इलाहाबाद हाई कोर्ट ने आगरा के एक परिवार से जुड़े मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि गुजारा भत्ता लेने के लिए किसी विधवा को ससुराल में रहना जरूरी नहीं है। एक महिला विधवा होने पर अपने माता-पिता के साथ रह सकती है और इस स्थिति में भी वह अपने ससुर से गुजारा भत्ता पाने की हकदार होगी। उच्च न्यायालय ने कहा कि हिंदू दत्तक ग्रहण एवं भरण-पोषण अधिनियम, 1956 के तहत विधवा पुत्रवधू के लिए अपने ससुर से भरण-पोषण पाने के लिए अपने ससुराल में रहना अनिवार्य नहीं है।
हाई कोर्ट में विधवा के ससुर ने अपील दायर कर कहा था कि उसकी बहु ने साथ रहने से इंकार कर दिया है। इसलिए वह गुजारा भत्ता पाने की हकदार नहीं है। हालांकि, उच्च न्यायालय ने इसके उलट फैसला सुनाया।
क्या था मामला?
आगरा की भूरी देवी के पति की हत्या 1999 में कर दी गई थी। महिला ने अपने खर्च के लिए गुजारा भत्ता की मांग की। उसने अपनी अपील में कहा कि उसके पास आय का कोई स्रोत नहीं था। आगरा फैमिली कोर्ट ने तय किया कि विधवा का ससुर उसे हर महीने 3000 रुपये देगा। महिला के ससुर ने यह कहते हुए आपत्ति जताई कि बहु अपने माता-पिता के साथ रहती है। इसलिए उसे गुजारा भत्ता नहीं मिलना चाहिए। विधवा ने अपने सास-ससुर के साथ रहने से इंकार कर दिया है। उसे गुजारा भत्ता पाने का अधिकार नहीं है। आगरा निवासी राजपति के बेटे की 1999 में मौत हो गई। इसके बाद बहू ने आगरा फैमिली कोर्ट में भरण-पोषण का मुकदमा दायर किया। ससुर की संपत्ति पर भी अपना हक जताया, जिस पर उसके पति का अधिकार था।
न्यायमूर्ति सौमित्र दयाल सिंह और न्यायमूर्ति दोनादी रमेश की पीठ ने कहा कि समाज और सांस्कृति विधवा के माता-पिता या सास-ससुर के साथ रहने के फैसले को प्रभावित करते हैं। कोर्ट ने कहा “केवल इसलिए कि महिला ने वह विकल्प चुना है, हम इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकते कि वह बिना किसी उचित कारण के अपने वैवाहिक घर से अलग हो गई है और न ही यह कि उसके पास अपने दम पर जीने के लिए पर्याप्त साधन होंगे।” अदालत ने यह भी कहा कि विधवा बहू का भरण-पोषण पाने का अधिकार उसके वैवाहिक घर में रहने पर निर्भर नहीं है, क्योंकि विधवाओं का अपने माता-पिता के साथ रहना सामाजिक संदर्भ में आम बात है और उन्हें दंडित नहीं किया जाना चाहिए।
न्यायमूर्ति सौमित्र दयाल सिंह और न्यायमूर्ति दोनादी रमेश की पीठ ने 5 दिसंबर, 2013 के अंतरिम आदेश के अनुसार, भरण-पोषण राशि को घटाकर 1,000 रुपये कर दिया।
अदालत ने अपने फैसले में कहा गया कि कई महिलाएं पति की मौत के बाद ससुराल में सहजता के साथ नहीं रह पाती हैं। इसलिए काननू को संवेदनशीलता के साथ लागू किया जाना चाहिए।
वाद संख्या – प्रथम अपील संख्या 696/2013