सर्वोच्च न्यायालय ने एक ही अपराध के लिए मजिस्ट्रेट द्वारा लगाई गई जमानत शर्तों की अनदेखी करने पर निवारक निरोध आदेश को रद्द कर दिया
यह मामला सुप्रीम कोर्ट द्वारा Joy Kitty Joseph बनाम भारत संघ में दिया गया निर्णय है, जिसमें COFEPOSA अधिनियम, 1974 के तहत निरुद्ध व्यक्ति की पत्नी द्वारा दायर आपराधिक अपील पर विचार किया गया। न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और के. विनोद चंद्रन की खंडपीठ ने पाया कि निरोधात्मक प्राधिकरण यह विचार करने में विफल रहा कि मजिस्ट्रेट द्वारा दी गई जमानत की शर्तें क्या आरोपी को आगे तस्करी गतिविधियों में संलिप्त होने से रोकने के लिए पर्याप्त थीं।
मामले की संक्षिप्त पृष्ठभूमि
आरोपी को 05 मार्च 2024 को गिरफ्तार किया गया था और वह लगभग एक वर्ष से हिरासत में था। याचिका में तीन प्रमुख आधार उठाए गए:
- बिना विचार किए निर्णय (Non-application of Mind): निरोध आदेश में COFEPOSA अधिनियम की धारा 3(1) की उपधारा (i) से (iv) तक के सभी प्रावधानों को एकसाथ लागू किया गया, जिससे निरोध अधिकारी का पूर्वाग्रह स्पष्ट होता है।
- जमानत निरस्तीकरण याचिका पर विचार नहीं किया गया: विभाग ने जमानत रद्द करने की याचिका दायर की थी, लेकिन इसे आगे नहीं बढ़ाया और न ही इस आवेदन को निरोध प्राधिकरण के समक्ष प्रस्तुत किया गया।
- एनडीपीएस मामले का संदर्भ: निरोध आदेश में एक मादक पदार्थों से जुड़े पुराने मामले का उल्लेख किया गया, लेकिन इस मामले में आरोपी को पहले ही जमानत मिल चुकी थी। यह अपराध बहुत पहले दर्ज हुआ था, जिससे निरोध आदेश से इसका कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं था।
अदालत के प्रमुख अवलोकन
- आरोपी के तस्करी नेटवर्क की पुष्टि:
- खुफिया जानकारी के अनुसार, आरोपी और उसकी पत्नी विदेशी सोने की तस्करी और बिक्री के लिए सिंडिकेट संचालित कर रहे थे।
- जब्त सोने और नकदी के संबंध में कोई वैध दस्तावेज प्रस्तुत नहीं किए गए।
- राजस्व खुफिया निदेशालय (DRI) ने छापेमारी कर बड़ी मात्रा में तस्करी का माल, मोबाइल फोन और अन्य आपत्तिजनक सामग्री जब्त की।
- आरोपी ने मध्यस्थों के माध्यम से तस्करी के सोने को बाजार में नकद बिक्री के लिए भेजा, जिससे सरकारी राजस्व को भारी क्षति पहुंची।
- निरोध आदेश में कानूनी पर्याप्तता:
- अदालत ने कहा कि COFEPOSA अधिनियम की धारा 3(1) के विभिन्न प्रावधानों में तस्करी और उसकी सहायता दोनों शामिल हैं।
- नरेंद्र पुरूषोत्तम उमराव बनाम बी.बी. गुजराल (1979) 2 SCC 637 के निर्णय का हवाला देते हुए अदालत ने पुष्टि की कि निरोध आदेश केवल तस्करी ही नहीं, बल्कि उसके प्रोत्साहन और सुविधा देने के आधार पर भी उचित था।
- जमानत की शर्तों पर विचार न करने का दोष:
- मजिस्ट्रेट द्वारा 16 अप्रैल 2024 को शर्तों सहित जमानत प्रदान की गई थी, लेकिन निरोध आदेश में इन शर्तों की प्रभावशीलता पर विचार नहीं किया गया।
- अदालत ने Ameena Begum बनाम तेलंगाना राज्य (2023) 9 SCC 587 के फैसले का उल्लेख किया, जिसमें स्पष्ट किया गया था कि निरोधक कानूनों का उपयोग केवल आपातकालीन स्थितियों में किया जाना चाहिए, न कि “कानून और व्यवस्था” बनाए रखने के एक सामान्य उपकरण के रूप में।
- चूंकि निरोध आदेश इस महत्वपूर्ण कारक पर मौन था, सुप्रीम कोर्ट ने दखल देना आवश्यक समझा।
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय
- अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि मजिस्ट्रेट द्वारा दी गई जमानत की शर्तों पर निरोध प्राधिकरण ने विचार नहीं किया था।
- यह न्यायिक समीक्षा का विषय था, क्योंकि यदि विचार किया गया होता, तो न्यायालय इसमें हस्तक्षेप नहीं करता।
- अतः अपील को स्वीकार कर लिया गया और निरोध आदेश को निरस्त कर दिया गया।
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