सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया – CrPC की धारा 197(1) का संरक्षण केवल उन्हीं लोक सेवकों को, जिन्हें केंद्र या राज्य सरकार नियुक्त करती है
मामला: केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो बनाम रमेश चंदर दीवान
सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में यह स्पष्ट किया है कि दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 197(1) का संरक्षण केवल उन्हीं लोक सेवकों को प्राप्त है, जिन्हें केंद्र सरकार या राज्य सरकार द्वारा नियुक्त किया गया हो। इस कानूनी सिद्धांत को न्यायालय ने पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय के एक साझा निर्णय को चुनौती देती दो आपराधिक अपीलों की सुनवाई के दौरान दोहराया।
न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति मनमोहन की पीठ ने कहा:
“यह विधिक स्थिति इस न्यायालय के हालिया निर्णय – ए. श्रीनिवास रेड्डी बनाम राकेश शर्मा – से और अधिक स्पष्ट होती है, जिसमें कहा गया कि धारा 197(1) CrPC का संरक्षण केवल ऐसे लोक सेवकों को है, जिन्हें केंद्र या राज्य सरकार ने नियुक्त किया हो, न कि हर लोक सेवक को।“
मामले की पृष्ठभूमि
मुख्य अपील में सीबीआई ने अपील दायर की थी। वर्ष 2014 में भारतीय दंड संहिता की धारा 120B व 420 और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 13(2) सहपठित धारा 13(1)(d) के तहत एक एफआईआर दर्ज की गई थी। आरोप था कि उत्तरदाता, जो उस समय चंडीगढ़ नगर निगम में कार्यकारी अभियंता (जन स्वास्थ्य) के पद पर कार्यरत थे, ने सह-आरोपियों के साथ मिलकर 13.66 करोड़ रुपये से अधिक की क्षति सरकार को पहुँचाई, जिसके लिए निविदा की शर्तों में कथित रूप से अनधिकृत परिवर्तन किया गया।
उत्तरदाता 2016 में सेवानिवृत्त हो चुके थे और सीबीआई द्वारा अभियोजन स्वीकृति (sanction) प्राप्त नहीं की गई थी। उत्तरदाता ने इसी आधार पर डिस्चार्ज आवेदन दिया और संशोधित धारा 19(1), भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत भी संरक्षण मांगा, जो सेवा से सेवानिवृत्त हो चुके अधिकारियों पर भी लागू होता है। विशेष अदालत ने उनका आवेदन खारिज कर दिया, लेकिन हाईकोर्ट ने धारा 401 सहपठित 482 CrPC के तहत दायर याचिका पर सुनवाई कर विशेष अदालत का आदेश पलट दिया। इसके विरुद्ध सीबीआई सुप्रीम कोर्ट पहुँची।
न्यायालय की व्याख्या
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जहाँ लोक सेवक को प्रतिनियुक्ति (deputation) पर भेजा जाता है, वहाँ मूल विभाग, प्रतिनियुक्ति प्राप्त करने वाला विभाग, और कर्मचारी – इन तीनों की सहमति आवश्यक होती है। ऐसी स्थिति में यदि अनुशासनिक नियंत्रण मूल विभाग के पास बना रहता है, तो प्रतिनियुक्ति प्राप्त करने वाला विभाग कोई अनुशासनिक कार्रवाई नहीं कर सकता।
अदालत ने कहा:
“यह दिखाया नहीं गया कि उत्तरदाता को चंडीगढ़ नगर निगम में प्रतिनियुक्त करने के बाद या तो वह निगम की सेवा में समाहित (absorb) कर लिए गए थे या फिर उन्होंने पंजाब सरकार से सेवा संबंध समाप्त कर लिया था। अतः वह अब भी ‘राज्य सरकार द्वारा नियुक्त लोक सेवक’ नहीं कहे जा सकते।“
न्यायालय ने यह भी जोड़ा कि जब तक मूल विभाग अधिकार बनाए रखता है, तब तक प्रतिनियुक्त विभाग के पास उस अधिकारी के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई करने का अधिकार नहीं होता।
निष्कर्ष
पीठ ने स्पष्ट किया कि नगर निगम बोर्ड या नगर आयुक्त के पास उत्तरदाता के विरुद्ध अनुशासनिक कार्रवाई का कोई वैध अधिकार नहीं था। यह भी कहा गया कि उत्तरदाता प्रतिनियुक्ति पर जाते ही “लोक सेवक” की कानूनी परिभाषा के अंतर्गत नहीं आते रहे। अतः, धारा 197 CrPC के अंतर्गत अभियोजन स्वीकृति की आवश्यकता नहीं बनती।
अंततः सुप्रीम कोर्ट ने कहा:
“उत्तरदाता अब लोक सेवक नहीं रहे, और उनके विरुद्ध अभियोजन के लिए CrPC की धारा 197(1) का संरक्षण लागू नहीं होता। इसलिए, अपील असफल होनी चाहिए।“
न्यायालय ने दोनों आपराधिक अपीलों को खारिज कर दिया।
प्रमुख अधिवक्ता:
- अपीलकर्ता की ओर से अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल सूर्यप्रकाश वी. राजू ने पक्ष रखा।
- उत्तरदाता की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता डी.पी. सिंह पेश हुए।
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