यहाँ राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा सुप्रीम कोर्ट के 8 अप्रैल के ऐतिहासिक फैसले पर दी गई प्रतिक्रिया पर आधारित एक विधिक पत्रकारिता शैली में हिंदी रिपोर्ट प्रस्तुत है:
🏛️ राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट के विधेयक मंजूरी मामले में दिए फैसले को बताया ‘संवैधानिक अतिक्रमण’, अनुच्छेद 143(1) के तहत मांगी सर्वोच्च न्यायालय से राय
नई दिल्ली | राष्ट्रपति भवन से विशेष रिपोर्ट
भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट के उस ऐतिहासिक फैसले पर गंभीर असहमति दर्ज की है जिसमें राज्यपालों और राष्ट्रपति को विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर तीन महीने की समयसीमा में निर्णय लेने का निर्देश दिया गया था। राष्ट्रपति ने इस निर्णय को संविधान के संघीय ढांचे, शक्तियों के पृथक्करण और विवेकाधिकार सिद्धांत के विरुद्ध बताया है और इसे संवैधानिक सीमाओं का अतिक्रमण करार दिया है।
⚖️ संवैधानिक प्रश्नों पर सर्वोच्च न्यायालय की राय मांगी
इस मामले में अनुच्छेद 143(1) का उपयोग करते हुए राष्ट्रपति ने 14 संवैधानिक प्रश्नों पर सर्वोच्च न्यायालय से सलाह (advisory opinion) मांगी है। यह अनुच्छेद राष्ट्रपति को यह अधिकार देता है कि वह सर्वोच्च न्यायालय से जटिल विधिक या संवैधानिक प्रश्नों पर मार्गदर्शन ले सके।
सरकार और राष्ट्रपति ने यह मार्ग इसलिए अपनाया क्योंकि उनके अनुसार समीक्षा याचिका (Review Petition) उस मूल पीठ के समक्ष जाएगी जिसने यह निर्णय दिया था, और उस प्रक्रिया में निर्णय बदलने की संभावना कम है।
📜 सुप्रीम कोर्ट का आदेश क्या कहता है
सुप्रीम कोर्ट की पीठ — जिसमें जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन भी शामिल थे — ने 8 अप्रैल को कहा था कि:
- राज्यपाल किसी विधेयक पर तीन महीने के भीतर निर्णय लें — या तो स्वीकृति दें या पुनर्विचार हेतु विधेयक वापस करें।
- यदि विधानसभा विधेयक को पुनः पारित करती है, तो राज्यपाल को एक महीने के भीतर स्वीकृति देनी होगी।
- यदि राष्ट्रपति के पास कोई विधेयक भेजा गया हो, तो उन्हें भी तीन महीने में निर्णय लेना होगा।
- यदि यह समयसीमा बीत जाए, तो विधेयक को “मंजूरी प्राप्त” (deemed assent) माना जाएगा।
🚫 ‘मंजूरी प्राप्त’ की अवधारणा को राष्ट्रपति ने बताया असंवैधानिक
राष्ट्रपति मुर्मू ने इस ‘deemed assent’ की अवधारणा को संवैधानिक व्यवस्था के प्रतिकूल बताया। उन्होंने स्पष्ट किया कि:
“संविधान में राष्ट्रपति या राज्यपाल को जो विवेकाधिकार प्राप्त है, उस पर समय-सीमा थोपना न केवल संवैधानिक संतुलन को बिगाड़ता है, बल्कि यह कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में न्यायपालिका का हस्तक्षेप भी है।”
उन्होंने यह भी कहा कि अनुच्छेद 200 और 201 — जो राज्यपाल और राष्ट्रपति की विधेयकों पर भूमिका को नियंत्रित करते हैं — उनमें किसी समयसीमा का उल्लेख नहीं है।
🧭 अनुच्छेद 142 और अनुच्छेद 32 के प्रयोग पर भी उठाए प्रश्न
राष्ट्रपति ने यह भी कहा कि जब कोई कानूनी या संवैधानिक प्रावधान स्पष्ट रूप से विद्यमान है, तो फिर सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुच्छेद 142 (पूर्ण न्याय की शक्ति) का उपयोग करना संवैधानिक असंतुलन उत्पन्न कर सकता है।
इसके अलावा, राष्ट्रपति ने राज्य सरकारों द्वारा अनुच्छेद 131 (केंद्र और राज्य के बीच विवाद) के स्थान पर अनुच्छेद 32 (मौलिक अधिकारों की रक्षा हेतु याचिका) के प्रयोग पर भी सवाल उठाया। उन्होंने इसे संविधान की मूल भावना के विरुद्ध बताया और कहा कि यह संघीय विवादों को राजनीतिक मुद्दों की तरह पेश करता है, जो न्यायिक प्रणाली के लिए उपयुक्त नहीं है।
🧾 विश्लेषण: क्या यह न्यायपालिका बनाम कार्यपालिका का नया अध्याय है?
संविधान के अनुच्छेद 143(1) का उपयोग करते हुए राष्ट्रपति द्वारा इस प्रकार से सर्वोच्च न्यायालय से सलाह मांगना अत्यंत दुर्लभ और संवेदनशील घटना है। यह स्पष्ट करता है कि भारत के संविधानिक संस्थानों के बीच सीमाओं और संतुलन को लेकर गंभीर मतभेद उभर रहे हैं।
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