NJAD के सर्वे Servey के मुताबिक भारत की अदालतों में फिलहाल 5 करोड़ से ज्यादा केसेज पेंडिंग Cases Pending हैं. इनमें से करीब साढ़े चार करोड़ मामले जिला District Court और तालुका के कोर्ट में ही लंबित है. भारत में 25 हाईकोर्ट्स High Court हैं. इन सभी हाईकोर्ट्स में 59 लाख से ज्यादा केसेज पेंडिंग है. वहीं भारत के उच्चतम न्यायालय यानी सुप्रीम कोर्ट Supreme Court में तकरीबन 70 हजार केसेज पेंडिंग हैं.
एक शोध के मुताबिक देश में हाई कोर्ट में किसी मुकदमे की सुनवाई पूरी होने में तीन साल से ज्यादा समय लगता है.
आईये यहाँ जानते है कि – आखिर अदालतों पर मुकदमों का बोझ क्यों बढ़ रहा है ?
नेशनल ज्यूडिशियल डेटा ग्रिड (NJAD) के मुताबिक, भारत में अदालतों में मुकदमों का बोझ बढ़ता जा रहा है. आंकड़े बताते हैं देशभर की अदालतों में पांच करोड़ से ज्यादा केस पेंडिंग हैं. इनमें से लगभग साढ़े चार करोड़ से ज्यादा मामले तो जिला और तालुका अदालतों में ही हैं. वहीं, 25 हाई कोर्ट में 59 लाख से ज्यादा मामले लंबित हैं. जबकि, सुप्रीम कोर्ट में लगभग 70 हजार केसे पेंडिंग हैं.
कब से पेंडिंग हैं मामले?
नेशनल ज्यूडिशियल डेटा ग्रिड (NJAD) के मुताबिक, कलकत्ता हाईकोर्ट में एक मामला 1951 से पेंडिंग है. यानी, कि 72 साल बाद भी उस मामले का निपटारा नहीं हो सका है.
13 जनवरी तक देशभर की 25 हाई कोर्ट में कुल 59.78 लाख से ज्यादा मामले पेंडिंग हैं. इनमें से 42.92 लाख सिविल मामले हैं, जबकि 16.86 लाख क्रिमिनल मामले हैं.
NJAD आंकड़ों के मुताबिक, 10 लाख से ज्यादा मामले ऐसे हैं जो एक साल में आए हैं. करीब साढ़े 9 लाख मामले एक से तीन साल पुराने हैं. जबकि, 11.24 लाख मामले तीन से पांच साल से अदालतों में पेंडिंग हैं. 73 हजार से ज्यादा मामले तो ऐसे हैं जो 30 साल से भी लंबे समय से हाई कोर्ट में अटके पड़े हैं.
मामलों के लंबा खिंचने की प्रमुख वजह?
2016 में अदालतों में पेंडिंग मामलों में लगने वाले समय को लेकर एक स्टडी हुई थी. ये स्टडी कानून पर काम करने वाली संस्था दक्ष ने की थी. इस संस्था ने अलग-अलग अदालतों में लंबित 40 लाख से ज्यादा मामलों के आधार पर रिपोर्ट जारी की थी.
इस आधार पर संस्था दक्ष ने अनुमान लगाया था कि अगर आपका कोई केस किसी हाई कोर्ट में जाता है तो उसका निपटारा होने में करीब 3 साल और 1 महीने का वक्त लगता है. वहीं, अगर मामला जिला या तालुका अदालत में जाता है तो उसे निपटने में 6 साल लग सकते हैं. और अगर मामला सुप्रीम कोर्ट में जाता है तो 13 साल का समय लग सकता है.
पेंडिंग मामलों पर शोध करने वाली संस्था दक्ष का आकलन था कि हाई कोर्ट के जज हर दिन 20 से 150 मामलों की सुनवाई करते हैं. अगर इसका औसत निकाला जाए तो हर दिन 70 मामले. यानी, एक जज हर दिन औसतन साढ़े पांच घंटे का समय सुनवाई को देते हैं.
वहीं, संस्था दक्ष के अनुसार हाई कोर्ट के जज हर दिन एक मामले की सुनवाई पर 15 से 16 मिनट देते हैं.
बता दे की इसमें जजों के काम पर सवाल नहीं उठाया जा रहा है. अदालतों में हर दिन मुकदमों का बोझ बढ़ता जा रहा है. देश में अभी अदालतों में जितने जजों की जरूरत है, उतने ही नहीं.
न्यायालयों में जजों की संख्या पर क्या कहते हैं आंकड़े?
लॉ कमीशन ने 120वीं रिपोर्ट में सिफारिश की थी कि हर 10 लाख लोगों पर 50 जज होने चाहिए. लॉ कमीशन की ये रिपोर्ट जुलाई 1987 में आई थी. उस समय हर 10 लाख आबादी 11 से भी कम जज थे.
ज्ञात हो की पिछले साल फरवरी में केंद्रीय कानून मंत्री किरन रिजिजू ने राज्यसभा में बताया था कि भारत में हर 10 लाख लोगों पर 21 जज हैं. इसका मतलब हुआ कि लॉ कमिशन की रिपोर्ट के 35 साल बाद भी हर 10 लाख लोगों पर सिर्फ 11 जज ही बढ़े. हालांकि, इस दौरान आबादी कई गुना बढ़ी.
जानकारी हो की पिछले साल जुलाई में किरन रिजिजू ने कहा था कि जब वो कानून मंत्री बने थे तब अदालतों में चार करोड़ से भी कम मामले पेंडिंग थे, लेकिन अब उनकी संथ्या पांच करोड़ तक पहुंच गई है.
केंद्रीय कानून मंत्री किरन रिजिजू ने कहा था, ब्रिटेन में हर जज हर दिन चार से पांच मामलों में फैसला सुनाते हैं, लेकिन भारतीय अदालतों में हर जज हर दिन औसतन 40 से 50 मामलों की सुनवाई करते हैं. उन्होंने कहा था कि जो लोग न्याय में देरी के लिए जजों पर टिप्पणी करते हैं, वो सोच भी नहीं सकते कि एक जज को कितना काम करना पड़ता है.
सरकार के मुताबिक, सुप्रीम कोर्ट में जजों के 34, हाई कोर्ट्स में 1,104 और जिला-तालुका अदालतों में 24,521 पद हैं. लेकिन इनमें से कई सारे पद खाली पड़े हैं. सुप्रीम कोर्ट में जजों के दो पद खाली हैं. वहीं, हाई कोर्ट्स में 387 और जिला-तालुका अदालतों में पांच हजार से ज्यादा पद खाली हैं.
इंसाफ की कितनी कीमत?
दक्ष सर्वे में सामने आया था कि भारत में मुकदमा लड़ने वाला हर व्यक्ति हर दिन अदालत में पेश होने के लिए औसतन 519 रुपये खर्च करता है. कुल मिलाकर अदालतों में पेश होने के लिए मुकदमा लड़ने वाले लोग सालाना औसतन 30 हजार करोड़ रुपये खर्च करते हैं.
इस सर्वे में ये भी सामने आया था कि सालाना एक लाख रुपये से भी कम कमाने वाले परिवार का एक वादी व्यक्ति अपनी कमाई का 10 फीसदी तक अदालत में पेश होने पर खर्च कर देता है.
इतना ही नहीं, इस सर्वे में ये भी अनुमान लगाया गया था कि अदालतों में पेश होने की वजह से प्रोडक्टिविटी लॉस भी हो रहा है. एक व्यक्ति के भी अदालत में पेश होने के कारण सालाना 873 रुपये का नुकसान हो जाता है. कुल मिलाकर इससे देश को हर साल 50,387 करोड़ रुपये का नुकसान हो रहा है, जो भारत की जीडीपी का 0.48 फीसदी है.
इस सर्वे में आपराधिक न्याय प्रणाली (क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम) को लेकर भी आंकड़े जुटाए गए थे. इसमें सामने आया था कि लंबी कानूनी लड़ाई की वजह से 28 फीसदी आरोपियों ने तय सजा से ज्यादा वक्त जेल में काटा था. 34 फीसदी आरोपियों ने कहा था कि उन्हें जमानती अपराध में जेल में रखा गया है, लेकिन उनके पास जमानत के लिए पैसे नहीं है.
दो मामले, जो बताते हैं इंसाफ मिलना कितना मुश्किल!
केस-1 अप्रैल 1993 में दिल्ली पुलिस के पास एक केस आता है. मामला ये था कि एक महिला आग में बुरी तरह झुलस गई थी. महिला के पति ने आरोप लगाया था कि उसके ही एक रिश्तेदार ने पहले रेप किया और फिर उसे जला दिया. मार्च 2002 में निचली अदालत ने आरोपी को दोषी पाया और उम्रकैद की सजा सुना दी. मामला हाईकोर्ट पहुंचा. सुनवाई चल ही रही थी कि अप्रैल 2016 में आरोपी की मौत हो गई. मौत के दो साल बाद हाईकोर्ट ने अपने अंतिम फैसले में मर चुके आरोपी को निर्दोष करार दिया.
केस-2 सितंबर 2000 में यूपी के ललितपुर जिले के सिलवान गांव में पुलिस ने एक व्यक्ति के खिलाफ रेप और एससी-एसटी एक्ट के तहत केस दर्ज किया. व्यक्ति पर महिला के साथ रेप करने का आरोप था. फरवरी 2003 में निचली अदालत ने आरोपी को दोषी पाते हुए उम्रकैद की सजा सुनाई. मामला हाईकोर्ट पहुंचा. मार्च 2021 में अदालत ने आरोपी को सभी आरोपों से बरी कर दिया. अदालत ने पाया कि महिला के साथ रेप नहीं हुआ था. इस तरह से वो आरोपी बिना जुर्म के 21 साल तक जेल में रहा.