सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 307 (हत्या के प्रयास) के तहत आरोपी की जमानत रद्द करने के उच्च न्यायालय के आदेश को निरस्त कर दिया। अदालत ने जोर देते हुए कहा कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता संविधान द्वारा प्रदत्त एक मौलिक अधिकार है, जिसे हल्के में प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता।
न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति मनमोहन की पीठ ने यह फैसला सुनाते हुए कहा कि आरोपी के खिलाफ जमानत के दुरुपयोग, गवाहों को प्रभावित करने या साक्ष्यों से छेड़छाड़ का कोई प्रमाण नहीं है, इसलिए उच्च न्यायालय द्वारा जमानत रद्द करने का कोई उचित आधार नहीं था।
पीठ ने कहा,
“व्यक्ति की स्वतंत्रता संविधान के तहत एक बहुमूल्य अधिकार है, और न्यायालयों को इस स्वतंत्रता में अनावश्यक हस्तक्षेप करने से बचना चाहिए।”
इस मामले में याचिकाकर्ता की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव राय ने और प्रतिवादी की ओर से अतिरिक्त महाधिवक्ता (AAG) वैभव श्रीवास्तव ने पक्ष रखा।
हाईकोर्ट द्वारा जमानत रद्द करने में त्रुटि
यह मामला एक ऐसे अपीलकर्ता से संबंधित था, जो दो वर्षों से जेल में था और धारा 307 IPC के तहत मुकदमे का सामना कर रहा था। अभियोजन पक्ष के 43 गवाहों में से 17 की गवाही हो चुकी थी, जिसके बाद निचली अदालत ने उसे जमानत दे दी थी। हालांकि, बाद में उच्च न्यायालय ने जमानत को रद्द कर दिया, जिससे अपीलकर्ता को सुप्रीम कोर्ट की शरण लेनी पड़ी।
सुप्रीम कोर्ट ने Ajwar v. Waseem & Anr. के अपने पूर्व निर्णय का हवाला दिया, जिसमें जमानत रद्द करने के लिए चार प्रमुख आधार निर्धारित किए गए थे—
- जमानत की शर्तों का उल्लंघन,
- गवाहों को प्रभावित करना,
- साक्ष्यों से छेड़छाड़, और
- मुकदमे को जानबूझकर लंबा खींचना।
अदालत ने पाया कि उच्च न्यायालय ने इन बिंदुओं पर विचार ही नहीं किया।
पीठ ने टिप्पणी की,
“इसके बजाय, उच्च न्यायालय ने जमानत रद्द करने के मुद्दे पर निर्णय लेते समय मामले का एक प्रकार से लघु-मुकदमा (mini-trial) चला दिया।”
सुप्रीम कोर्ट की प्रमुख टिप्पणियाँ
- कोई ठोस कारण नहीं था, जिससे यह माना जा सके कि आरोपी ने जमानत मिलने के बाद कोई अनुचित कार्य किया हो।
- कोई प्रमाण नहीं था कि गवाहों को प्रभावित किया गया या साक्ष्यों से छेड़छाड़ की गई।
- मुकदमे में जानबूझकर देरी करने का कोई संकेत नहीं था।
पीठ ने कहा,
“हम संतुष्ट हैं कि उच्च न्यायालय के पास जमानत रद्द करने का कोई वैध कारण नहीं था। आरोपी के आचरण से यह प्रतीत नहीं होता कि उसे उसकी स्वतंत्रता से वंचित किया जाए।”
जमानत बहाल, शर्तों के साथ रिहाई
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उच्च न्यायालय ने अपने अधिकार क्षेत्र से परे जाकर फैसला सुनाया, जिससे न्यायिक प्रक्रिया का उल्लंघन हुआ।
अदालत ने निचली अदालत के जमानत आदेश को बहाल कर दिया और स्पष्ट किया कि उसने मामले के गुण-दोष पर कोई राय व्यक्त नहीं की है।
न्यायालय का आदेश:
“हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि उच्च न्यायालय ने गंभीर त्रुटि की है और अपीलकर्ता की जमानत रद्द करने का उसका निर्णय अनुचित था। अतः, उच्च न्यायालय का आदेश निरस्त किया जाता है और सेशंस कोर्ट द्वारा 28 अगस्त 2024 को पारित जमानत आदेश को बहाल किया जाता है। अपीलकर्ता को उन्हीं शर्तों पर जमानत दी जाएगी, जो पहले सेशंस कोर्ट द्वारा निर्धारित की गई थीं।”
सुप्रीम कोर्ट ने अपीलकर्ता को निर्देश दिया कि वह ट्रायल कोर्ट में निर्धारित तारीखों पर उपस्थित हो। अदालत ने चेतावनी दी कि यदि वह बिना उचित कारण अनुपस्थित रहता है या जमानत की शर्तों का उल्लंघन करता है, तो निचली अदालत जमानत रद्द करने के लिए स्वतंत्र होगी।
“अपीलकर्ता को ट्रायल कोर्ट में उपस्थित होना होगा, जब तक कि उसे विशेष रूप से छूट न दी जाए। यदि वह बिना उचित कारण अनुपस्थित रहता है या जमानत की शर्तों का उल्लंघन करता है, तो ट्रायल कोर्ट को इसे रद्द करने का अधिकार होगा।”
पीठ ने अंत में यह स्पष्ट किया कि यह आदेश केवल जमानत तक सीमित है और इसका मुकदमे के अंतिम निर्णय पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।
वाद शीर्षक – कैलाश कुमार बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य एवं अन्य
वाद संख्या – विशेष अपील अनुमति (सीआरएल) संख्या 713/2025
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