बॉम्बे हाईकोर्ट का फैसला: ‘हल्बा’ और ‘हल्बी’ अनुसूचित जनजातियों में अंतर स्पष्ट, वैधता प्रमाणपत्र जारी करने का निर्देश दिया

बॉम्बे हाईकोर्ट का फैसला: ‘हल्बा’ और ‘हल्बी’ अनुसूचित जनजातियों में अंतर स्पष्ट, वैधता प्रमाणपत्र जारी करने का निर्देश दिया

‘हल्बा’ और ‘हल्बी’ अलग-अलग अनुसूचित जनजातियाँ हैं’; बॉम्बे हाईकोर्ट ने समिति को संविधान-पूर्व दस्तावेजों पर विचार करते हुए वैधता प्रमाणपत्र जारी करने का निर्देश दिया

Bombay High Court on Caste Certificate | Halba vs Halbi Scheduled Tribe | Tribe Certificate Scrutiny Committee

बॉम्बे हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में हल्बा और हल्बी अनुसूचित जनजाति के बीच स्पष्ट अंतर किया और याचिकाकर्ता की जाति प्रमाण पत्र की वैधता को बरकरार रखते हुए अनुसूचित जनजाति प्रमाण पत्र जांच समिति (Scrutiny Committee) के आदेश को रद्द कर दिया।

मामले की पृष्ठभूमि

याचिकाकर्ता ने खुद को ‘हल्बा’ अनुसूचित जनजाति का सदस्य बताते हुए दावा किया था, लेकिन आरोपित जनजाति प्रमाण पत्र जांच समिति, अमरावती (उत्तरदाता-1) ने 17 सितंबर 2019 के आदेश द्वारा उनके दावे को खारिज कर दिया।

हालांकि, याचिकाकर्ता के पिता को पहले ही हल्बी अनुसूचित जनजाति का प्रमाण पत्र दिया जा चुका था। इस आधार पर, न्यायमूर्ति अविनाश जी. घरोटे और न्यायमूर्ति अभय जे. मंत्री की खंडपीठ ने स्पष्ट किया कि—
🔹 याचिकाकर्ता हल्बा अनुसूचित जनजाति (ST) का हिस्सा नहीं हो सकती।
🔹 वह हल्बी अनुसूचित जनजाति की सदस्य हैं।

अदालत का विश्लेषण और महत्वपूर्ण निष्कर्ष

1. याचिकाकर्ता के दावे पर संदेह क्यों?

याचिकाकर्ता ने अपने दावे के समर्थन में 9 दस्तावेज प्रस्तुत किए, जिनमें से 3 दस्तावेज 1920-1921 के पूर्व-स्वतंत्रता काल के थे, जो उनके पूर्वजों की जाति ‘हल्बी’ को प्रमाणित करते थे।

हालांकि, जांच समिति ने “साली, बुनकर, कोष्ठी और हल्बी” जैसी प्रविष्टियों का हवाला देते हुए उनकी जातीयता को संदिग्ध बताया और दावा खारिज कर दिया।

2. ‘हल्बा’ और ‘हल्बी’ अनुसूचित जनजाति अलग-अलग हैं

हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि—
हल्बा जनजाति संविधान (अनुसूचित जनजाति) आदेश, 1950 के अनुक्रमांक 13 (मध्य प्रदेश) के तहत सूचीबद्ध थी।
✔ जबकि हल्बी जनजाति महाराष्ट्र राज्य में अनुक्रमांक 19 में दर्ज थी।

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1956 और 1976 के संशोधनों के बाद, हल्बा और हल्बी दो अलग-अलग जनजातियों के रूप में दर्ज की गईं।

3. पुराने दस्तावेजों की प्रमाणिकता

अदालत ने पाया कि—
📌 पूर्व-स्वतंत्रता दस्तावेजों को अस्वीकार करने का कोई ठोस आधार नहीं था।
📌 याचिकाकर्ता के पूर्वज “समरासपुरा” के निवासी थे, न कि रायपुरा के।
📌 उनके परदादा के बिक्री विलेख (Sale Deed) में जाति ‘हल्बी’ दर्ज थी।

अदालत ने Adiwasi Thakur Jamat Swarakshan Samiti v. State of Maharashtra, 2023 SCC OnLine SC 326 मामले का हवाला देते हुए कहा कि—
📝 “संविधान-पूर्व के दस्तावेजों की प्रमाणिकता अधिक होती है, इसलिए बाद में दर्ज जातीय प्रविष्टियों के आधार पर इन्हें अस्वीकार नहीं किया जा सकता।”

4. जाति प्रमाण पत्र वैध क्यों?

अदालत ने पाया कि—
✔ याचिकाकर्ता के पिता का जाति प्रमाण पत्र मान्य था और उसे अब तक रद्द नहीं किया गया था।
Apoorva v. Divisional Caste Certificate Scrutiny Committee, 2010 SCC OnLine Bom 1053 के अनुसार, जब तक पिता के प्रमाण पत्र को धोखाधड़ी या गलत तरीके से प्राप्त नहीं माना जाता, तब तक उनके बच्चों को भी उसी जाति का प्रमाण पत्र मिलना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों का संदर्भ

अदालत ने कहा कि—
संवैधानिक संशोधन (1956 और 1976) के तहत ‘हल्बा’ और ‘हल्बी’ को अलग-अलग मान्यता दी गई थी।
हल्बा अनुसूचित जनजाति मध्य प्रदेश में मान्य थी, जबकि महाराष्ट्र में ‘हल्बी’ जनजाति को मान्यता प्राप्त थी।

अंतिम निर्णय

📌 बॉम्बे हाईकोर्ट ने 17 सितंबर 2019 के आदेश को रद्द कर दिया।
📌 याचिकाकर्ता को ‘हल्बी’ अनुसूचित जनजाति का प्रमाण पत्र देने का आदेश दिया।
📌 ‘हल्बा’ और ‘हल्बी’ दो अलग-अलग अनुसूचित जनजातियां हैं।

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जाति प्रमाण पत्र को लेकर महत्वपूर्ण निर्णय

इस फैसले से यह स्पष्ट होता है कि—
🔹 संविधान-पूर्व दस्तावेजों की प्रमाणिकता को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
🔹 बिना ठोस आधार के किसी व्यक्ति के जाति प्रमाण पत्र को खारिज नहीं किया जा सकता।
🔹 जाति प्रमाण पत्र की मान्यता वंशानुगत होनी चाहिए, जब तक कि धोखाधड़ी साबित न हो।

👉 इस फैसले का सीधा प्रभाव महाराष्ट्र में जाति प्रमाण पत्र की जांच प्रक्रिया पर पड़ेगा और भविष्य के मामलों के लिए यह एक महत्वपूर्ण संदर्भ बनेगा।

वाद शीर्षक – गौरी बनाम अनुसूचित जनजाति जाति प्रमाण पत्र छानबीन समिति
वाद संख्या – रिट याचिका संख्या 7243/2019, दिनांक 27-01-2025 को निर्णीत

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