उच्च न्यायलय ने हलफनामे पर जताई सख्त नाराजगी, फांसी के अपराधी के पैरोल पर छूटने के मामले में मुख्य सचिव तलब-

अदालत ने सरकार के इस तरीके पर नाखुशी जाहिर की थी जिसमें लगातार तीन बार फांसी के सजायाफ्ता पैरोल पर छोड़े गए और सुप्रीम कोर्ट के 23 मार्च 2020 के आदेश के दुरुपयोग

फांसी के चार सजायाफ्ता बंदियों को कोरोना काल में तीन बार पैरोल पर छोड़े जाने के मामले में समुचित हलफनामा न दाखिल करने पर सोमवार को लखनऊ बेंच इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सख्त नाराजगी जताकर मुख्य सचिव राजेन्द्र कुमार तिवारी को तलब किया।

उच्च न्यायलय के आदेश के दो घंटे बाद मुख्य सचिव अपराह्न तीन बजे न्यायमूर्ति रमेश सिन्हा और न्यायमूर्ति विवेक वर्मा की खंडपीठ के समक्ष पेश हुए। उन्होंने अदालत के आदेश का समुचित पालन करने का आश्वासन दिया। पिछली सुनवाई पर कोर्ट ने मुख्य सचिव को मामले की जांच करवाने के निर्देश के साथ निजी हलफनामे पर रिपोर्ट तलब की थी।

अदालत ने पूछा था कि प्रदेश में ऐसे कितने बंदी रिहा किए गए जो उम्रकैद या सात साल से अधिक के सजायाफ्ता हैं। जबकि कोरोना काल के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने सिर्फ सात साल तक के सजायाफ्ता बंदियों को समुचित वक्त के लिए पैरोल या अंतरिम जमानत पर छोड़ने के निर्देश सरकार को दिए थे।

सोमवार को मुख्य सचिव का हलफनामा दाखिल कर गवर्नमेंट एडवोकेट्स ने अदालत को बताया कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के तहत हाईपावर कमेटी की सिफारिश पर 363 बंदियों को कोरोना काल में रिहा किया गया। लेकिन हलफनामे में यह बताने में नाकाम रहे कि आखिर किन हालात में फांसी के केस में चार सजायाफ्ता अपीलकर्ताओं (बंदियों) को तीन बार पैरोल पर कैसे छोड़ दिया गया? हलफनामे में इसका कोई तर्कसंगत कारण भी न दिए जाने पर कोर्ट ने इस तरीके पर नाखुशी व्यक्त की कि सुप्रीम कोर्ट के 23 मार्च 2020 के आदेश की व्याख्या करते हुए मुख्य सचिव ने निजी हलफनामा दाखिल किया। कोर्ट ने इस पर मुद्दे पर सहयोग के लिए मुख्य सचिव को अपराह्न्ह तीन बजे अदालत में पेश होने का आदेश दिया। मुख्य सचिव साढ़े तीन बजे तक कोर्ट में रहे और अदालत के आदेश का समुचित पालन करने का आश्वासन दिया।

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कोर्ट ने कहा था यह गंभीर सरोकार का मामला है-

हाईकोर्ट ने पहले कहा था कि यह गंभीर सरोकार का मामला है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सहारा लेकर हत्या के जुर्म में फांसी के सजा पाए बंदियों को राज्य सरकार ने पैरोल पर रिहा कर दिया। जबकि सुप्रीम कोर्ट का फैसला सिर्फ सात साल तक की सजा पाने वालों को लेकर था। अदालत ने सरकार के इस तरीके पर नाखुशी जाहिर की थी जिसमें लगातार तीन बार फांसी के सजायाफ्ता पैरोल पर छोड़े गए और सुप्रीम कोर्ट के 23 मार्च 2020 के आदेश के दुरुपयोग को लेकर राज्य का कोई प्राधिकारी इस गंभीर नाकामी को रोकने को सतर्क नहीं था।

खंडपीठ इस अहम टिप्पणी के साथ सजायाफ्तओं को सीजेएम फैजाबाद की अदालत के समक्ष तुरंत सरेंडर करने को कहा था। इसमें नाकाम होने पर सीजेएम को उन्हें हिरासत में लेने का निर्देश दिया था और 20 दिसंबर को अनुपालन रिपोर्ट तलब की थी।

कोर्ट ने यह आदेश कृष्ण मुरारी उर्फ मुरलीए राघव रामए काशी राम व राम मिलन की फांसी की सजा की पुष्टि के लिए वर्ष 2000 में भेजे गए संदर्भ व अपीलों पर दिया था।

अपीलों पर सुनवाई के दौरान सरकारी वकील ने कोर्ट को बताया था कि सुप्रीम कोर्ट के 23 मार्च 2020 के आदेश के अनुपालन में इन चारों अपीलकर्ताओं को तीन बार सरकार ने 60-60 दिन की पैरोल पर रिहा किया।

उच्च न्यायलय के यह पूछने पर कि फैजाबाद की सत्र अदालत ने 21 दिसंबर 1999 को उन्हें हत्या के जुर्म में फांसी की सजा सुनाई है, वो सुप्रीम कोर्ट के आदेश की मदद से कैसे पैरोल पर छोड़े गए? उनके अधिवक्ता तर्क संगत जवाब नहीं दे सके थे।

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