तीन करोड़ से अधिक लंबित मुकदमें, पचास हजार से ज्यादा खाली पड़ी जजों की कुर्सियां – अधर में न्यायिक सेवा के गठन का मामला?

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केंद्रीय विधि और न्याय मंत्रालय के सूत्रों के मुताबिक अभी सिर्फ दो राज्य ही इसके पक्ष में हैं जबकि आठ राज्यों ने साफ इनकार कर दिया है. तेरह राज्यों ने इसपर कोई जवाब ही नहीं दिया है. पांच राज्य जजों की नियुक्ति की मौजूदा व्यवस्था में कुछ बदलाव चाहते हैं.

प्रशासनिक और पुलिस सेवा की तर्ज पर पूरे देश की निचली अदालतों में जजों की नियुक्ति के लिए न्यायिक सेवा के गठन का मामला में पड़ता दिख रहा है. इस सेवा को लेकर अधिकतर राज्य और हाई कोर्ट ने इनकार ही किया है.

न्यायिक सेवा से इनकार करने वाले राज्य और हाई कोर्ट का आंकड़ा 99 फीसदी है. सिर्फ एक फीसदी राज्यों ने ही इसमें हामी भरी है.

प्रशासनिक और पुलिस सेवा की तर्ज पर पूरे देश की निचली अदालतों में जजों की नियुक्ति के लिए न्यायिक सेवा के गठन का मामला अधर में पड़ता दिख रहा है. इस सेवा को लेकर अधिकतर राज्य और हाई कोर्ट ने इनकार ही किया है. न्यायिक सेवा से इनकार करने वाले राज्य और हाई कोर्ट का आंकड़ा 99 फीसदी है. सिर्फ एक फीसदी राज्यों ने ही इसमें हामी भरी है.

देश की निचली अदालतों में तीन करोड़ से अधिक मुकदमें लंबित पड़े हैं और पचास हजार से ज्यादा जजों की कुर्सियां खाली हैं. निचली और उससे ऊपर के कोर्ट में चार करोड़ से ज्यादा मुकदमे लंबित हैं. लेकिन इस योजना के ठंडे बस्ते में जाने के बाद जल्दी ही इस समस्या से कारगर ढंग से निपटने के आसार भी धुंधले ही दिखाई पड़ रहे हैं.

केंद्रीय विधि और न्याय मंत्रालय के सूत्रों के मुताबिक अभी सिर्फ दो राज्य ही इसके पक्ष में हैं जबकि आठ राज्यों ने साफ इनकार कर दिया है. तेरह राज्यों ने इसपर कोई जवाब ही नहीं दिया है. पांच राज्य जजों की नियुक्ति की मौजूदा व्यवस्था में कुछ बदलाव चाहते हैं.

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न्यायिक सेवा के गठन को लेकर हाई कोर्ट की बात करें तो तेरह हाई कोर्ट ने इससे साफ इनकार कर दिया है. वहीं सिर्फ दो ने हामी भरी है जबकि छह हाई कोर्ट इसमें बदलाव चाहते हैं. वहीं दो हाई कोर्ट की तरफ से इसपर कोई जवाब ही नहीं आया.

कुछ राज्यों में तो स्थिति और भी विचित्र हो गई है. राज्य सरकार योजना के पक्ष में है तो हाई कोर्ट इसके खिलाफ है. ऐसा मामला हरियाणा और मिजोरम में सामने आया है.

यानी इन आंकड़ों के बाद सरकार के पास इस परियोजना के मौजूदा स्वरूप में आगे बढ़ाने की कोई गुंजाइश नहीं है. अब सरकार वैसा सामान्य आधार ढूंढने की कोशिश कर रही है जिससे निचली अदालतों में जजों की नियुक्ति में राज्य सरकारों और हाईकोर्ट की भूमिका भी बनी रहे और नियुक्ति प्रक्रिया पारदर्शी हो और इसकी रफ्तार भी ज्यादा रहे.

अभी मौजूदा व्यवस्था इतनी पेचीदा है कि जजों के इम्तिहान होने और फिर कोर्टरूम में नियुक्ति होते होते डेढ़ से दो साल लग जाते हैं. इस योजना में सबसे बड़ा रोड़ा भाषा का है. ट्रायल कोर्ट के जज को न केवल स्थानीय भाषा समझ में आनी चाहिए बल्कि बोलने और लिखने पढ़ने में भी माहिर होना चाहिए.

उत्तर, पश्चिम. पूरब और दक्षिण के बीच ये सबसे बड़ी समस्या है. यानी केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु के उम्मीदवारों को यूपी, बिहार, उत्तराखंड, राजस्थान, हिमाचल जैसे राज्यों की निचली अदालतों में ट्रायल करना बड़ी चुनौती होगी. यही समस्या उत्तर भारत के चयनित जजों के सामने भी आएगी.

साल 2012 में केंद्र सरकार इस अखिल भारतीय सेवा का प्रस्ताव लेकर आई थी. तब सबसे पहले सचिवों की समिति में ये नया प्रस्ताव लाया गया था ताकि निचली अदालतों में सुयोग्य उम्मीदवारों यानी कानून और न्यायशास्त्र के विद्वानों को जजों के रूप में नियुक्त किया जा सके.

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प्रक्रिया पारदर्शी और त्वरित रखने का लक्ष्य था लेकिन नौ साल तो इस योजना को लेकर सर्वेक्षण और विचार विमर्श में ही बीत गए. अभी भी मामला वहीं अटका पड़ा है. जबकि देश की निचली अदालतों में जजों के रिक्त पद और मुकदमों का बोझ बढ़ता ही जा रहा है.

देश की निचली अदालतों में तीन करोड़ से अधिक मुकदमें लंबित पड़े हैं और पचास हजार से ज्यादा जजों की कुर्सियां खाली हैं. निचली और उससे ऊपर के कोर्ट में चार करोड़ से ज्यादा मुकदमे लंबित हैं. लेकिन इस योजना के ठंडे बस्ते में जाने के बाद जल्दी ही इस समस्या से कारगर ढंग से निपटने के आसार भी धुंधले ही दिखाई पड़ रहे हैं.

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