भारत के उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में उच्च न्यायालयों में तदर्थ (अस्थायी) न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए एक महत्वपूर्ण सुझाव दिया है, ताकि आपराधिक मामलों की भारी लंबितता को कम किया जा सके। यह निर्णय इस तथ्य को देखते हुए लिया गया कि कई उच्च न्यायालयों में आपराधिक अपीलों की बड़ी संख्या लंबित हैं। उदाहरण के तौर पर, इलाहाबाद उच्च न्यायालय में 63,000, झारखंड उच्च न्यायालय में 13,000, कर्नाटक में 20,000, पटना में 21,000, राजस्थान में 8,000 और पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालयों में 21,000 आपराधिक मामले लंबित हैं।
मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना की अगुवाई वाली पीठ ने यह बताया कि 2021 में पारित निर्णय के तहत तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए उच्च न्यायालयों में रिक्तियां 20% से अधिक होनी चाहिए, लेकिन अब इसे आंशिक रूप से संशोधित किया जा सकता है। इस संशोधन के तहत यह सुनिश्चित किया जाएगा कि तदर्थ न्यायाधीश केवल उन पीठों में नियुक्त किए जाएं, जो आपराधिक मामलों की सुनवाई कर रही हैं।
सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार से इस पर सुझाव देने को कहा है और 28 जनवरी को मामले की अगली सुनवाई निर्धारित की है। इसके अलावा, 2021 के फैसले में यह भी बताया गया था कि सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को तदर्थ न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया जा सकता है, ताकि लंबित मामलों का शीघ्र निपटारा किया जा सके।
मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति बी आर गवई और न्यायमूर्ति सूर्यकांत की विशेष पीठ ने कई उच्च न्यायालयों में लंबित आपराधिक मामलों के आंकड़ों का हवाला दिया और कहा कि अकेले इलाहाबाद उच्च न्यायालय में 63,000 आपराधिक अपीलें लंबित हैं।
शीर्ष अदालत ने कहा है कि इसके लिए अप्रैल 2021 में पारित फैसले की शर्तों में बदलाव पर विचार कर सकती है। शीर्ष अदालत ने अप्रैल, 2021 में फैसला दिया था कि उच्च न्यायालयों में तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति तभी की जा सकती है, जब रिक्तियां उच्च न्यायालय की कुल स्वीकृत संख्या का 20 फीसदी या उससे अधिक हों।
सीजेआई ने कहा कि यदि कोई उच्च न्यायालय न्यायाधीशों की 80 प्रतिशत स्वीकृत संख्या के साथ काम कर रहा है तो वहां कोई तदर्थ न्यायाधीश नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए।
मामले की अगली सुनवाई 28 जनवरी को होगी
शीर्ष अदालत ने इस मामले में भारत सरकार के अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणी से भी अपना सुझाव देने को कहा है। पीठ ने अटॉर्नी जनरल वेंकटरमणी को यह बताने के लिए कहा है कि क्या उच्च न्यायालयों की खंडपीठों के समक्ष सूचीबद्ध आपराधिक अपीलों का निपटारा करने के लिए इसमें (खंडपीठ) तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति की जा सकती है। मामले की अगली सुनवाई 28 जनवरी को होगी।
अदालत ने कहा, हमें केवल इस शर्त पर काम करना होगा कि तदर्थ न्यायाधीश उन पीठों पर बैठेंगे जो आपराधिक मामलों से निपट रही हैं तथा एक वर्तमान न्यायाधीश पीठासीन न्यायाधीश के रूप में कार्य करेगा… इस सीमा तक हमें उस संशोधन की आवश्यकता है।
20 अप्रैल, 2021 को सर्वोच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसले में लंबित मामलों को निपटाने के लिए सेवानिवृत्त उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को दो से तीन साल की अवधि के लिए तदर्थ न्यायाधीश के रूप में नियुक्त करने का निर्देश दिया।
सुनवाई के दौरान, CJI ने कहा कि उन्होंने कुछ उच्च न्यायालयों में आपराधिक अपीलों की भारी लंबितता को ध्यान में रखते हुए मामले को सूचीबद्ध किया है।
लोक प्रहरी बनाम भारत संघ नामक 2019 के मामले की सुनवाई उसी पीठ द्वारा की जा रही है, जिस पर 2021 में निर्णय सुनाया गया था।
पीठ 2021 के निर्णय के सुचारू क्रियान्वयन से निपट रही है।
इसने कहा था कि उच्च न्यायालयों में तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए केंद्र द्वारा सुझाई गई प्रक्रिया “बहुत बोझिल” है और उनकी नियुक्ति के वास्तविक उद्देश्य को विफल न करने के लिए एक सरल प्रक्रिया अपनाने पर जोर दिया था।
संविधान का शायद ही कभी इस्तेमाल किया जाने वाला अनुच्छेद 224A उच्च न्यायालयों में तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति से संबंधित है और कहता है कि “किसी भी राज्य के उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश किसी भी समय, राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से, किसी भी व्यक्ति से, जो उस न्यायालय या किसी अन्य उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का पद धारण कर चुका है, उस राज्य के उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में बैठने और कार्य करने का अनुरोध कर सकता है”।
शीर्ष अदालत ने नियुक्तियों को विनियमित करने के लिए दिशा-निर्देश भी निर्धारित किए। दिशा-निर्देशों में नियुक्ति प्रक्रिया शुरू करने के लिए ट्रिगर पॉइंट, कार्यकाल, नियुक्ति की प्रक्रिया, वेतन, भत्ते, ऐसे न्यायाधीशों की अधिकतम संख्या और मामलों के निर्णय में उनकी भूमिका जैसे मुद्दों को शामिल किया गया।
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