एफआईआर में जाति के उल्लेख पर सवाल उठाने वाली इलाहाबाद हाई कोर्ट की टिप्पणी
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने उत्तर प्रदेश के डीजीपी से सवाल किया है कि किसी भी केस की एफआईआर में संदिग्धों की जाति का उल्लेख करने की आवश्यकता क्यों है। अदालत ने पुलिस के शीर्ष अधिकारी से यह स्पष्ट करने को कहा कि एफआईआर में जाति लिखने से क्या लाभ होता है और इसकी क्या कानूनी आवश्यकता है।
संविधानिक चिंताएं और पूर्वाग्रह का खतरा
जस्टिस विनोद दिवाकर ने इस मामले में गहरी चिंता जताते हुए कहा कि जाति का उल्लेख संस्थागत पूर्वाग्रह और कुछ समुदायों के प्रति सौतेले व्यवहार को जन्म दे सकता है। अदालत ने यह भी कहा कि “डीजीपी को आदेश दिया जाता है कि वह व्यक्तिगत हलफनामा दाखिल करें और अगली तारीख पर यह बताएं कि एफआईआर में संदिग्धों की जाति लिखने की क्या आवश्यकता है। ऐसे समाज में यह क्यों जरूरी है, जहां जाति एक संवेदनशील मुद्दा है और इसके कारण समाज में विभाजन की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।”
संविधान में समानता की गारंटी और न्याय की परिभाषा
जज ने कहा कि संविधान जातिगत भेदभाव के खिलाफ गारंटी प्रदान करता है और यह सुनिश्चित करता है कि सभी के साथ समानता और गरिमा के साथ व्यवहार किया जाएगा। उन्होंने यह भी कहा कि पक्षपात के साथ न्याय की परिभाषा पूरी नहीं होती। न्याय सभी के लिए समान और निष्पक्ष तरीके से होना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट का संदर्भ: जाति और धर्म का उल्लेख नहीं
जस्टिस दिवाकर ने सुप्रीम कोर्ट का हवाला देते हुए कहा कि शीर्ष अदालत ने याचिकाओं में जाति और धर्म के उल्लेख पर रोक लगा दी है। कोर्ट ने यह स्पष्ट किया था कि याचिका में जाति या धर्म का उल्लेख करने से कोई उद्देश्य पूरा नहीं होता, बल्कि यह भेदभाव को बढ़ावा देता है।
अदालत का आदेश: एफआईआर में जाति का उल्लेख न करने की जरूरत
अदालत ने 3 मार्च को जारी आदेश में कहा कि डीजीपी को एक हलफनामा दाखिल करने का निर्देश दिया गया है, जिसमें यह बताया जाए कि एफआईआर में जाति का उल्लेख करने की क्या कानूनी आवश्यकता है। इसके बजाय अदालत ने यह भी कहा कि जाति का उल्लेख करना केवल व्यवस्थागत भेदभाव को बढ़ावा देता है।
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