दहेज उत्पीड़न सेक्शन 498A के मामलों में अकसर बढ़ा-चढ़ाकर आरोप लगाए जाते हैं जो प्रायः सबूतविहीन होते है – सुप्रीम कोर्ट

दहेज उत्पीड़न सेक्शन 498A के मामलों में अकसर बढ़ा-चढ़ाकर आरोप लगाए जाते हैं जो प्रायः सबूतविहीन होते है – सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सेक्शन 498ए के तहत दहेज उत्पीड़न का केस में कई बार जो आरोप लगाए जाते हैं, उसके कोई सबूत तक नहीं होते, लेकिन उन्हें सजा मिलने लगती है। सर्वोच्च अदालत ने कहा कि हम पाते हैं कि अपीलकर्ता के खिलाफ इस मामले में कोई सबूत नहीं है, जिससे यह माना जा सके कि उसने धारा 34, IPC की सहायता से भी धारा 498-ए IPC के तहत अपराध किया।

दहेज उत्पीड़न के मामलों में अकसर बढ़ा-चढ़ाकर आरोप लगाए जाते हैं। इसलिए अदालतों को ऐसे मामलों की ढंग से पड़ताल करनी चाहिए क्योंकि पूरा परिवार अकसर इसकी सजा भुगतता है। उन्हें लंबी कानूनी प्रक्रिया के दौरान जेल में रहना पड़ जाता है। कई बार जो आरोप लगाए जाते हैं, उसके कोई सबूत तक नहीं होते, लेकिन उन्हें सजा मिलने लगती है।

धारा 498-A की शुरुआत-

विवाहित महिलाओं को पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता का शिकार होने से बचाने के लिए वर्ष 1983 में धारा 498-ए की शुरुआत की गई थी। इसमें 3 साल तक की सजा और जुर्माना निर्धारित किया गया है। “क्रूरता” शब्द को व्यापक रूप से परिभाषित किया गया है, जिसमें महिला के शरीर या स्वास्थ्य को शारीरिक या मानसिक नुकसान पहुंचाना और किसी भी संपत्ति या मूल्यवान सुरक्षा की किसी भी गैरकानूनी मांग को पूरा करने के लिए उसे या उसके रिश्तेदारों को मजबूर करने के उद्देश्य से उत्पीड़न के कृत्यों में शामिल होना शामिल है। दहेज के लिए उत्पीड़न धारा के दूसरे भाग के दायरे में आता है। महिला को आत्महत्या करने के लिए मजबूर करने वाली स्थिति पैदा करना भी “क्रूरता” के तत्वों में से एक है।

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ऐसे ही एक मामले में महाराष्ट्र के एक शख्स को शीर्ष अदालत ने दहेज उत्पीड़न के आरोपों से बरी कर दिया। इस मामले में वह तीन सालों से जेल में था। इसके अलावा बीड़ में लैब असिस्टेंट के तौर पर वह जो नौकरी कर रहा था, वह भी चली गई थी।

उसे दहेज उत्पीड़न केस में दोषी करार दिया गया तो 23 नवंबर, 2015 को उसकी नौकरी ही चली गई थी। ट्रायल कोर्ट की तरफ से शख्स को दोषी करार देने के आरोप को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया।

जस्टिस सीटी रवि कुमार और जस्टिस संजय कुमार की बेंच ने कहा, ‘हमारी राय है कि अदालतों को ऐसे मामलों पर पूरी जांच करनी चाहिए। इससे पूरा परिवार झेलता है और बढ़ा-चढ़ाकर लगाए गए आरोपों के चलते उन्हें सजा काटनी पड़ती है। यहां तक कि जो आरोप उन पर लगते हैं, उसके कोई सबूत तक नहीं होते।’

अदालत ने कहा कि 2010 में भी प्रीति गुप्ता बनाम झारखंड सरकार के मामले में हमने ऐसा ही कहा था। कोर्ट ने कहा कि तब सरकार से हमने कहा था कि दहेज उत्पीड़न के कानून में बदलाव किया जाए। ऐसा इसलिए क्योंकि लड़की वालों की ओर से लगाए गए आरोपों के चलते पति और उसके परिवार को सजा भुगतनी पड़ती है।

दरअसल सेक्शन 498ए के तहत दहेज उत्पीड़न का केस तब दर्ज किया जाता है, जब महिला को उसके पति अथवा परिवार या फिर दोनों ने प्रताड़ित किया हो। ऐसा उत्पीड़न दहेज की मांग को लेकर होता है तो इस कानून के दायरे में सजा का प्रावधान है।

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तब कोर्ट ने यहां तक कहा था कि इस कानून का ऐसा दुरुपयोग हो रहा है कि अदालतों में शिकायतें लंबित पड़ी हैं। इसके अलावा समाज में सद्भाव भी बिगड़ रहा है। लोगों की खुशियां छिन रही हैं। इसलिए यह सही वक्त है कि विधायिका विचार करे और कानून में जरूरी बदलाव किए जाएं। वास्तविकता को समझते हुए ये बदलाव करने चाहिए। 14 साल पुराने उस फैसले को ही एक तरह से दोहराते हुए कहा कि आज भी ऐसी ही स्थिति है। बड़े पैमाने पर दहेज उत्पीड़न के मामले सामने आ रहे हैं। कई बार इन मामलों लगाए गए आरोप सच्चाई से परे होते हैं।

अचिन गुप्ता बनाम हरियाणा राज्य के मामले में अदालत ने पत्नी/रिश्तेदारों द्वारा पति और ससुराल वालों के खिलाफ IPC कार्यवाही की धारा 498ए के दुरुपयोग के बारे में गंभीर चिंता जताई। इसके अलावा, अदालत ने संसद से प्रावधान के दुरुपयोग को रोकने के लिए भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 85 और 86 जैसे संबंधित प्रावधानों में संशोधन करने का अनुरोध किया।

तदनुसार, अपील स्वीकार कर ली गई तथा अपीलकर्ता की दोषसिद्धि रद्द कर दी गई।

वाद शीर्षक – यशोदीप बिसनराव वडोडे बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य

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