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सुप्रीम कोर्ट ने आश्चर्य से कहा की जब आपराधिक कार्यवाही को ही रद्द कर दिया गया तो मामले की क्लोजर रिपोर्ट कैसे हो सकती है-

मामले में आदेश देते हुए न्यायमूर्ति एमआर शाह और न्यायमूर्ति सीटी रविकुमार की पीठ ने इस ‘प्रथा’ को ‘कानून के लिए अज्ञात’ प्रक्रिया बताया

सुप्रीम कोर्ट ने अदालतों द्वारा एफआईआर रद्द किये जाने के बाद भी आपराधिक मामलों में क्लोजर रिपोर्ट दाखिल करने की उत्तराखंड पुलिस की प्रथा को चौंकाने वाला बताया है। बुधवार को उत्तराखंड सरकार द्वारा हाई कोर्ट के 27 अक्टूबर, 2020 के आदेश को चुनौती देने वाली एक याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने यह टिप्पणी की।

मामले में आदेश देते हुए न्यायमूर्ति एमआर शाह और न्यायमूर्ति सीटी रविकुमार की पीठ ने इस ‘प्रथा’ को ‘कानून के लिए अज्ञात’ प्रक्रिया बताया। साथ ही राज्य के मुख्य सचिव और पुलिस प्रमुख को प्रदेश के सभी पुलिस स्टेशनों को यह बताने के लिए कहा कि जिन मामलों में एफआईआर दर्ज की गई है, वहां कोई क्लोजर रिपोर्ट दर्ज नहीं की जाएगी।

सुप्रीम कोर्ट में एक मामले में न्यायमूर्ति एमआर शाह और न्यायमूर्ति सीटी रविकुमार की पीठ ने सुनवाई करते हुए आश्चर्य व्यक्त किया और कहा कि हम वास्तव में यह जानकर चौंक गए है कि जब किसी आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर दिया जाता है, तो मामले की क्लोजर रिपोर्ट कैसे हो सकती है। जब एफआईआर रद्द कर दी जाती है तो सीआरपीसी की धारा 173 के तहत क्लोजर रिपोर्ट तैयार करने का कोई सवाल ही नहीं है।

सर्वोच्च अदालत का यह आदेश उत्तराखंड सरकार द्वारा हाई कोर्ट के एक आदेश को चुनौती देने वाली याचिका पर आया है। दरअसल, उत्तराखंड हाईकोर्ट ने दो पत्रकारों उमेश शर्मा और शिव प्रसाद सेमवाल के खिलाफ जुलाई 2020 में देहरादून में दर्ज एक प्राथमिकी को रद्द कर दिया था। जो कि राजद्रोह, धोखाधड़ी, जालसाजी और आपराधिक साजिश से संबंधित आईपीसी के विभिन्न प्रावधानों के तहत प्राथमिकी दर्ज की गई थी। हालांकि, हाईकोर्ट ने तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के खिलाफ पत्रकारों द्वारा लगाए गए भ्रष्टाचार के आरोपों की सीबीआई जांच का आदेश दिया था।

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सोशल मिडिया फेसबुक पर एक वीडियो पोस्ट करने के लिए पत्रकारों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की गई थी जिसमें आरोप लगाया गया था कि झारखंड के अमृतेश चौहान नाम के एक व्यक्ति ने नोटबंदी के बाद हरेंद्र सिंह रावत और उनकी पत्नी सविता रावत के बैंक खाते में पैसे जमा किए, जो कथित रूप से मुख्यमंत्री के रिश्तेदार हैं।

पत्रकारों द्वारा लगाए गए आरोप 2016 में झारखंड के ‘गो सेवा आयोग’ के प्रमुख के रूप में एक व्यक्ति की नियुक्ति के बदले में रावत के रिश्तेदारों के खातों में कथित रूप से धन हस्तांतरण से संबंधित थे। इन आरोपों पर हाई कोर्ट के फैसले के दो दिन बाद शीर्ष अदालत ने तत्कालीन मुख्यमंत्री के खिलाफ आदेश पर यह कहते हुए रोक लगा दी थी कि हाईकोर्ट का यह आदेश उनकी बात सुने बिना पारित किया गया था।

उमेश शर्मा की ओर से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल और अरुणाभ चौधरी ने अदालत से कहा कि मामले में जांच अधिकारी ने ‘क्लोजर रिपोर्ट’ दायर की है, जबकि हाई कोर्ट के आदेश के खिलाफ इस अदालत के समक्ष कार्यवाही लंबित है।इस दौरान शीर्ष अदालत को बताया गया कि यह उत्तराखंड में एक आम प्रथा है कि अदालतों द्वारा प्राथमिकी रद्द करने की स्थिति में एक आईओ केस डायरी में एक ‘क्लोजर रिपोर्ट’ दर्ज करता है।

अपने आदेश में शीर्ष अदालत की पीठ ने कहा कि मामले के जांच अधिकारी ने क्लोजर रिपोर्ट दाखिल करने के लिए बिना शर्त माफी मांगी थी। साथ ही जांच अधिकारी द्वारा दायर हलफनामे को देखने से पता चलता है कि मामले में क्लोजर रिपोर्ट उनके द्वारा तैयार की गई थी और मजिस्ट्रेट के सामने पेश ना करके पुलिस स्टेशन में रखी गई थी।

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इसने कहा, “अन्यथा भी, एक बार जब प्राथमिकी को उच्च न्यायालय द्वारा रद्द कर दिया जाता है, जो कि वर्तमान कार्यवाही की विषय-वस्तु है, तो उसके बाद कोई समापन रिपोर्ट प्रस्तुत करने का कोई सवाल ही नहीं है जब प्राथमिकी ही रद्द कर दी गई है। यह पूर्ण दिखाता है। संबंधित जांच अधिकारी की ओर से दिमाग का उपयोग न करना”।

पीठ ने कहा कि जांच अधिकारी के कृत्य की अनदेखी करते हुए शीर्ष अदालत 27 अक्टूबर, 2020 के आदेश के खिलाफ राज्य सरकार की अपील पर गुण-दोष के आधार पर फैसला करने के लिए आगे बढ़ेगी।

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