सुप्रीम कोर्ट ने झारखंड से जुड़े एक महत्वपूर्ण मामले में टिप्पणी करते हुए कहा है कि किसी व्यक्ति को ‘मियां-तियां’ और ‘पाकिस्तानी’ कहना भले ही अनुचित और अशोभनीय हो, लेकिन इसे भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 298 के तहत धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाने वाला अपराध नहीं माना जा सकता। यह मामला वर्ष 2020 में झारखंड में दर्ज की गई एक एफआईआर से संबंधित था, जिसकी सुनवाई अब सुप्रीम कोर्ट में हुई।
क्या है पूरा मामला?
यह मामला झारखंड के बोकारो जिले से जुड़ा है। वर्ष 2020 में चास अनुमंडल कार्यालय में कार्यरत एक उर्दू अनुवादक एवं कार्यवाहक लिपिक (शिकायतकर्ता) ने हरि नंदन सिंह नामक व्यक्ति के खिलाफ बोकारो सेक्टर-IV थाने में एफआईआर दर्ज करवाई थी।
शिकायत के अनुसार, 18 नवंबर 2020 को अपर समाहर्ता-सह-प्रथम अपीलीय प्राधिकारी (Additional Collector-cum-First Appellate Authority) के निर्देश पर, शिकायतकर्ता एक चपरासी के साथ हरि नंदन सिंह के घर पर कुछ दस्तावेज सौंपने गए थे।
आरोप था कि इस दौरान हरि नंदन सिंह ने सरकारी अधिकारी के कार्य में बाधा पहुंचाई और उन्हें ‘मियां-तियां’ व ‘पाकिस्तानी’ कहकर कथित रूप से सांप्रदायिक टिप्पणी की।
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय
मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि भले ही इस तरह की भाषा का प्रयोग अशिष्ट और अनुचित हो, लेकिन यह किसी व्यक्ति की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने का अपराध नहीं माना जा सकता।
अदालत ने हरि नंदन सिंह को भारतीय दंड संहिता की धारा 298 (किसी व्यक्ति की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के इरादे से अपमानजनक शब्दों का प्रयोग) के तहत लगे आरोपों से मुक्त कर दिया और उन्हें राहत प्रदान की।
न्यायालय की प्रमुख टिप्पणियां:
- शब्दों का चयन अनुचित हो सकता है, लेकिन यह अपराध की श्रेणी में नहीं आता।
- धारा 298 के तहत किसी व्यक्ति पर तभी दोष सिद्ध हो सकता है, जब यह स्पष्ट हो कि उसने जानबूझकर धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाने की नीयत से शब्दों का प्रयोग किया हो।
- ‘मियां-तियां’ और ‘पाकिस्तानी’ जैसे शब्दों का प्रयोग अपमानजनक हो सकता है, लेकिन इन्हें सीधे तौर पर धार्मिक अपमान का अपराध नहीं माना जा सकता।
निष्कर्ष
इस निर्णय के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट ने धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाने और अपमानजनक भाषा के बीच स्पष्ट अंतर को रेखांकित किया है। अदालत ने कहा कि सिर्फ अपमानजनक शब्दों के इस्तेमाल से कोई मामला IPC की धारा 298 के तहत नहीं आएगा, जब तक यह स्पष्ट न हो कि इन शब्दों का प्रयोग धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के उद्देश्य से किया गया है।
यह फैसला अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और भारतीय दंड संहिता के दायरे के बीच संतुलन स्थापित करने का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है, जो न्यायिक विवेक के महत्व को दर्शाता है।
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