न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा विवाद: सुप्रीम कोर्ट में नई याचिका, एफआईआर दर्ज कर आपराधिक जांच की मांग
के. वीरास्वामी निर्णय पर पुनर्विचार का भी आग्रह, कहा—”केवल महाभियोग नहीं, दंडात्मक कार्रवाई आवश्यक”
नई दिल्ली: दिल्ली हाईकोर्ट के तत्कालीन न्यायाधीश न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के सरकारी आवास से बड़ी मात्रा में नकदी मिलने के मामले में अब सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा एक बार फिर खटखटाया गया है। अधिवक्ता मैथ्यूज नेदुमपरा और तीन अन्य याचिकाकर्ताओं द्वारा दाखिल इस नई जनहित याचिका में मांग की गई है कि—
“अब जबकि इन-हाउस जांच रिपोर्ट भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) को सौंप दी गई है और वह राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री को भी अग्रेषित की जा चुकी है, तो ऐसे में आपराधिक जांच अनिवार्य हो गई है।”
मामले की पृष्ठभूमि: आग और नकदी की बरामदगी
यह प्रकरण 22 मार्च 2025 को सामने आया था, जब दिल्ली हाईकोर्ट के न्यायाधीश यशवंत वर्मा के आधिकारिक आवास के आउटहाउस में आग लगने की घटना के बाद वहां से बड़ी मात्रा में नकदी बरामद हुई थी।
घटना के बाद, CJI संजीव खन्ना ने इस संवेदनशील मामले की जांच के लिए तीन सदस्यीय इन-हाउस जज समिति गठित की थी।
विवाद के बीच, न्यायमूर्ति वर्मा को उनके मूल पदस्थापन, इलाहाबाद हाईकोर्ट में स्थानांतरित किया गया और उनके न्यायिक कार्यों से पृथक कर दिया गया।
पहले की याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने माना था “असमय”
मार्च में ही याचिकाकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट में एक रिट याचिका दाखिल की थी, जिसमें इन-हाउस जांच की वैधता पर प्रश्न उठाया गया था और आपराधिक जांच की मांग की गई थी।
लेकिन कोर्ट ने उस समय याचिका को “असमय” बताते हुए यह कहकर खारिज कर दिया था कि—
“इस चरण में इस याचिका को विचारार्थ लेना उपयुक्त नहीं होगा।”
नई याचिका में के. वीरास्वामी निर्णय पर पुनर्विचार की मांग
याचिकाकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट के के. वीरास्वामी बनाम भारत संघ (1991) के ऐतिहासिक निर्णय को चुनौती दी है, जिसमें कहा गया था कि—
“किसी भी न्यायाधीश के विरुद्ध FIR दर्ज करने से पूर्व मुख्य न्यायाधीश की अनुमति आवश्यक है।”
नई याचिका में इसे “कानून की धाराओं के प्रतिकूल” और “न्यायिक जवाबदेही के विरुद्ध” बताया गया है।
“यह व्यवस्था न्यायाधीशों को अपराध से एक प्रकार की प्रतिरक्षा देती है, जो लोकतंत्र के सिद्धांतों से मेल नहीं खाती।”
न्याय की ‘बिक्री’ और ‘काला धन’: गंभीर आरोप
याचिका में उल्लेख है कि—
“यह प्रकरण उस स्थिति की ओर इशारा करता है जहां न्याय की ‘बिक्री’ हुई और उससे ‘काला धन’ अर्जित किया गया। यदि न्यायमूर्ति वर्मा निर्दोष हैं, तो उन्होंने स्वयं FIR क्यों नहीं दर्ज करवाई?”
याचिकाकर्ताओं ने इस तर्क के साथ आपराधिक जांच की मांग की कि—
“केवल आंतरिक जांच (in-house inquiry) पर्याप्त नहीं है। पुलिस जांच ही यह उजागर कर सकती है कि रिश्वत देने वाले कौन थे, किन मामलों में लाभ प्राप्त किया गया और कौन-कौन लोग इसमें शामिल थे।”
केवल महाभियोग नहीं, कठोर दंड आवश्यक: याचिकाकर्ता
याचिका में यह भी जोर दिया गया है कि—
“यदि कोई न्यायाधीश, जो कि संविधान व कानून का संरक्षक है, स्वयं भ्रष्टाचार में लिप्त पाया जाए, तो यह एक साधारण अपराध नहीं रह जाता। इसकी गंभीरता को देखते हुए केवल महाभियोग पर्याप्त नहीं, बल्कि दंडात्मक कार्रवाई भी आवश्यक है।”
रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं, कार्रवाई प्रतीक्षारत
गौरतलब है कि इन-हाउस जांच रिपोर्ट की आधिकारिक प्रति अब तक सार्वजनिक नहीं की गई है, और राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री द्वारा किसी ठोस कार्रवाई की पुष्टि भी नहीं हुई है।
नई याचिका में सुप्रीम कोर्ट से मांग की गई है कि—
- एफआईआर दर्ज करने का निर्देश दिया जाए,
- के. वीरास्वामी निर्णय की समीक्षा की जाए, और
- एक स्वतंत्र, निष्पक्ष, आपराधिक जांच करवाई जाए।
मामले का अगला चरण: सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई प्रतीक्षित
अब सबकी निगाहें सुप्रीम कोर्ट की अगली कार्यवाही पर टिकी हैं। याचिका पर सुनवाई की तिथि फिलहाल निर्धारित नहीं हुई है।
यह मामला केवल एक न्यायाधीश के व्यक्तिगत आचरण का प्रश्न नहीं है, बल्कि न्यायपालिका की संस्थागत पारदर्शिता और जवाबदेही के लिए लिटमस टेस्ट बनता जा रहा है।
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