“दहेज मृत्यु मामलों में ‘मृत्यु से ठीक पहले’ की शर्त पर सुप्रीम कोर्ट का अहम फैसला”

"दहेज मृत्यु मामलों में 'मृत्यु से ठीक पहले' की शर्त पर सुप्रीम कोर्ट का अहम फैसला"

दहेज मृत्यु मामलों में ‘मृत्यु से ठीक पहले’ की आवश्यकता की पुनःपुष्टि

यह टिप्पणी भारत के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय करण सिंह बनाम हरियाणा राज्य गृह विभाग (2025 INSC 133) के प्रभावों का विश्लेषण करती है। अपीलकर्ता करण सिंह को भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 304-बी और 498-A के तहत सत्र न्यायालय द्वारा दोषी ठहराया गया था, और उच्च न्यायालय ने इस सजा को बरकरार रखा। हालांकि, सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें बरी कर दिया, जिससे दहेज मृत्यु के मामलों के निर्णय में महत्वपूर्ण सिद्धांत स्पष्ट हुए।

मामला आशा रानी की आत्महत्या से संबंधित था, जिनकी शादी के सात वर्षों के भीतर मृत्यु हो गई। उनकी माँ और भाई ने आरोप लगाया कि उनकी मृत्यु निरंतर दहेज मांगों और उससे जुड़े उत्पीड़न का परिणाम थी। लेकिन, सर्वोच्च न्यायालय ने गवाहों के बयानों और विरोधाभासों की गहन जांच की और पाया कि अभियोजन पक्ष धारा 304-बी, IPC के तहत आवश्यक साक्ष्य मानकों को पूरा नहीं कर पाया।

यह टिप्पणी इस निर्णय की पृष्ठभूमि, सारांश, कानूनी विश्लेषण, नजीरें और इसके दहेज मृत्यु के मामलों में न्यायशास्त्र पर प्रभाव पर विस्तार से चर्चा करती है।


न्यायालय के निर्णय का सारांश

सर्वोच्च न्यायालय ने पाया कि अभियोजन पक्ष यह साबित करने में विफल रहा कि मृतका की मृत्यु से ठीक पहले उस पर दहेज की मांगों को लेकर क्रूरता की गई थी—जो कि IPC की धारा 304-बी और भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 113-बी के तहत आवश्यक तत्व हैं।

गवाहों के पूर्व बयानों में महत्वपूर्ण तथ्यों की अनुपस्थिति ने उनकी गवाही की विश्वसनीयता को कमजोर किया। मृतका की माँ (PW-6) और भाई (PW-7) ने विभिन्न घरेलू सामान, नकद और एक जीप की माँग का आरोप लगाया, लेकिन ये दावे मूल पुलिस बयान में दर्ज नहीं थे और काफी देरी से किए गए थे, जिससे यह विरोधाभास बन गया।

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न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुयान की पीठ ने सुनवाई करते हुए निष्कर्ष निकाला कि अभियोजन पक्ष अपराध की आवश्यक शर्तों को स्थापित करने में असफल रहा और इसलिए करण सिंह की सजा को निरस्त कर दिया गया। इस निर्णय ने यह स्पष्ट किया कि सिर्फ संदेह या नैतिक धारणा के आधार पर किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।


न्यायिक विश्लेषण

संदर्भित नजीरें

इस मामले में, न्यायालय ने चरण सिंह उर्फ चरणजीत सिंह बनाम उत्तराखंड राज्य (2023 SCC OnLine SC 454) पर भरोसा किया, जिसमें यह सिद्धांत स्थापित किया गया कि दहेज की मांग और उससे जुड़ी क्रूरता मृत्यु से ठीक पहले होनी चाहिए

करण सिंह के मामले में न्यायालय ने पुनः पुष्टि की कि:

  • विवाह के सात वर्षों के भीतर महिला की असामान्य परिस्थितियों में मृत्यु हुई
  • उसे दहेज की माँग के लिए उत्पीड़न सहना पड़ा
  • यह उत्पीड़न मृत्यु से ठीक पहले हुआ

हालांकि, न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यदि गवाहों के बयान अस्पष्ट या विलंबित हैं, तो केवल उन पर निर्भर रहकर सजा नहीं दी जा सकती।

कानूनी तर्क

न्यायालय ने गवाहों की गवाही का तुलनात्मक अध्ययन किया और पाया कि-

1️⃣ विरोधाभासी बयान – प्रारंभिक पुलिस बयानों में दहेज माँग की कोई चर्चा नहीं थी, लेकिन बाद में आरोप जोड़े गए, जिससे यह संशयास्पद हो गया।

2️⃣ क्रूरता के विशिष्ट उदाहरणों की कमी – अभियोजन पक्ष किसी भी ठोस घटना को स्थापित नहीं कर पाया जो यह प्रमाणित करे कि मृत्यु से ठीक पहले उत्पीड़न हुआ था।

3️⃣ साक्ष्य अधिनियम की धारा 113-बी का गैर-लागू होना – यह धारा तभी लागू होती है जब अभियोजन पक्ष यह प्रमाणित करे कि मृत्यु से ठीक पहले दहेज के लिए उत्पीड़न हुआ। यहाँ ऐसा कोई निर्णायक प्रमाण नहीं था।

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निर्णय का प्रभाव

यह निर्णय भविष्य के दहेज मृत्यु मामलों के लिए महत्वपूर्ण दिशानिर्देश प्रस्तुत करता है:उच्च साक्ष्य मानक – गवाहों के बयानों की गहन जांच की जाएगी और प्रारंभिक बयानों में अनुपस्थित आरोपों को बाद में जोड़ने से अभियोजन पक्ष की स्थिति कमजोर हो सकती है। ✅ ‘मृत्यु से ठीक पहले’ की पुष्टि – न्यायालय ने स्पष्ट किया कि महज अस्पष्ट या देर से लगाए गए आरोपों के आधार पर दोषसिद्धि नहीं दी जा सकती। ✅ निष्पक्ष मुकदमे सुनिश्चित करना – यह निर्णय दो पहलुओं को संतुलित करता है: दहेज मृत्यु की गंभीरता और आरोपी के लिए निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार


महत्वपूर्ण कानूनी अवधारणाएँ

📌 दहेज मृत्यु (धारा 304-बी, IPC) – यदि विवाह के सात वर्षों के भीतर महिला की असामान्य मृत्यु होती है और यह प्रमाणित होता है कि उसे दहेज के लिए उत्पीड़न सहना पड़ा था, तो यह माना जाएगा कि उसके पति या ससुरालवालों ने उसे मार दिया।

📌 भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 113-बी – यदि अभियोजन पक्ष यह साबित कर दे कि मृत्यु से ठीक पहले पीड़िता को दहेज के लिए परेशान किया गया था, तो यह आरोपी पर यह साबित करने की जिम्मेदारी डालता है कि वह दोषी नहीं है।

📌 विरोधाभास बनाम विसंगति – यदि कोई महत्वपूर्ण तथ्य प्रारंभिक बयान में नहीं था लेकिन बाद में जोड़ा गया, तो इसे विरोधाभास माना जाएगा और गवाह की विश्वसनीयता कम हो सकती है।

📌 ‘मृत्यु से ठीक पहले’ की अवधारणा – अभियोजन पक्ष को यह साबित करना होगा कि मृत्यु से निकटतम अवधि में दहेज के लिए उत्पीड़न हुआ था।

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निष्कर्ष

करण सिंह बनाम हरियाणा राज्य गृह विभाग का यह निर्णय दहेज मृत्यु मामलों में प्रमाणों की आवश्यक कठोरता को दोहराता है। यद्यपि दहेज प्रथा एक गंभीर सामाजिक समस्या बनी हुई है, न्यायालयों को सख्त कानूनी मानकों का पालन करना होगा और आरोपों को उचित संदेह से परे सिद्ध करने की आवश्यकता होगी।

यह निर्णय निचली अदालतों को निर्देशित करता है कि वे गवाहों के बयानों का सावधानीपूर्वक मूल्यांकन करें और प्रारंभिक बयानों में अनुपस्थित आरोपों को सख्ती से परखें। इसके अलावा, यह जांच एजेंसियों को भी सटीक और समय पर साक्ष्य एकत्र करने के लिए सतर्क करता है।

अंततः, यह निर्णय न्यायपालिका में निष्पक्षता और न्याय सुनिश्चित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।

वाद शीर्षक – करण सिंह बनाम हरियाणा राज्य गृह विभाग

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