पजामे का नाड़ा तोड़ना और कपड़े उतारने की कोशिश… इलाहाबाद हाई कोर्ट का विवादास्पद बयान: ‘कोई रेप नहीं’

पजामे का नाड़ा तोड़ना और कपड़े उतारने की कोशिश... इलाहाबाद हाई कोर्ट का विवादास्पद बयान: 'कोई रेप नहीं'

पजामे का नाड़ा तोड़ना और कपड़े उतारने की कोशिश… इलाहाबाद हाई कोर्ट का विवादास्पद बयान: ‘कोई रेप नहीं’

इलाहाबाद हाई कोर्ट में एक नाबालिग बच्ची के साथ रेप की कोशिश के मामले में सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति राम मनोहर नारायण मिश्र की एकल पीठ ने एक टिप्पणी दी, जो अब विवाद का कारण बन गई है। कोर्ट ने कहा, “किसी पीड़िता के स्तनों को छूना या कपड़े उतारने की कोशिश, दुष्कर्म का अपराध नहीं माना जा सकता है, इसे यौन उत्पीड़न कहा जाएगा।” यह टिप्पणी उस मामले से जुड़ी थी, जिसमें एक नाबालिग बच्ची के साथ दुष्कर्म की कोशिश की गई थी। कोर्ट ने इस मामले को यौन उत्पीड़न के रूप में वर्गीकृत किया और इसे दुष्कर्म के श्रेणी में नहीं रखा।

न्यायमूर्ति का आदेश और समन संशोधन

कोर्ट ने कासगंज के स्पेशल जज पोक्सो कोर्ट के समन आदेश को भी संशोधित कर दिया। कोर्ट ने कहा कि दुष्कर्म के आरोप में जारी समन विधि सम्मत नहीं है और इसे नए सिरे से जारी किया जाना चाहिए। कोर्ट ने यह टिप्पणी उस मामले में की, जो कुछ साल पहले एटा के पटियाली थाने में दर्ज हुआ था। इस मामले में 11 साल की बच्ची के साथ रेप की कोशिश की गई थी, जिसके आरोप में आकाश, पवन और अशोक को मुकदमे का सामना करना था।

आरोपों में संशोधन: यौन उत्पीड़न और गंभीर यौन हमला

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इस मामले में निर्देश दिया कि आरोपियों के खिलाफ दुष्कर्म की धारा 376 और पोक्सो अधिनियम की धारा 18 के तहत मुकदमा नहीं चलेगा, बल्कि उनके खिलाफ आइपीसी की धारा 354-बी (निर्वस्त्र करने के इरादे से हमला या आपराधिक बल का प्रयोग) और पोक्सो अधिनियम की धारा 9/10 (गंभीर यौन हमला) के तहत मुकदमा चलाया जाए। कोर्ट का यह निर्णय इस मामले के गंभीरता के बावजूद दुष्कर्म के आरोप को हटाने के रूप में देखा जा रहा है, जो एक बड़ी कानूनी बहस का विषय बन गया है।

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उच्च न्यायालय की टिप्पणी और उसकी सामाजिक प्रभाव

यह टिप्पणी इस संदर्भ में महत्वपूर्ण है कि यह कानून के इस पहलू को पुनः परिभाषित करती है कि क्या स्तन छूने या कपड़े उतारने की कोशिश को दुष्कर्म के समान माना जा सकता है या नहीं। जहां एक ओर यौन उत्पीड़न एक गंभीर अपराध है, वहीं दुष्कर्म के अपराध को कहीं अधिक गंभीर माना जाता है। न्यायमूर्ति मिश्र की टिप्पणी को लेकर यह सवाल उठ रहा है कि क्या कानून के तहत यौन उत्पीड़न और दुष्कर्म के अपराधों के बीच अंतर करना आवश्यक है, खासकर जब यह किसी नाबालिग के मामले से संबंधित हो।

महिलाओं और बच्चों के खिलाफ अपराधों पर गंभीर सवाल

यह निर्णय महिलाओं और बच्चों के खिलाफ बढ़ते अपराधों और उनके खिलाफ न्याय की लड़ाई के दृष्टिकोण को प्रभावित कर सकता है। कई विशेषज्ञों का मानना है कि इस तरह की टिप्पणियां समाज में यौन अपराधों को लेकर गलत संदेश भेज सकती हैं। यह भी देखा जा सकता है कि क्या न्यायपालिका को अपनी टिप्पणियों में अधिक संवेदनशील और सतर्क रहने की आवश्यकता है, ताकि अपराधों के सही वर्गीकरण और समाज में उनकी गंभीरता को सही तरीके से प्रस्तुत किया जा सके।

निष्कर्ष

इलाहाबाद हाई कोर्ट की टिप्पणी और फैसले ने कानूनी समुदाय और समाज में व्यापक विवाद खड़ा किया है। इस फैसले ने यौन अपराधों को लेकर समाज की सोच पर असर डाला है और इसे एक नई दिशा दी है, जिसे लेकर कानूनी विशेषज्ञों और महिलाओं के अधिकारों के समर्थक चिंतित हैं। हालांकि, यह मामला अभी और आगे बढ़ सकता है, लेकिन इसने न्यायपालिका की भूमिका और उसकी संवेदनशीलता पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं।

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