गवाहों के बयान दर्ज करने में देरी का लाभ अभियुक्त को नहीं मिलेगा: सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने एक हत्या के मामले में यह स्पष्ट किया कि यदि गवाहों के बयान दर्ज करने में देरी हुई है, और इस देरी का समुचित स्पष्टीकरण दिया गया है, तो इसका लाभ अभियुक्त को नहीं दिया जा सकता।
यह टिप्पणी शीर्ष न्यायालय ने एक आपराधिक अपील की सुनवाई के दौरान दी, जिसमें अभियुक्त ने बॉम्बे हाईकोर्ट के उस निर्णय को चुनौती दी थी, जिसमें निचली अदालत द्वारा सुनाई गई सजा को बरकरार रखा गया था।
न्यायमूर्ति अभय एस. ओका, न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने अपने फैसले में कहा-
“यदि गवाहों के बयान दर्ज करने में देरी होती है और वह उचित रूप से समझाई गई है, तो इसका अभियुक्त को कोई लाभ नहीं मिलेगा। हालांकि, इस संबंध में कोई कठोर नियम नहीं बनाया जा सकता, और प्रत्येक मामले में देरी की जांच उसके विशिष्ट तथ्यों के आधार पर की जानी चाहिए। हमारे विचार से यह सिद्धांत धारा 164 सीआरपीसी के संदर्भ में भी लागू होता है।”
मामले के संक्षिप्त तथ्य:
इस मामले में अभियुक्त नंबर 1 (अपीलकर्ता) और अन्य दो सह-अभियुक्तों पर भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 302 और 34 के तहत मुकदमा दर्ज किया गया था।
प्रकरण के अनुसार, 2005 में रात्रि के समय अभियुक्तों और मृतक के बीच झगड़ा हुआ था। अगले दिन, जब मृतक बाजार में एक नाई की दुकान के पास पहुंचा, तो अभियुक्तों ने उसे रोका। विवाद मृतक की बहन के एक गांव के व्यक्ति से कथित अवैध संबंधों को लेकर था।
तभी अभियुक्त नंबर 2 ने मृतक का कॉलर पकड़ लिया और अभियुक्त नंबर 1 (अपीलकर्ता) ने चाकू निकालकर मृतक के सीने में कई वार किए, जबकि अभियुक्त नंबर 2 ने उसके सीने और गर्दन पर लात मारी। अभियुक्त नंबर 3 भी मौके पर मौजूद था।
घटना के तुरंत बाद, मृतक खून से लथपथ गिर पड़ा और उसकी मौके पर ही मृत्यु हो गई। इस दौरान, मौके पर भीड़ इकट्ठा हो गई और कई लोग अभियुक्तों के घरों को नुकसान पहुंचाने लगे। पुलिस ने स्थिति को नियंत्रित किया और एफआईआर दर्ज की गई।
निचली अदालत ने अभियुक्त नंबर 1 और 2 को आजीवन कारावास की सजा सुनाई और 1,000 रुपये का जुर्माना लगाया, जबकि अभियुक्त नंबर 3 को बरी कर दिया गया। हाईकोर्ट ने भी इस फैसले की पुष्टि की, जिसके खिलाफ अभियुक्त ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की।
सुप्रीम कोर्ट की दलीलें और निर्णय:
सुप्रीम कोर्ट ने मामले की विस्तृत समीक्षा के बाद कहा:
“हमारे विचार से, अभियोजन पक्ष ने संदेह से परे अपना मामला सिद्ध कर दिया है। गवाहों के बयानों और मामले के अन्य साक्ष्यों का सावधानीपूर्वक विश्लेषण करने के बाद, यह स्पष्ट है कि अपीलकर्ता अपराध स्थल पर मौजूद था और उसने मृतक के पेट में चाकू से कई वार किए।”
अदालत ने आगे कहा कि अभियुक्त अपने खिलाफ प्रस्तुत साक्ष्यों को खंडित करने में असमर्थ रहा है।
“अभियुक्त की हत्या करने की मंशा शुरू से ही स्पष्ट थी, और यह आईपीसी की धारा 300 के किसी भी अपवाद के अंतर्गत नहीं आता। इसलिए, हम उसकी सजा को धारा 304-I में परिवर्तित करने की आवश्यकता नहीं समझते।”
सजा में छूट पर अदालत की टिप्पणी:
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी ध्यान दिया कि अभियुक्त पहले ही 14 साल और 10 महीने की वास्तविक सजा काट चुका है और यदि उसके अच्छे आचरण के आधार पर नीति के अनुसार छूट दी जा सकती है, तो राज्य सरकार को इस पर विचार करना चाहिए।
“इस पृष्ठभूमि में, हम अपीलकर्ता को स्वतंत्रता देते हैं कि वह अपनी समयपूर्व रिहाई के लिए एक विस्तृत आवेदन प्रस्तुत करे, जिसमें उसकी 14 वर्षों से अधिक की सजा और माफी के साथ कुल 20 वर्षों की सजा को ध्यान में रखा जाए।”
अदालत ने अपील को खारिज कर दिया और राज्य सरकार को निर्देश दिया कि वह इस संबंध में एक स्पष्ट आदेश जारी करे और इसे तीन महीनों के भीतर निपटाए।
न्यायालय में प्रस्तुत अधिवक्ता:
- अपीलकर्ता/अभियुक्त की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता किरण सूरी और अधिवक्ता ऑन रिकॉर्ड (AOR) निधि उपस्थित रहे।
- उत्तरदायी पक्ष/राज्य सरकार की ओर से AOR आदित्य अनिरुद्ध पांडे ने पक्ष रखा।
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