तहसीलदार के खिलाफ 13 साल बाद चार्जशीट जारी करने पर सुप्रीम कोर्ट ने लगाई रोक, अनुशासनात्मक कार्यवाही रद्द
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने तहसीलदार के खिलाफ 13 साल की अनावश्यक देरी के बाद जारी चार्जशीट को रद्द करने के फैसले को बरकरार रखते हुए विभागीय कार्यवाही पर रोक लगा दी। शीर्ष अदालत ने कहा कि जब विभाग को पहले से ही कथित कदाचार की जानकारी थी, फिर भी समय पर कार्यवाही शुरू नहीं की गई, तो यह देरी कर्मचारी के पक्ष में जाएगी।
मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट ने किया रद्द
इस मामले में अपीलकर्ता ने मध्य प्रदेश हाई कोर्ट की डिवीजन बेंच के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी, जिसमें हाई कोर्ट ने सिंगल जज के उस आदेश को पलट दिया था, जिसने चार्जशीट को रद्द कर दिया था। हाई कोर्ट के फैसले से अनुशासनात्मक कार्यवाही और चार्जशीट बहाल हो गई थी।
सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस अभय एस. ओका और जस्टिस ऑगस्टिन जॉर्ज मसीह की पीठ ने स्पष्ट किया कि,
“यदि विभाग को पहले से ही कदाचार की जानकारी थी, फिर भी 13 साल तक कोई कार्रवाई नहीं की गई, तो यह देरी कर्मचारी के हित में जाएगी। हालांकि, यदि विभाग को किसी कदाचार की जानकारी नहीं थी और बाद में गंभीर अनियमितता सामने आती है, तो ऐसी स्थिति में देरी को आधार बनाकर कार्यवाही को रोका नहीं जा सकता।”
मामले का संक्षिप्त विवरण
- अपीलकर्ता 1981 में नायब तहसीलदार नियुक्त हुए थे और 1991 में तहसीलदार पद पर पदोन्नत हुए।
- 1993 से 1998 के बीच वह ग्वालियर जिले में तहसीलदार के पद पर कार्यरत थे।
- गांव बरुआ में भूमि आवंटन के एक मामले में, उन्होंने एक आवेदन स्वीकार किया, क्योंकि उस पर कोई आपत्ति दर्ज नहीं की गई थी।
- 13 साल बाद, ग्वालियर जिला कलेक्टर ने कारण बताओ नोटिस जारी किया, जिसमें आरोप लगाया गया कि भूमि का अवैध रूप से आवंटन किया गया।
- इसके बाद, ग्वालियर संभागायुक्त ने अपीलकर्ता के खिलाफ चार्जशीट जारी की, जिसमें बेईमानी का संकेत दिया गया था।
अपीलकर्ता ने मध्य प्रदेश हाई कोर्ट में एक रिट याचिका दायर कर, जजेज प्रोटेक्शन एक्ट, 1985 (JPA 1985) के तहत सुरक्षा मांगी और हाई कोर्ट के सिंगल जज ने चार्जशीट को रद्द कर दिया। लेकिन डिवीजन बेंच ने इस आदेश को पलटते हुए चार्जशीट और अनुशासनात्मक कार्यवाही को बहाल कर दिया।
सुप्रीम कोर्ट की कानूनी व्याख्या
सुप्रीम कोर्ट ने मामले की जांच के बाद कहा कि—
- आरोप अनुचित आदेश से संबंधित हैं, न कि किसी बाहरी प्रभाव या बेईमानी से।
- यह आदेश सद्भावना के साथ पारित किया गया प्रतीत होता है, जिसमें किसी अनैतिक आचरण का संकेत नहीं है।
- कारण बताओ नोटिस में उल्लिखित तथ्यों से भी अनुचित आचरण या अनियमितता का संकेत नहीं मिलता।
- तहसीलदार के रूप में अपीलकर्ता द्वारा लिया गया निर्णय ऐसा नहीं था कि उसके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही की जाए।
सुप्रीम कोर्ट ने इस आधार पर अपील को स्वीकार करते हुए मध्य प्रदेश हाई कोर्ट की डिवीजन बेंच के फैसले को रद्द कर दिया और सिंगल जज के फैसले को बहाल कर दिया।
स्वच्छ न्याय प्रणाली की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम
यह फैसला सरकारी कर्मचारियों के अधिकारों और निष्पक्ष प्रशासनिक न्याय के सिद्धांतों को मजबूत करता है। अदालत ने स्पष्ट किया कि बिना किसी ठोस आधार के अनुशासनात्मक कार्यवाही में देरी करना न्याय के बुनियादी सिद्धांतों का उल्लंघन है।
वाद शीर्षक – अमरेश श्रीवास्तव बनाम मध्य प्रदेश राज्य एवं अन्य
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