उच्चतम न्यायालय Supreme Court ने हिमाचल प्रदेश सरकार Himanchal Pradesh Government को निर्देश दिया कि वह 1972-73 में सड़क के निर्माण के लिए इस्तेमाल की गई कुछ जमीनों को ‘‘अधिग्रहण’’ के रूप में मानें और उचित मुआवजा प्रदान करें।
न्यायालय ने साथ ही कहा कि यह स्पष्ट है कि सरकार के इस कदम से जमीन मालिकों के साथ उचित नहीं हुआ था।
उच्चतम न्यायालय ने कहा कि मामले के तथ्यों से पता चलता है कि राज्य ने ‘‘गोपनीय और मनमाने तरीके से’’ सक्रिय रूप से कानून द्वारा आवश्यक मुआवजे के वितरण को केवल उन लोगों तक सीमित करने की कोशिश की है, जिनके संबंध में अदालती निर्देश आये थे।
न्यायमूर्ति एस. आर. भट और न्यायमूर्ति पी. एस. नरसिम्हा की पीठ ने हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ एक अपील पर अपना फैसला सुनाया, जिसमें अपीलकर्ताओं द्वारा दायर रिट याचिका को कानून के अनुसार दीवानी मुकदमा दायर करने की स्वतंत्रता के साथ निपटाया गया था।
पीठ ने अपील की अनुमति देते हुए कहा, ‘‘अपीलकर्ताओं के मौलिक अधिकारों की अवहेलना को देखते हुए, जिसके कारण वे इस अदालत का रुख कर रहे हैं, हम प्रतिवादी-राज्य को कानूनी लागत और अपीलकर्ताओं को 50,000 रुपये के खर्च का भुगतान करने का निर्देश देना भी उचित समझते हैं।’’
शीर्ष अदालत ने पहले के एक फैसले का जिक्र करते हुए कहा कि यह निष्कर्ष निकाला गया है कि कानून की उचित प्रक्रिया का पालन किए बिना उनकी निजी संपत्ति पर जबरन कब्जा करना संविधान के अनुच्छेद 300-ए के तहत उनके मानवाधिकार और संवैधानिक अधिकार दोनों का उल्लंघन है।
शीर्ष अदालत ने कहा कि उसके समक्ष अपीलकर्ता सिरमौर जिले में स्थित भूमि के मालिक होने का दावा करते है।
न्यायालय ने कहा कि यह सामने आया है कि राज्य ने 1972-73 में ‘नाराग फगला रोड’ के निर्माण के लिए आसपास की भूमि का उपयोग किया था, लेकिन कथित तौर पर, न तो भूमि अधिग्रहण की कार्यवाही शुरू की गई थी और न ही अपीलकर्ताओं या आसपास की भूमि के मालिकों को मुआवजा दिया गया था।