मदरसे अपनी मर्जी से नहीं बहाल कर सकते हैं शिक्षक, सुप्रीम कोर्ट का महत्वपूर्ण निर्णय-

मदरसे अपनी मर्जी से नहीं बहाल कर सकते हैं शिक्षक, सुप्रीम कोर्ट का महत्वपूर्ण निर्णय-

सर्वोच्च न्यायलय Supreme Court ने कहा है कि सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान अपनी मर्जी से शिक्षकों की नियुक्ति नहीं कर सकते। सरकार उन्हें योग्य और उपयुक्त शिक्षक देती है तो उन्हें उनकी नियुक्ति करनी होगी।

सर्वोच्च न्यायलय ने कहा है कि सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान/ स्कूल/ कॉलेज अपनी मर्जी से शिक्षकों की नियुक्ति नहीं कर सकते। सरकार उन्हें योग्य और उपयुक्त शिक्षक देती है तो उन्हें उनकी नियुक्ति करनी होगी। यह निर्णय सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पश्चिम बंगाल मदरसा सेवा आयोग कानून, 2008 को वैध घोषित कर दिया।

कोलकाता उच्च न्यायलय Calcutta High Court ने इस कानून की धारा 8, 10, 11, 12 को असंवैधानिक ठहराते हुए निरस्त कर दिया था और कहा था कि ये प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 30 (1) का उल्लंघन है जिसमें अल्पसंख्यकों को अपने शिक्षण संस्थानों की स्थापना और उनके प्रशासन का अधिकार है। इस आदेश को पश्चिम बंगाल सरकार और कुछ उम्मीदवारों ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी जिन्हें सेवा आयोग ने मदरसों के लिए नामित किया था।

न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता और न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया की पीठ ने कहा कि रिट याचिका पूरी तरह से गलत है। मजना हाई मदरसा की मैनेजिंग कमेटी ने एसके मोहम्मद रफीक बनाम कोंटाई रहमानिया हाई मदरसा (2020) 6 SCC 689 के फैसले के खिलाफ के फैसले रिट याचिका दायर की थी।

इससे पूर्व कोर्ट ने जनवरी 2020 में हाईकोर्ट के फैसले को निरस्त कर दिया था और पश्चिम बंगाल मदरसा सेवा आयोग अधिनियम, 2008 को सही ठहराया था। इस कानून के जरिये सरकार सहायता प्राप्त मदरसों में योग्य शिक्षकों की नियुक्ति कर रही थी। मदरसों का कहना था कि मदरसा सेवा आयोग बनाकर सरकार ने उनके अनुच्छेद 30(1) में मिले संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन किया है। क्योंकि आयोग सरकार का अंग है और वह शिक्षकों की सूची उन्हें भेजता है जिन्हें मदरसों में पढ़ाने के लिए नियुक्त करना आवश्यक किया गया है।

ALSO READ -  पाकिस्तान सुप्रीम कोर्ट की प्रथम महिला न्यायाधीश ने इमरान खान के फेवर में दिया फैसला, प्रचंड प्रेशर में शाहबाज शरीफ, जाने कौन हैं जस्टिस आयशा मलिक

पीठ ने अपने फैसले में कहा कि टीएमए पाई फाउंडेशन केस (1993) में 11 जजों की पीठ ने पाया था कि संविधान के अनुच्छेद 30(1) के तहत अल्पसंख्यक संस्थानों को पूर्ण अधिकार नहीं है। यदि वे सरकार से आर्थिक सहायता ले रहे हैं तो उन्हें सरकार के योग्यता और उत्कृष्टता के मानदंडों का पालन करना होगा। क्योंकि शिक्षक क्या पढ़ा रहे हैं ये देखना सरकार का काम है। योग्यता और उत्कृष्टता की अवधारणा से कोई भी विचलन अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों को विभिन्न फैसलों में विचार किए गए लक्ष्यों को प्राप्त करने का प्रभावी वाहन नहीं बनने देगा। इसके अलावा, यदि योग्यता एकमात्र और प्रशासी मानदंड नहीं है, तो अल्पसंख्यक संस्थान गैर अल्पसंख्यक संस्थानों के साथ कदम से कदम मिलाने के बजाए उनसे पीछे रह सकते हैं।

कोर्ट ने फैसले में कहा कि यदि अल्पसंख्यक संस्थान के पास नियामक व्यवस्था के तहत दिए गए उम्मीदवार की तुलना में बेहतर उम्मीदवार उपलब्ध हैं तो संस्थान निश्चित रूप से प्राधिकरण के उम्मीदवार को अस्वीकार कर सकता है। लेकिन यदि शिक्षा प्रदान करने के लिए आयोग द्वारा नामित व्यक्ति अन्यथा ज्यादा योग्य और उपयुक्त है, तो अल्पसंख्यक संस्थान उसे अस्वीकार करके संस्था को उत्कृष्टता प्राप्त करने में बाधक बनेगा। इस प्रकार ऐसी कोई भी अस्वीकृति संविधान के अनुच्छेद 30 (1) के तहत संरक्षित अधिकारों के दायरे में नहीं होगी।

कोर्ट ने कहा शिक्षकों / गैरशिक्षकों की नियुक्ति करना अल्पसंख्यक संस्थानों के अधिकारों का उल्लंघन नहीं है। शिक्षकों का प्रशासनिक और अनुशासनात्मक नियंत्रण तो संस्थानों के पास ही रहता है। अदालत ने यह भी कहा कि सेवा आयोग अधिनियम के प्रावधानों के अनुसरण में आयोग द्वारा किए गए सभी नामांकन योग्य और लागू करने योग्य हैं।

Translate »
Scroll to Top