सुप्रीम कोर्ट का अहम फैसला: मतगणना की पुनर्समीक्षा पर नया दृष्टिकोण

सुप्रीम कोर्ट का अहम फैसला: मतगणना की पुनर्समीक्षा पर नया दृष्टिकोण

सुप्रीम कोर्ट का अहम फैसला: मतगणना की पुनर्समीक्षा पर नया दृष्टिकोण

यहां सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले विजय बहादुर बनाम सुनील कुमार (2025 INSC 332) की विस्तृत कानूनी समीक्षा दी गई है, जिसमें चुनावी विवादों में वोटों की पुनर्गणना (Recount) की प्रक्रिया और विधिक मानकों पर प्रकाश डाला गया है। इस मामले में प्रमुख पक्षकार थे—अपीलकर्ता श्री विजय बहादुर, जो ग्राम प्रधान पद के चुनाव में पराजित हुए, और प्रतिवादी श्री सुनील कुमार, जिन्हें विजयी घोषित किया गया था। इस विवाद का मूल आधार अपीलकर्ता का यह दावा था कि अंतिम मतगणना में विसंगतियां थीं और चुनाव संबंधी आवश्यक अभिलेख गायब थे, जिससे पुनर्गणना की आवश्यकता उत्पन्न हुई।

1. सुप्रीम कोर्ट का निर्णय और कानूनी महत्व

सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि मतगणना की पुनः समीक्षा केवल ठोस साक्ष्यों और स्पष्ट अनियमितताओं के आधार पर की जा सकती है, क्योंकि मतदाता की गोपनीयता (Secrecy of Ballot) संवैधानिक रूप से संरक्षित है। हालांकि, जहां मतगणना में संदेहास्पद परिस्थितियां उत्पन्न हों, वहां न्यायिक हस्तक्षेप आवश्यक हो सकता है। न्यायालय ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए आदेश को निरस्त करते हुए उप-जिला मजिस्ट्रेट (Sub-Divisional Magistrate) के मतों की पुनर्गणना के निर्देश को बहाल कर दिया। यह निर्णय चुनावी न्यायशास्त्र में एक महत्वपूर्ण संदर्भ बिंदु के रूप में उभरेगा।

2. निर्णय का सारांश

इस मामले में अपीलकर्ता ने आरोप लगाया कि मतदान केंद्र संख्या 43, 44 और 45 में गिनती में विसंगतियां थीं। उन्होंने दावा किया कि पीठासीन अधिकारी द्वारा मौखिक रूप से बताए गए 1194 मतों और अंतिम गणना (फॉर्म 46 के अनुसार 1213 मतों) में अंतर था। अपीलकर्ता ने उत्तर प्रदेश पंचायत राज अधिनियम, 1947 की धारा 12-सी के तहत पुनर्गणना की मांग की थी।

  • उप-जिला मजिस्ट्रेट (Prescribed Authority) ने पुनर्गणना की अनुमति दी।
  • प्रतिवादी सुनील कुमार ने इस आदेश को चुनौती दी, पहले पुनरीक्षण (Revision) याचिका के माध्यम से (जो खारिज कर दी गई) और फिर इलाहाबाद उच्च न्यायालय में रिट याचिका दायर कर इसे निरस्त करा लिया।
  • इसके बाद अपीलकर्ता ने संविधान के अनुच्छेद 136 के तहत सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की।
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सर्वोच्च न्यायालय ने इस विवाद में उपलब्ध साक्ष्यों और पूर्व में दिए गए न्यायिक निर्णयों का मूल्यांकन करते हुए पाया कि अनियमितताओं के आरोप पर्याप्त रूप से समर्थित थे और आवश्यक चुनावी दस्तावेजों के लापता होने से संदेह की स्थिति उत्पन्न हुई, जो मतगणना की पुनः समीक्षा को न्यायोचित ठहराती है।

3. न्यायिक विश्लेषण एवं महत्वपूर्ण निर्णय

3.1 उद्धृत न्यायिक नज़ीर (Precedents)

इस निर्णय में कई महत्वपूर्ण पूर्व मामलों को संदर्भित किया गया, जिनमें शामिल हैं:

राम सिवक यादव बनाम हुसैन कमिल किदवई (AIR 1964 SC 1249): इस संविधान पीठ के फैसले में कहा गया कि सिर्फ संदेह के आधार पर पुनर्गणना का आदेश नहीं दिया जा सकता। इसके लिए ठोस आरोपों के साथ प्रथम दृष्टया संतोषजनक साक्ष्य आवश्यक हैं।

वडिवेलु बनाम सुंदरम ((2000) 8 SCC 355): इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने पुनर्गणना को सीमित आधारों पर स्वीकार करने का सिद्धांत स्थापित किया, जिसमें यह साबित करना आवश्यक है कि मतों की गलत गणना ने परिणाम को प्रभावित किया है।

सुरेश प्रसाद यादव बनाम जयप्रकाश मिश्रा ((1975) 4 SCC 822): इसमें पुनर्गणना के लिए तीन स्तरीय परीक्षण (Tripartite Test) स्थापित किया गया—(1) स्पष्ट तथ्यों के साथ याचिका हो, (2) आरोपों को प्रमाणिक साक्ष्यों से समर्थित किया जाए, और (3) न्याय प्राप्ति के लिए पुनर्गणना अनिवार्य हो।

बेली राम भलाईक बनाम बिहारी लाल खाची ((1975) 4 SCC 417): इसमें मतगणना की पुनः समीक्षा को एक गंभीर मामला माना गया और इसे तब तक नहीं किया जाना चाहिए जब तक कि ठोस अनियमितताएं सिद्ध न हो जाएं।

सत्यनारायण दुधानी बनाम उदय कुमार सिंह (1993 Supp (2) SCC 82): इस फैसले ने यह स्थापित किया कि सिर्फ आरोपों के आधार पर पुनर्गणना का आदेश नहीं दिया जा सकता, जब तक कि समकालीन (contemporaneous) साक्ष्य उपलब्ध न हों।

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उदय चंद बनाम सूरज सिंह ((2009) 10 SCC 170): इसमें स्पष्ट किया गया कि पुनर्गणना के आदेश के लिए याचिका में सुस्पष्ट दलीलें और ठोस प्रमाण आवश्यक हैं

3.2 न्यायालय की कानूनी दृष्टि

सर्वोच्च न्यायालय ने इन न्यायिक नज़ीरों को वर्तमान मामले पर लागू करते हुए निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किए:

🔹 सुस्पष्ट याचिका और साक्ष्य: अपीलकर्ता ने मतगणना में विसंगतियों के ठोस साक्ष्य प्रस्तुत किए—एक ओर पीठासीन अधिकारी द्वारा मौखिक रूप से बताए गए 1194 मत और दूसरी ओर आधिकारिक रूप से दर्ज 1213 मत।

🔹 अनिवार्य चुनावी दस्तावेजों की अनुपस्थिति: पीठासीन अधिकारी की डायरी (जो वास्तविक मतदान संख्या की पुष्टि कर सकती थी) लापता थी। सुप्रीम कोर्ट ने इस अभाव को चुनावी प्रक्रिया की पारदर्शिता के लिए एक गंभीर खतरा माना।

🔹 मतदान की गोपनीयता बनाम न्यायसंगत पुनर्गणना: अदालत ने कहा कि मतदान की गोपनीयता महत्वपूर्ण है, लेकिन चुनावी न्याय को सुनिश्चित करने के लिए पुनर्गणना आवश्यक हो सकती है

🔹 मतगणना में संदेह और जनविश्वास: यद्यपि जीत का अंतर 37 मतों का था और विसंगति 19 मतों की थी, फिर भी न्यायालय ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया की अखंडता सुनिश्चित करने पर बल दिया।

4. निर्णय का प्रभाव

यह फैसला भारतीय चुनावी कानून में एक महत्वपूर्ण नज़ीर स्थापित करेगा। भविष्य में, चुनावी न्यायाधिकरण और अदालतें निम्नलिखित कारकों पर विशेष ध्यान देंगी:

चुनावी अभिलेखों का संरक्षण: चुनाव आयोग और संबंधित अधिकारियों को सुनिश्चित करना होगा कि सभी आवश्यक दस्तावेज सुरक्षित रखे जाएं, अन्यथा पुनर्गणना को उचित ठहराने का आधार बन सकता है।

मतदान की गोपनीयता बनाम चुनावी पारदर्शिता: मतों की गिनती की पुनः समीक्षा तभी होगी जब यह पूरी चुनावी प्रक्रिया की निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक हो।

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पुनर्गणना के लिए संतुलित दृष्टिकोण: न्यायालयों को न ही इसे स्वचालित रूप से अस्वीकार करना चाहिए और न ही इसे नियमित प्रक्रिया बना देना चाहिए।

5. निष्कर्ष

सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय चुनावी न्यायशास्त्र में निष्पक्षता और पारदर्शिता के मूल सिद्धांतों को और अधिक स्पष्ट करता है। यह मामला भविष्य में मतगणना से जुड़े विवादों के लिए एक प्रमुख मिसाल (Precedent) बनेगा। पुनर्गणना का आदेश देना एक गंभीर कदम है, और यह तभी दिया जाना चाहिए जब ठोस साक्ष्य उपलब्ध हों।

इस फैसले ने स्पष्ट कर दिया कि मतदान की गोपनीयता और लोकतांत्रिक निष्पक्षता के बीच संतुलन बनाए रखना आवश्यक है। सुप्रीम कोर्ट ने जनता के विश्वास को सर्वोपरि मानते हुए चुनावी प्रक्रिया की शुचिता को बरकरार रखने का महत्वपूर्ण प्रयास किया है।

वाद शीर्षक – विजय बहादुर बनाम सुनील कुमार

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