वीरता की प्रतिमूर्ति वीरांगना महारानी अवंतीबाई लोधी, वीरांगना के 163 वें बलिदान दिवस पर विशेष-

वीरता की प्रतिमूर्ति वीरांगना महारानी अवंतीबाई लोधी, वीरांगना के 163 वें बलिदान दिवस पर विशेष-

20 मार्च को हमेशा की तरह वीरता की प्रतिमूर्ति रानी अवंती बाईं का बलिदान दिवस मनाया जाता है । इस अवसर पर सम्पूर्ण भारत देश में आजादी की मशाल को प्रज्वलित करने वालो इस वीरांगना का बलिदान दिवस मनाया जाता है।

आइये हम सभी देश की इस बलदानी वीरांगना के बारे में जानते है और अपने देश के इस वीरता भरे इतिहास को जान कर गौरवान्वित महसूस करते है।

वीरता की प्रतिमूर्ति वीरांगना महारानी अवंतीबाई लोधी ने एक अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत कर 1857 के भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में वीरता से लड़ते हुए अपने प्राणों की आहुति दी थी। ऐसी वीरांगना को सभी को अनुकरण करना चाहिए।

मध्य प्रदेश मण्डला के रामगढ़ राज्य की रानी अवन्तीबाई ने एक बार राजा विक्रमजीत सिंह से कहा कि उन्होंने स्वप्न में एक चील को आपका मुकुट ले जाते हुए देखा है। ऐसा लगता है कि कोई संकट आने वाला है। राजा ने कहा, हाँ, वह संकट अंग्रेजों की ओर से आ रहा है; पर मेरी रुचि अब पूजापाठ में अधिक हो गयी है, इसलिए तुम ही राज संभालकर इस संकट से निबटो।

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रानी एक बार मन्त्रियों के साथ बैठी कि लार्ड डलहौजी का दूत एक पत्र लेकर आया। उसमें लिखा था कि राजा के विक्षिप्त होने के कारण हम शासन की व्यवस्था के लिए एक अंग्रेज अधिकारी नियुक्त करना चाहते हैं। रानी समझ गयी कि सपने वाली चील आ गयी है। उसने उत्तर दिया कि मेरे पति स्वस्थ हैं। मैं उनकी आज्ञा से तब तक काम देख रही हूँ, जब तक मेरे बेटे अमानसिंह और शेरसिंह बड़े नहीं हो जाते। अतः रामगढ़ को अंग्रेज अधिकारी की कोई आवश्यकता नहीं है।

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परन्तु डलहौजी तो राज्य हड़पने का निश्चय कर चुका था। उसने अंग्रेज अधिकारी नियुक्त कर दिया। इसी बीच राजा का देहान्त हो गया। अब रानी ने पूरा काम सँभाल लिया। वह जानती थी कि देर-सबेर अंग्रेजों से मुकाबला होगा ही, अतः उसने आसपास के देशभक्त सामन्तों तथा रजवाड़ों से सम्पर्क किया। अनेक उनका साथ देने को तैयार हो गये।

वाक्या कालखंड 1857 का था। नाना साहब पेशवा के नेतृत्व में अंग्रेजों को बाहर निकालने के लिए संघर्ष की तैयारी हो रही थी। रामगढ़ में भी क्रान्ति का प्रतीक लाल कमल और रोटी घर-घर घूम रही थी। रानी ने इस यज्ञ में अपनी आहुति देने का निश्चय कर लिया। उनकी तैयारी देखकर अंग्रेज सेनापति वाशिंगटन ने हमला बोल दिया।

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रानी अवन्तीबाई लोधी ने बिना घबराये खैरी गाँव के पास वाशिंगटन को घेर लिया। रानी के कौशल से अंग्रेजों के पाँव उखड़ने लगे। इसी बीच वाशिंगटन रानी को पकड़ने के लिए अपने घोड़े सहित रानी के पास आ गया। रानी ने तलवार के भरपूर वार से घोड़े की गरदन उड़ा दी। वाशिंगटन नीचे गिर पड़ा और प्राणों की भीख माँगने लगा। रानी ने दयाकर उसे छोड़ दिया।

अंग्रेज तो अंग्रेज वो 1858 में वह फिर रामगढ़ आ धमका। इस बार उसके पास पहले से अधिक सेना तथा रसद थी। उसने किले को घेर लिया; पर तीन महीने बीतने पर भी वह किले में प्रवेश नहीं कर सका। इधर किले में रसद समाप्त हो रही थी। अतः रानी कुछ विश्वासपात्र सैनिकों के साथ एक गुप्तद्वार से बाहर निकल पड़ी। इसी बीच किले के द्वार खोलकर भारतीय सैनिक अंग्रेजों पर टूट पड़े; पर वाशिंगटन को रानी के भागने की सूचना मिल गयी। वह एक टुकड़ी लेकर पीछे दौड़ा। देवहारगढ़ के जंगल में दोनों की मुठभेड़ हुई।

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20 मार्च, 1858 का दिन था। रानी ने काल का रूप धारण कर लिया; वह रणचण्डी बनकर शत्रुओं पर टूट पड़ी। अचानक एक फिरंगी के वार से रानी का दाहिना हाथ कट गया। तलवार छूट गयी। रानी समझ गयी कि अब मृत्यु निकट है। उसने जेल में सड़ने की अपेक्षा मरना श्रेयस्कर समझा। अतः एक झटके से अपने बायें हाथ से कमर से कटार निकाली और सीने में घोंप ली। अगले ही क्षण रानी का मृत शरीर घोड़े पर झूल गया।

निःसंदेह वीरांगना अवंतीबाई का व्यक्तिगत जीवन जितना पवित्र, संघर्षशील तथा निष्कलंक था, उनकी मृत्यु (बलिदान) भी उतनी ही वीरोचित थी। धन्य है वह वीरांगना जिसने एक अद्वितीय उदहारण प्रस्तुत कर 1857 के भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में 20 मार्च 1858 को अपने प्राणों की आहुति दे दी। ऐसी वीरांगना का देश की सभी नारियों और पुरुषों को अनुकरण करना चाहिए और उनसे सीख लेकर नारियों को विपरीत परिस्थितियों में जज्बे के साथ खड़ा रहना चाहिए और जरूरत पड़े तो अपनी आत्मरक्षा अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए वीरांगना का रूप भी धारण करना चाहिए। 20 मार्च 2021 को ऐसी आर्य वीरांगना के 163 वें बलिदान दिवस पर उनको शत्-शत् नमन् और श्रद्धांजलि।

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