सुप्रीम कोर्ट ने बी.एस. येदियुरप्पा के भ्रष्टाचार मामले को वृहद पीठ को सौंपा

सुप्रीम कोर्ट ने बी.एस. येदियुरप्पा के भ्रष्टाचार मामले को वृहद पीठ को सौंपा

 

सुप्रीम कोर्ट ने बी.एस. येदियुरप्पा के भ्रष्टाचार मामले को वृहद पीठ को सौंपा

पूर्व कर्नाटक मुख्यमंत्री बी.एस. येदियुरप्पा के विरुद्ध भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 13(1)(c) और 13(2) के अंतर्गत लंबित मामले को सुप्रीम कोर्ट ने वृहद पीठ को संदर्भित कर दिया है। मुख्य प्रश्न यह है कि क्या धारा 17A में निहित स्वीकृति की प्रक्रिया इतनी अनिवार्य और विशेष प्रकृति की है कि मजिस्ट्रेट द्वारा दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) के अंतर्गत जांच के आदेश के दायरे से परे मानी जाए?

न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने कहा, “चूंकि इसी विषय को लेकर पहले ही एक समांतर पीठ ने सुनवाई स्थगित कर दी है और यह मामला वृहद पीठ के समक्ष लंबित है, अतः इन याचिकाओं को Manju Surana बनाम सुनील अरोड़ा मामले के साथ जोड़ना उचित होगा।”

मामले की पृष्ठभूमि: अभियुक्त के मुख्यमंत्री रहते हुए भ्रष्टाचार के आरोप लगे, और शिकायत को दंप्रसं की धारा 156(3) के अंतर्गत लोकायुक्त पुलिस को जांच हेतु भेजा गया, जिसके पश्चात प्राथमिकी दर्ज हुई। जांच के उपरांत अंतिम रिपोर्ट दाखिल की गई और मजिस्ट्रेट ने संज्ञान लिया। इसके विरुद्ध येदियुरप्पा ने उच्च न्यायालय में धारा 482 के तहत याचिका दायर की, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के निल कुमार बनाम एम.के. अय्यप्पा (2013) निर्णय का हवाला देते हुए दलील दी गई कि स्वीकृति के अभाव में मजिस्ट्रेट जांच का आदेश नहीं दे सकते।

केंद्रीय प्रश्न:

  • क्या धारा 17A के अंतर्गत स्वीकृति की आवश्यकता मजिस्ट्रेट की न्यायिक समझ से अलग और अनिवार्य है?
  • क्या मजिस्ट्रेट द्वारा धारा 156(3) के तहत आदेश पारित करने के पश्चात धारा 17A के अंतर्गत पूर्व स्वीकृति की आवश्यकता समाप्त हो जाती है?
  • क्या धारा 156(3) के तहत मजिस्ट्रेट का आदेश मिलने पर भी पुलिस अधिकारी धारा 17A की स्वीकृति के बिना जांच प्रारंभ नहीं कर सकता?
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कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि Shamin Khan बनाम Debashish (2024) के निर्णय में कहा गया था कि जब मजिस्ट्रेट जांच का आदेश देता है, तो वह संज्ञान नहीं लेता, केवल प्राथमिक जांच हेतु आदेश देता है।

मामले का नाम: बी.एस. येदियुरप्पा बनाम ए. आलम पाशा एवं अन्य

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