‘न्यायिक प्रणाली के दो पहिए हैं वकील और अदालतें’: जस्टिस हेमंत गुप्ता का व्यावसायिक विवादों पर चिंतन
“न्याय प्रणाली तब बदलेगी जब वकील और अदालत दोनों अपनी कार्यशैली बदलेंगे। सुधार कानून से नहीं, सोच से आएगा।”
‘कॉमर्शियल विवाद समाधान – चुनौतियां और रणनीतियां’ विषय पर आयोजित एक संवाद कार्यक्रम में सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश जस्टिस हेमंत गुप्ता ने न्याय व्यवस्था की बुनियादी संरचना, चुनौतियों और सुधार की संभावनाओं पर बेबाक राय रखी। इस कार्यक्रम का आयोजन द लॉ फोरम और ईबीसी ने किया था।
जस्टिस गुप्ता ने अपने संबोधन की शुरुआत में कहा,
“कानून आते रहेंगे, लेकिन जब तक हम अपनी सोच नहीं बदलेंगे, व्यवस्था में सुधार संभव नहीं है।”
दिल्ली ही भारत नहीं: जमीनी हकीकत पर दिया बल
उन्होंने कॉमर्शियल कोर्ट्स एक्ट, 2015 के अंतर्गत लागू की गई सारगर्भित प्रक्रिया का जिक्र करते हुए बताया कि यह पहले सीपीसी की ऑर्डर 37 के तहत भी उपलब्ध थी और इसे वाणिज्यिक विवादों के लिए प्रभावी औजार के रूप में देखा जाता था।
बिहार में अपने कार्यकाल का उल्लेख करते हुए उन्होंने बताया कि पटना जिला न्यायालय को सिर्फ इसलिए कॉमर्शियल कोर्ट घोषित किया गया क्योंकि वहां ऐसे मामलों की संख्या बहुत कम थी।
उन्होंने कहा,
“दिल्ली को ध्यान में रखकर कानून बनाना उचित नहीं है क्योंकि यह भारत की वास्तविकता का प्रतिनिधित्व नहीं करता। दिल्ली जैसे राज्यों को विशेषाधिकार प्राप्त हैं, लेकिन देश के बाकी हिस्सों में स्थिति बिल्कुल अलग है।”
वकीलों की आमदनी में क्षेत्रीय असमानता
जस्टिस गुप्ता ने देशभर में वकीलों की आमदनी में मौजूद असमानता की ओर ध्यान दिलाया। उन्होंने बताया कि दिल्ली या बड़े महानगरों की तुलना में छोटे राज्यों में वकीलों की स्थिति और आमदनी बेहद अलग होती है। इसी संदर्भ में उन्होंने मध्य प्रदेश की एक विचित्र परंपरा का जिक्र किया, जिसमें जमानत की शर्त के तहत आरोपी को हर 6 महीने में अदालत में उपस्थित होना पड़ता था। यह व्यवस्था स्थानीय वकीलों की आर्थिक मदद के उद्देश्य से विकसित हुई थी।
न्यायिक स्थानांतरण प्रणाली और विशेषता का अभाव
उन्होंने न्यायाधीशों की नियमित हर 3 वर्ष में रोस्टर परिवर्तन की प्रणाली पर सवाल उठाया और कहा कि इससे विशेषज्ञता विकसित नहीं हो पाती।
“हमारे पास विशेषज्ञ न्यायाधीश नहीं होते, क्योंकि हर तीन साल में कार्यक्षेत्र बदल दिया जाता है। कॉमर्शियल कोर्ट्स एक्ट प्रशिक्षित न्यायाधीश की मांग करता है, लेकिन जब कोई जज स्थायी रूप से उस पीठ में नहीं रह पाता, तो प्रशिक्षण भी पर्याप्त नहीं रह जाता।”
विवादों का स्वरूप बदला है, लेकिन संख्या कम नहीं हुई
वकीलों के दृष्टिकोण से उन्होंने कहा कि विवादों की प्रकृति बदली है, लेकिन उनका अस्तित्व बना रहेगा:
“अगर एक मुकदमा खत्म होता है, तो दूसरा शुरू हो जाता है। इतनी बड़ी आबादी में झगड़े खत्म नहीं हो सकते। भारत हर प्रकार के मुकदमों के लिए उपजाऊ भूमि है।”
भारत में लागत आरोपण के प्रति असहिष्णुता
उन्होंने बताया कि 1990 के दशक में जब अदालतें लागत (cost) लगाती थीं, तो वकील अपने मुवक्किलों को अपील करने की सलाह देते थे ताकि वह लागत हटाई जा सके।
“भारत में लागत की संस्कृति नहीं है, जबकि अमेरिका में यही लागत मुकदमेबाजी से हतोत्साहित करने का तरीका बनती है।”
केस मैनेजमेंट और बार की मानसिकता में बदलाव की जरूरत
उन्होंने सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए केस फ्लो मैनेजमेंट दिशानिर्देशों की सराहना करते हुए भी यह कहा कि वकील समुदाय उन्हें लागू करने में इच्छुक नहीं है।
यहां तक कि अरबिट्रेशन में भी समयसीमा का पालन नहीं होता, जो दर्शाता है कि मानसिकता में बदलाव अभी दूर है।
निष्कर्ष
अपने वक्तव्य के अंत में जस्टिस गुप्ता ने कहा:
“न्याय प्रणाली तब बदलेगी जब वकील और अदालत दोनों अपनी कार्यशैली बदलेंगे। सुधार कानून से नहीं, सोच से आएगा।”
उनका संदेश साफ था — वकील और न्यायालय न्याय प्रणाली के दो समानांतर पहिए हैं, और जब तक दोनों समन्वित गति से नहीं चलेंगे, तब तक न्याय की यात्रा सुचारु नहीं हो सकती।
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