परिस्थितिजन्य साक्ष्य वाले मामलों में उद्देश्यता महत्वपूर्ण: सुप्रीम कोर्ट ने व्यक्ति को किया बरी

सुप्रीम कोर्ट

 

सुप्रीम कोर्ट ने एक व्यक्ति को बरी करते हुए दोहराया कि परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर आधारित मामलों में अभियोजन पक्ष के लिए उद्देश्य (मोटिव) का निर्धारण अत्यंत महत्वपूर्ण होता है।

अदालत आरोपी द्वारा दायर की गई आपराधिक अपील पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें उसने गुवाहाटी उच्च न्यायालय के उस निर्णय को चुनौती दी थी, जिसमें उसकी अपील खारिज कर दी गई थी।

न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुयान की खंडपीठ ने कहा, “इस न्यायालय ने ‘नंदू सिंह’ (सुप्रा) के मामले में यह कानूनी स्थिति स्पष्ट की थी कि परिस्थितिजन्य साक्ष्यों वाले मामलों में उद्देश्य (मोटिव) अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। हालांकि, यह आवश्यक नहीं कि मात्र उद्देश्य ही अभियोजन के मामले को प्रमाणित करने के लिए निर्णायक कड़ी हो। किंतु, यदि अभियोजन पक्ष उद्देश्य स्थापित करने में पूर्णतः विफल रहता है, तो यह स्थिति आरोपी के पक्ष में जाती है।”

खंडपीठ ने यह भी दोहराया कि यदि किसी मामले में प्रत्यक्षदर्शी उपलब्ध हों, तो उद्देश्य की भूमिका गौण हो जाती है। किंतु यदि मामला केवल परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर निर्भर हो, तो उद्देश्य का अभाव आरोपी के पक्ष में एक महत्वपूर्ण कारक बन जाता है।

इस मामले में, अपीलकर्ता/अभियुक्त की ओर से अधिवक्ता अजीम एच. लस्कर उपस्थित हुए, जबकि राज्य/प्रतिवादी की ओर से एओआर शुभदीप रॉय ने पक्ष रखा।

मामले की संक्षिप्त पृष्ठभूमि

अपीलकर्ता-अभियुक्त को भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 366(A), 302, 201 और 34 के तहत दोषी ठहराया गया था। उसे धारा 366(A) के तहत 5 वर्ष के कठोर कारावास और ₹3,000/- जुर्माने की सजा दी गई थी।

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अभियोजन पक्ष के अनुसार, वर्ष 2003 में पीड़िता के पिता ने प्राथमिकी (FIR) दर्ज कराई थी, जिसमें आरोप लगाया गया था कि अभियुक्त एवं सह-अभियुक्त ने उनकी 16 वर्षीय नाबालिग पुत्री का अपहरण कर लिया। यह भी आरोप था कि उनकी बेटी घर से ₹60,000/- नकद लेकर चली गई थी और खोजबीन के बावजूद उसका कोई पता नहीं चला।

प्राथमिकी में यह भी दर्ज था कि अभियुक्त की मां और उसकी बहन के पति ने पीड़िता के पिता से कहा था कि आरोपी ने उनकी पुत्री का अपहरण कर उसे मुकालमुआ में विवाह करने के उद्देश्य से रखा है। उन्होंने यह भी आश्वासन दिया था कि वे दोनों का विवाह करा देंगे और पुलिस में शिकायत न करने का अनुरोध किया था। किंतु, चार दिनों तक लड़की का कोई सुराग न मिलने पर प्राथमिकी दर्ज कराई गई। बाद में, अभियुक्तों की गिरफ्तारी के बाद, मृतका का शव बरामद हुआ।

निचली अदालत ने अभियुक्तों को दोषी ठहराया। इसके बाद, उच्च न्यायालय ने धारा 366(A) IPC के तहत दोषसिद्धि को निरस्त कर दिया, लेकिन धारा 302, 201 और 34 IPC के तहत दोषसिद्धि को बरकरार रखा। इसके विरुद्ध अभियुक्त ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की।

सुप्रीम कोर्ट का निर्णय

सुप्रीम कोर्ट ने तथ्यों का विश्लेषण करते हुए कहा, “साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 के संबंध में पूर्व निर्णयों से जो निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं, उसके अनुसार, अभियुक्त एवं सह-अभियुक्त द्वारा PW-5, PW-6, PW-7, PW-8, PW-10 और PW-11 के समक्ष किए गए अतिरिक्त-न्यायिक स्वीकारोक्ति (extra-judicial confession) के साथ-साथ खोज को लेकर दिए गए कथनों में अंतर्निहित संबंध है।”

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अदालत ने अभियोजन पक्ष के उस तर्क को अस्वीकार कर दिया, जिसमें कहा गया था कि अभियुक्त के बयान के आधार पर पीड़िता का शव रेलवे ट्रैक के पास छिपी हुई अवस्था में मिला। अदालत ने स्पष्ट किया कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 27 अभियोजन के पक्ष में सहायक नहीं हो सकती।

न्यायालय ने आगे कहा, “जब खोज को लेकर प्रस्तुत किया गया साक्ष्य संदेह से परे प्रमाणित नहीं हो पाया, तो अभियोजन द्वारा प्रस्तुत संपूर्ण परिस्थितिजन्य साक्ष्य श्रृंखला अपूर्ण मानी जाएगी। यदि ऐसा है, तो अभियुक्त को संदेह का लाभ दिया जाना चाहिए और उसे इस आधार पर दोषमुक्त किया जाना चाहिए।”

इसके अतिरिक्त, सुप्रीम कोर्ट ने इस तथ्य को भी महत्वपूर्ण माना कि अभियुक्त की मां और बहनोई को पीड़िता की स्थिति की जानकारी थी, फिर भी अभियोजन पक्ष ने उन्हें गवाह के रूप में पेश नहीं किया, जिससे अभियोजन की विश्वसनीयता प्रभावित हुई।

अदालत ने यह भी टिप्पणी की कि अभियुक्त और मृतका एक-दूसरे से प्रेम करते थे, और अभियुक्त की मां व बहनोई ने पीड़िता के पिता को यह आश्वासन दिया था कि वे दोनों का विवाह करा देंगे। ऐसे में अभियुक्त द्वारा पीड़िता की हत्या करने का कोई ठोस उद्देश्य नहीं था।

पोस्टमार्टम रिपोर्ट में भी किसी हालिया यौन संबंध के संकेत नहीं मिले थे, साथ ही अभियोजन पक्ष यह भी साबित नहीं कर पाया कि मृतका अपने घर से ₹60,000/- नकद लेकर गई थी। इन तथ्यों ने अभियोजन के मामले को और कमजोर बना दिया।

न्यायालय ने दोहराया कि “परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर आधारित मामलों में उद्देश्य (मोटिव) एक महत्वपूर्ण कड़ी होती है, जो पूरे घटनाक्रम की श्रृंखला को प्रमाणिकता प्रदान करती है। लेकिन, अभियोजन पक्ष इस श्रृंखला को प्रमाणित करने में असफल रहा।”

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न्यायालय का निष्कर्ष

सुप्रीम कोर्ट ने अंततः कहा कि अभियोजन द्वारा अभियुक्त के विरुद्ध प्रस्तुत प्रत्येक परिस्थिति प्रमाणित नहीं हो पाई, और निचली अदालतें अभियुक्त को दोषी ठहराने में न्यायसंगत नहीं थीं।

“जब अभियोजन पक्ष अभियुक्त के विरुद्ध प्रत्येक परिस्थिति को संदेह से परे प्रमाणित करने में विफल रहता है, तो दोषसिद्धि न्यायोचित नहीं हो सकती,” न्यायालय ने कहा।

इसी के साथ, सर्वोच्च न्यायालय ने अपील को स्वीकार करते हुए उच्च न्यायालय के निर्णय को निरस्त कर दिया और अभियुक्त को सभी आरोपों से दोषमुक्त कर दिया।

वाद शीर्षक – मोहम्मद बानी आलम मजीद @ धन बनाम असम राज्य

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