बॉम्बे हाई कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा था कि एक महिला अपने पति से मासिक रखरखाव की मांग नहीं कर सकती है, अगर वह व्यभिचार की दोषी साबित होती है।
जस्टिस एनडब्ल्यू साम्ब्रे ने दो याचिकाओं की सुनवाई की, जिनमें से एक याचिका संजीवनी कोंडलकर ने दायर की थी, जिन्होंने अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, सांगली के एक फैसले को चुनौती दी थी, जिसमें याचिकाकर्ता के पति द्वारा रखरखाव के आदेश को रद्द करने के लिए एक संशोधन आवेदन दायर करने को अनुमति दी गई थी।
याचिकाकर्ता और उनके पति रामचंद्र कोंडलकर ने 6 मई, 1980 को शादी की थी। रामचंद्र द्वारा हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13 के तहत व्यभिचार के आधार पर आवेदन दायर करने के बाद दोनों एक दूसरे से अलग हो गए थे। कोर्ट ने तलाक के उस फैसले को अपील के अधीन रखा था, हालांकि अपील दायर नहीं हो पाई। जिसके बाद याचिकाकर्ता पत्नी ने 12 अगस्त, 2010 के गुजाराभत्ता में वृद्धि के लिए एक आवेदन दायर किया। जिसके बाद मजिस्ट्रेट ने क्रमशः पत्नी और पुत्र को 500 रुपए और 400 रुपए गुजाराभत्ता की राशि बढ़ा दी, जबकि, पति द्वारा रखरखाव को रद्द करने के लिए दायर आवेदन का खारिज कर दिया गया। हालांकि अंत में प्रतिवादी-पति द्वारा दायर संशोधन आवेदन की अनुमति दे दी गई।
याचिकाकर्ता पत्नी की ओर से एडवोकेट महेंद्र देशमुख पेश हुए और उन्होंने दलील दी कि भले ही याचिकाकर्ता तलाकशुदा है, सीआरपीसी, 1973 की धारा 125 (4) के प्रावधानों के तहत, वह रखरखाव की हकदार है क्योंकि अधिनियम की धारा 125 की उपधारा (4) के आशयों के अंतर्गत वह एक महिला है । देशमुख ने सुप्रीम कोर्ट के दो निर्णयों, वनमाला बनाम एचएम रंगनाथ भट्टा, 1995 और रोहतास सिंह बनाम रामेंद्री, 2000 पर भरोसा किया।
दूसरी ओर प्रतिवादी पति के वकील काव्यल शाह ने दलील दी कि प्रतिवादी पति द्वारा शुरू की गई तलाक की कार्यवाही को अनुमति दी जानी चाहिए, क्योंकि याचिकाकर्ता पत्नी के खिलाफ व्यभिचार का आरोप साबित हो चुका है। इस प्रकार, अधिनियम की धारा 125 की उप-धारा (4) के तहत वैधानिक प्रतिबंधों के मद्देनजर, नीचली अदालत ने ठीक ही कहा है कि याचिकाकर्ता रखरखाव के लिए हकदार नहीं है।
दोनों पक्षों की दलीलों को सुनने के बाद कोर्ट ने कहा- “तथ्य यह है कि, अधिनियम की धारा 125 की उप-धारा (4) के तहत प्रावधानों के मुताबिक, रखरखाव का दावा करने के लिए महिला के अधिकार पर एक स्पष्ट प्रतिबंध है। यदि ऐसी महिलाओं के खिलाफ व्यभिचार के आरोप साबित होते हैं या पति द्वारा उसे गुजारभत्ता दिए जाने के लिए तैयार होने के बावजूद, वह साथ रहने से मना कर देती है, तब महिलाओं/ पत्नी को गुजाराभत्ता दिए जाने से इनकार किया जा सकता है।”
याचिकाकर्ता के वकील द्वारा दलील के तहत पेश सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उल्लेख करते हुए जस्टिस साम्ब्रे ने कहा कि दोनों निर्णय याचिकाकर्ता की शायद ही किसी भी प्रकार की मदद करते हैं, क्योंकि दोनों निर्णयों में एक ऐसी महिला के अधिकार की पहचान की गई है, जो तलाकशुदा है, जिसे व्यभिचार के आधार पर तलाक नहीं दिया गया है।
कोर्ट ने याचिकाओं को खारिज करते हुए कहा- “विशेष रूप से रखरखाव का दावा करने के लिए याचिकाकर्ता के अधिकार पर लगे स्पष्ट प्रतिबंध को ध्यान में रखते हुए, जिसे व्यभिचार के आरोप के आधार पर 27 अप्रैल 2000 को तलाक का आदेश दिया गया था, निचली अदालत ने सही फैसला दिया है कि याचिकाकर्ता-पत्नी गुजाराभत्ता की हकदार नहीं है।”