सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर स्पष्ट किया है कि केवल हस्तलिपि विशेषज्ञ की राय के आधार पर दोषसिद्धि देना उचित नहीं है, जब तक कि इसे पर्याप्त साक्ष्यों द्वारा पुष्ट न किया जाए। इस आधार पर, शीर्ष अदालत ने भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 120बी, 468 और 471 के तहत आरोपी की दोषसिद्धि को निरस्त कर दिया। अभियुक्त पर आरोप था कि उसने एक डाक लिफाफा तैयार किया था, जिसके माध्यम से फर्जी अंकतालिका भेजी गई थी।
महत्वपूर्ण संदर्भ और न्यायालय का दृष्टिकोण
न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक निर्णय मुरारी लाल बनाम मध्य प्रदेश राज्य (1980) का हवाला दिया, जिसमें विशेषज्ञ साक्ष्य पर निर्भरता की सीमाएं निर्धारित की गई थीं। अदालत ने कहा, “मूल दस्तावेज को साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत न करना इस निष्कर्ष की ओर संकेत करता है कि विवादित डाक लिफाफे को कानूनन सिद्ध नहीं किया गया। अतः हस्तलिपि विशेषज्ञ की रिपोर्ट, जो यह निष्कर्ष देती है कि लिफाफे पर अभियुक्त की लिखावट है, कानूनी रूप से निरर्थक हो जाती है।”
इस मामले में, अपीलकर्ता की ओर से अधिवक्ता एम. पी. पार्थिबन उपस्थित हुए, जबकि प्रतिवादी राज्य (तमिलनाडु) की ओर से वरिष्ठ अपर महाधिवक्ता (AAG) वी. कृष्णमूर्ति ने पैरवी की।
मामले की संक्षिप्त पृष्ठभूमि
यह मामला एक मेडिकल छात्रा से जुड़ा था, जिस पर आरोप था कि उसने एमबीबीएस पाठ्यक्रम में प्रवेश के लिए एक जाली अंकतालिका प्रस्तुत की। मूल अंकतालिका के अनुसार, उसने 1200 में से 767 अंक प्राप्त किए थे, जबकि कथित फर्जी दस्तावेज़ में 1120 अंक दर्शाए गए थे। अभियोजन पक्ष का दावा था कि आरोपी ने ही वह डाक लिफाफा तैयार किया था, जिसके माध्यम से जाली दस्तावेज़ भेजा गया। ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को दोषी ठहराया और हाईकोर्ट ने इस निर्णय को बरकरार रखा।
सुप्रीम कोर्ट की कानूनी समीक्षा
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष प्रमुख प्रश्न यह था कि क्या अभियोजन पक्ष यह साबित कर सका कि विवादित डाक लिफाफे पर अभियुक्त की लिखावट थी। अदालत ने पाया कि अभियोजन पक्ष ने लिफाफे का मूल दस्तावेज प्रस्तुत किए बिना केवल हस्तलिपि विशेषज्ञ की रिपोर्ट पर भरोसा किया, जो पर्याप्त साक्ष्य नहीं हो सकता।
मुरारी लाल मामले का हवाला देते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि, “यह स्वीकार किया गया है कि किसी भी हस्तलिपि विशेषज्ञ की राय के आधार पर दोषसिद्धि खतरनाक हो सकती है। विशेषज्ञ गवाह भी अन्य गवाहों की तरह ही गलती कर सकते हैं, क्योंकि मानव निर्णय प्रक्रिया में त्रुटि की संभावना बनी रहती है। इसलिए, न्यायालय को विशेषज्ञ साक्ष्य को स्वीकार करने से पहले सावधानीपूर्वक जांच करनी चाहिए।”
अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 45 के तहत विशेषज्ञ गवाही को प्रासंगिक माना जाता है, लेकिन “विशेषज्ञ की राय को स्वतः प्रमाणिक नहीं माना जा सकता और किसी विशेष मामले में इसकी सत्यता को पुष्ट करने के लिए अतिरिक्त प्रमाण की आवश्यकता हो सकती है।”
अंतिम निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा कि “जब स्वयं विवादित डाक लिफाफे को न्यायालय में प्रदर्शित नहीं किया गया और न ही प्रमाणित किया गया, तो अभियोजन पक्ष के इस दावे को स्वीकार नहीं किया जा सकता कि उस पर अभियुक्त की लिखावट थी।”
न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट द्वारा दिए गए निर्णय को निरस्त करते हुए अभियुक्त को दोषमुक्त घोषित किया। इसके साथ ही, अपील को स्वीकार कर लिया गया और अभियुक्त को पूर्णरूप से बरी कर दिया गया।
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