“मजिस्ट्रेट को मात्र डाकघर की तरह कार्य नहीं करना चाहिए, बल्कि पुलिस जांच की मांग करने वाले आवेदन पर विचार करते समय न्यायिक दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है।”
रोहिणी सेशंस कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में मजिस्ट्रेट द्वारा पुलिस को एक कार्यरत न्यायाधीश और एक व्यवसायी के खिलाफ जबरन वसूली और झूठे चोरी बीमा दावे से संबंधित प्राथमिकी (FIR) दर्ज करने के आदेश को निरस्त कर दिया है।
न्यायिक विवेक अपनाने की आवश्यकता
सेशंस कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व निर्णय का हवाला देते हुए कहा कि “मजिस्ट्रेट को मात्र डाकघर की तरह कार्य नहीं करना चाहिए, बल्कि पुलिस जांच की मांग करने वाले आवेदन पर विचार करते समय न्यायिक दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है।”
मजिस्ट्रेट कोर्ट का आदेश और चुनौती
मई 2024 में, मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट की अदालत ने न्यायाधीश अजय गोयल और एक व्यवसायी के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करने का आदेश दिया था। दोनों ने इस आदेश को सेशंस कोर्ट में चुनौती दी थी।
सेशंस कोर्ट का फैसला
अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश (ASJ) जगमोहन सिंह ने 12 फरवरी को इस आदेश को निरस्त करते हुए कहा, “किसी न्यायिक अधिकारी के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करने के लिए हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अनुमति अनिवार्य होती है, जो कि इस मामले में प्राप्त नहीं की गई थी।”
आदेश की वैधता पर टिप्पणी
सेशंस कोर्ट ने कहा कि “मजिस्ट्रेट द्वारा पारित आदेश कानूनी रूप से स्थायी नहीं रह सकता और इसे निरस्त किया जाता है। वर्तमान पुनरीक्षण याचिकाएं स्वीकार की जाती हैं।”
हालांकि, कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि “शिकायतकर्ताओं को ट्रायल कोर्ट के समक्ष पूर्व-समन साक्ष्य प्रस्तुत करने की स्वतंत्रता होगी।”
मजिस्ट्रेट का आदेश और जांच की आवश्यकता
मजिस्ट्रेट कोर्ट द्वारा 21 मई 2024 को पारित आदेश में कहा गया था कि “रिकॉर्ड का अवलोकन करने पर यह प्रतीत होता है कि मामले की उचित जांच केवल तभी संभव होगी जब पक्षों के बीच की टेलीफोन बातचीत को सत्यापित किया जाए और उसे फॉरेंसिक साइंस लैब (FSL) से प्रमाणित करवाया जाए। चूंकि यह प्रक्रिया शिकायतकर्ता के अधिकार क्षेत्र से बाहर है और साक्ष्य पुराने होते जा रहे हैं, इसलिए सत्य की खोज आवेदक की पहुंच से बाहर हो सकती है। अतः धारा 156(3) CrPC के तहत दायर आवेदन को स्वीकार किया जाता है।”
न्यायालय का निष्कर्ष
सेशंस कोर्ट ने स्पष्ट किया कि FIR दर्ज करने के आदेश में आवश्यक कानूनी प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया गया था। न्यायालय ने यह भी दोहराया कि न्यायिक अधिकारियों के खिलाफ किसी भी जांच की अनुमति से पहले उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की स्वीकृति अनिवार्य होती है।
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