ कि अंग्रेज़ सरकार को झुकना पड़ा.

इस आंदोलन की सफलता से वल्लभभाई महात्मा गांधी के क़रीब आ गए. इसी आंदोलन की सफ़लता के बाद वल्लभभाई पटेल को सरदार की उपाधि दी गई. इसी आंदोलन की वजह से सरोजिनी नायडू पटेल को ‘बारडोली का बैल’ भी कहती थीं.

“पटेल के पैर हमेशा ज़मीन पर रहते थे, जबकि नेहरू के पैर हमेशा आसमान में.”

जमीनी व्यक्तित्व जमीनी बात

ब्रिज के खेल में महारत रखने के बावजूद पटेल एक ग्रामीण परिवेश से आने का आभास देते थे. उनमें एक किसान जैसी ज़िद, रूखा संकोच और दरियादिली थी.

दुर्गा दास लार्ड माउंटबेटन को कहते हुए बताते हैं, “पटेल के पैर हमेशा ज़मीन पर रहते थे, जबकि नेहरू के पैर हमेशा आसमान में.”

हिंडोल सेनगुप्ता लिखते हैं, “नेहरू का खेमा अपने नेता को एक विश्व नेता के तौर पर दिखाना पसंद करता है जबकि उनकी नज़र में पटेल एक प्राँतीय या ज़्यादा से ज़्यादा एक मुफ़स्सिल ‘स्ट्रॉन्ग मैन’ हैं जो जो हाथ मरोड़ कर राजनीतिक जीत दर्ज करते हैं. वहीं पटेल के समर्थक नेहरू को अच्छे कपड़े पहनने वाले एक कमज़ोर नेता के रूप में चित्रित करते हैं. उनका दावा है कि नेहरू में मुश्किल राजनीतिक परिस्थितियों को सँभालने का न तो दम था और न ही क्षमता.”

शायद नेहरू और पटेल की क्षमताओं का सबसे सटीक आकलन राजमोहन गाँधी ने अपनी किताब पटेल में किया हैं, “1947 में अगर पटेल 10 या 20 साल उम्र में छोटे हुए होते तो शायद बहुत अच्छे और संभवत: नेहरू से भी बेहतर प्रधानमंत्री साबित हुए होते. लेकिन 1947 में पटेल नेहरू से उम्र में 14 साल बड़े थे और इतने स्वस्थ नहीं थे कि प्रधानमंत्री के पद के साथ न्याय कर पाते.”

ALSO READ -  देश का पहला खेलो इंडिया स्पोर्ट्स स्कूल बना "असम राइफल्स पब्लिक स्कूल"-

दुर्गा दास उनकी बेटी मणिबेन को कहते बताते हैं कि “1941 से पटेल को आँतों में तकलीफ़ शुरू हो गई थी. वो आँतों में दर्द की वजह से सुबह साढ़े तीन बजे उठ जाते थे. वो क़रीब एक घंटा टॉयलेट में बिताते थे और फिर अपनी सुबह की सैर पर निकलते थे. मार्च 1948 में उनकी बीमारी के बाद उनके डॉक्टरों ने उनकी सुबह की वॉक पर भी रोक लगा दी थी और लोगों से उनका मिलना-जुलना भी कम कर दिया था.”

“रेमिनेंसेज़”, पटेल के सचिव वी शंकर की आत्मकथा

पटेल के सचिव वी शंकर अपनी आत्मकथा रेमिनेंसेज़ में लिखते हैं कि 1948 समाप्त होते होते पटेल चीज़ों को भूलने लगे थे और उनकी बेटी मणिबेन ने नोट किया था कि वो कुछ ऊँचा भी सुनने लगे थे और थोड़ी देर में ही थक जाते थे.

21 नवंबर, 1950 को मणिबेन को उनके बिस्तर पर ख़ून के कुछ धब्बे दिखाई दिए. तुरंत उनके साथ रात और दिन रहने वाली नर्सों का इंतज़ाम किया गया. कुछ रातों में उन्हें ऑक्सिजन पर भी रखा गया.पाँच दिसंबर आते आते पटेल को अंदाज़ा हो गया था कि उनका अंत क़रीब है. 6 दिसंबर को राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद उनके पास आकर क़रीब 10 मिनट बैठे लेकिन पटेल इतने बीमार थे कि उनके मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला.जब बंगाल के मुख्यमंत्री बिधानचंद्र रॉय, जो कि खुद एक अच्छे डॉक्टर थे, उन्हें देखने आए तो पटेल ने उनसे पूछा, “रहना है कि जाना?”डाक्टर रॉय ने जवाब दिया, “अगर आपको जाना ही होता तो मैं आपके पास आता ही क्यों?”

इसके बाद अगले दो दिनों तक सरदार कबीर की पंक्तियाँ “मन लागो मेरो यार फ़कीरी” गुनगुनाते रहे.अगले ही दिन डॉक्टरों ने तय किया कि पटेल को मुंबई ले जाया जाए, जहाँ का बेहतर मौसम शायद उनको रास आ जाए.

राजमोहन गांधी अपनी किताब पटेल में लिखते हैं कि 12 दिसंबर, 1950 को सरदार पटेल को वेलिंग्टन हवाईपट्टी ले जाया गया जहाँ भारतीय वायुसेना का डकोटा विमान उन्हें बंबई ले जाने के लिए तैयार खड़ा था.

विमान की सीढ़ियों के पास राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद, प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, पूर्व गवर्नर जनरल सी राजगोपाचारी और उद्योगपति घनश्यामदास बिरला खड़े थे.

पटेल ने सबसे मुस्करा कर विदा ली. साढ़े चार घंटे की उड़ान के बाद पटेल बंबई के जुहू हवाई अड्डे पर उतरे. हवाईअड्डे पर बंबई के पहले मुख्यमंत्री बी जी खेर और मोरारजी देसाई ने उनका स्वागत किया.राज भवन की कार उन्हें बिरला हाउस ले गई. लेकिन उनकी हालत बिगड़ती चली गई.

15 दिसंबर, 1950 की सुबह तीन बजे पटेल को दिल का दौरा पड़ा और वो बेहोश हो गए. चार घंटो बाद उन्हें थोड़ा होश आया. उन्होंने पानी माँगा. मणिबेन ने उन्हें गंगा जल में शहद मिला कर चमच से पिलाया. 9 बज कर 37 मिनट पर सरदार पटेल ने अंतिम साँस ली.

You May Also Like