राजेश कुमार गुप्ता, अधिवक्ता, वाराणसी
केेेस डायरी आपराधिक मामले की दैनिक जांच का एक रिकॉर्ड है, जिसे पुलिस अधिकारी द्वारा दर्ज किया जाता है।
भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (सीआरपीसी) की धारा 172 के प्रावधान के तहत अन्वेषण (Investigation) करने वाले एक पुलिस अधिकारी को हर एक मामले में प्रत्येक दिन की गई जांच का रिकॉर्ड बनाए रखना आवश्यक होता है (जब वह दंड प्रक्रिया संहिता के अध्याय 12 के तहत अन्वेषण करता है)।
भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता में शामिल किये जाने का एक कारण यह भी प्रतीत होता है कि इसके जरिये यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि वाकई में एक अन्वेषण अधिकारी ने दंड प्रक्रिया संहिता के अध्याय 12 के तहत अन्वेषण करते हुए किसी मामले में गंभीरतापूर्वक अन्वेषण किया है, और वह केवल अपनी कल्पना के आधार पर मामले का अन्वेषण न कर रहा हो। एक अन्वेषण अधिकारी द्वारा किये गए अन्वेषण को रिकॉर्ड करने के लिए केस डायरी, एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। एक अदालत, मुकदमे की सुनवाई/जांच के समय केस डायरी की मांग कर सकती है। हालाँकि, केस डायरी, परीक्षण (Trial) के दौरान सबूत/साक्ष्य के रूप में इस्तेमाल नहीं की जा सकती है, क्योंकि इसका उपयोग केवल विचारण/परीक्षण/जांच (trial/proceeding/enquiry) के दौरान सहायता के रूप में किया जाता है। दुसरे शब्दों में, अदालत को यह शक्ति जरुर है कि वह केस डायरी को माँगा सकती है, और उसकी सहायता ले सकती है, लेकिन उसके आधार पर दोषसिद्धि अथवा दोषमुक्ति का फैसला नहीं सुना सकती है, ऐसा क्यूँ होता है इसे हम आगे समझेंगे।
धारा 172 दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 के प्रावधान के तहत, अन्वेषण करने वाला प्रत्येक पुलिस अधिकारी निर्धारित प्रपत्र में एक केस डायरी में प्रत्येक दिन किये गए अन्वेषण का रिकॉर्ड रखेगा। एक अन्वेषण अधिकारी द्वारा की गई जांच को रिकॉर्ड करने के लिए केस डायरी एक महत्वपूर्ण अवयव है।
मोहम्मद अन्कूस एवं अन्य बनाम पब्लिक प्रासीक्यूटर हाई कोर्ट ऑफ़ आंध्र प्रदेश AIR 2010 SC 566 के मामले में सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस डी. के. जैन एवं जस्टिस आर. एम. लोढ़ा की पीठ ने यह दोहराया था कि, कोई भी अदालत ऐसे मामले की केस डायरी की मांग कर सकती है एवं इस तरह की डायरी का उपयोग कर सकती है, लेकिन मामले में सबूत के रूप में नहीं, बल्कि इस तरह की जांच या परीक्षण में सहायता लेने के लिए।
पुलिस की केस डायरी एक आधिकारिक दस्तावेज हो सकता है, और इसमें प्रविष्टियां कुछ भी हों, लेकिन वे किसी भी निश्चित साक्ष्य के अभाव में सभी उद्देश्यों के लिए बिल्कुल सही/सत्य नहीं मानी जा सकतीं हैं। ऐसी परिस्थितियाँ/तथ्य भी हो सकते हैं, जो गंभीरता से इन प्रविष्टियों को चुनौती दे सकते हैं। पुलिस डायरी की प्रविष्टियाँ न तो ठोस हैं और न ही वे अपने आप में सम्पूर्ण साक्ष्य हैं। जैसा कि हम जानते हैं कि एक अन्वेषण अधिकारी आपराधिक मामले के अन्वेषण में एक अहम् भूमिका निभाता है, और यदि उसकी ओर से कोई त्रुटी या गलती की जाती है तो यह स्थिति पीड़ित व्यक्ति को न्याय दिलाने में रूकावट बन सकती है। दंड प्रक्रिया संहिता में अन्वेषण अधिकारियों को यह जिम्मेदारी दी गयी है कि वे अदालत के लिए साक्ष्य उपलब्ध कराने में मदद करें, जिससे अदालत उचित निर्णय देकर न्याय करने में सफल हो सकें।
सिद्धार्थ बनाम बिहार राज्य (2005 Cri. LJ 4499) के मामले में सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस के. जी. बालाकृष्णन एवं जस्टिस बी. एन. श्रीकृष्णा की पीठ ने यह दोहराया था कि अन्वेषण अधिकारी को सम्पूर्ण अन्वेषण के दौरान एक केस डायरी को अपने साथ रखना होता है जिसमे वह किसी मामले की दिन प्रतिदिन की गतिविधियों (अन्वेषण से सम्बंधित) दर्ज करेगा। एक जांच या परीक्षण की सहायता में केस डायरी की मांग करने और उसका उपयोग करने के लिए आपराधिक न्यायालय के पास शक्ति की कोई कमी नहीं है। यदि मामले के अन्वेषण में अन्वेषण अधिकारी के अन्वेषण के तरीके या आचरण के संबंध में अदालत को कोई संदेह है, तो अदालत केस डायरी को निश्चित रूप से देख सकती है। हालांकि, अदालत को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सबूत के रूप में केस डायरी पर निर्भरता रखने की अनफ़िल्टर्ड पावर नहीं है। अर्थात उसे सबूत के तौर पर अदालत नहीं देख सकती है। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 172 के अंतर्गत केस डायरी एवं उसकी भूमिका दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 172 के तहत 3 खंड हैं। जो विस्तृत रूप से केस डायरी की आवश्यकता और उसके उपयोग की व्याख्या करते हैं। हम संक्षेप में उन्हें यहाँ समझ सकते हैं।
धारा 172 के पहले खंड में यह कहा गया है कि प्रत्येक पुलिस अधिकारी को अन्वेषण की दिन प्रतिदिन की स्थिति को इस डायरी में लिखना होगा। अन्वेषण के विवरण के साथ-साथ उसे अपने द्वारा देखे गए स्थानों एवं समय को उल्लेख करने की आवश्यकता होती है।
धारा 172 (1) – प्रत्येक पुलिस अधिकारी को, जो इस अध्याय के अधीन अन्वेषण करता है, अन्वेषण में की गयी अपनी कार्यवाही को दिन-प्रतिदिन एक डायरी में लिखेगा, जिसमे वह समय जब उसे इत्तिला मिली, वह समय जब उसने अन्वेषण आरम्भ किया और जब समाप्त किया, वह स्थान या वे स्थान जहाँ वह गया और अन्वेषण द्वारा अभिनिश्चित परिस्थितियों का विवरण होगा।
दूसरे खंड में कहा गया है कि आपराधिक अदालतों के पास इन डायरियों को मंगाने की शक्ति है, जो उन मामलों से सम्बंधित हैं जिन मामलों की सुनवाई चल रही है। हालांकि, प्रावधान स्पष्ट करते हैं कि डायरी का उपयोग केवल एक जांच या विचारण में सहायता करने के लिए किया जाता है और यह डायरी सबूत के रूप में कार्य नहीं करती है।
धारा 172 (2) – कोई दंड न्यायालय ऐसे न्यायालय में जांच या विचारण के अधीन मामले की पुलिस डायरी को माँगा सकता है और ऐसी डायरियों को मामले में साक्ष्य के रूप में तो नहीं किन्तु ऐसी जांच या विचारण में अपनी सहायता के लिए उपयोग में ला सकता है।
तीसरा खंड एक नकारात्मक खंड है जिसमें यह कहा गया है कि न तो आरोपी व्यक्ति और न ही उसका कोई प्रतिनिधि, डायरी में वर्णित विवरण की मांग कर सकता है। भले ही डायरी को अदालत में संदर्भित किया गया हो, लेकिन उन्हें इसे देखने का अधिकार नहीं है। धारा 172 (3) – न तो अभियुक्त और न ही उसके अभिकर्ता ऐसी डायरियों को मांगने के हक़दार होंगे और न वह या वे केवल इस कारण उन्हें देखने के हक़दार होंगे कि वे न्यायालय द्वारा देखी गयी है, किन्तु यदि वे उस पुलिस अधिकारी द्वारा, जिसने उन्हें लिखा है, अपनी स्मृति को ताज़ा करने के लिए उपयोग में लायी जाती है, या यदि न्यायालय उन्हें ऐसी पुलिस अधिकारी की बातों का खंडन करने के प्रयोजन के लिए उपयोग में लाता है तो भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की, यथास्थिति धारा 161 या धारा 145 के उपबंध लागू होंगे। गौरतलब है कि केवल तभी एक आरोपी व्यक्ति डायरी को देख सकता है जब अदालत में पुलिस अधिकारी द्वारा प्रस्तुत किए गए सबमिशन का खंडन करने के लिए अदालत डायरी में विवरण का उपयोग करती है अथवा उस डायरी का उपयोग पुलिस अधिकारी ने अपनी स्मृति को ताज़ा करने के लिए किया है। यह अपवाद भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के तहत उल्लिखित प्रावधानों द्वारा प्रदान किया गया है। यह भी ध्यान रखने योग्य बात है कि केस डायरी किसी मामले की जांच या सुनवाई में अदालत की सहायता करने का एक माध्यम है, लेकिन इसका उपयोग हार्ड कोर सबूत के रूप में नहीं किया जा सकता है। इसका मतलब यह है कि इसमें निहित किसी भी तारीख, तथ्य या बयान को सबूत नहीं माना जाता है।
केस डायरी की भूमिका को समझाते हुए बिहार राज्य बनाम पीपी शर्मा एवं अन्य 1991 AIR 1260 (जस्टिस कुलदीप सिंह) के मामले में अदालत ने कहा:- “कोड की धारा 172 के तहत केस डायरी में प्रविष्टियाँ सबूत नहीं हैं और न ही उनका उपयोग अभियुक्त या अदालत द्वारा किया जा सकता है जब तक कि मामला कोड की धारा 172 (3) के तहत नहीं आता है। अदालत यह सुनिश्चित करने के लिए डायरी देख सकती है कि क्या सही लाइनों पर अन्वेषण का आयोजन किया गया है, ताकि उचित निर्देश, अगर जरूरत हो, तो दिए जा सकें। पुलिस का प्राथमिक कर्तव्य, इस प्रकार अपराध के कमीशन के सबूतों को इकट्ठा करना है, ताकि यह पता लगाया जा सके कि आरोपी ने अपराध किया है या नहीं, या क्या यह विश्वास करने के कारण हैं कि उसने अपराध किया है, और क्या उपलब्ध सबूत, अपराध साबित करने के लिए पर्याप्त हैं फिर अंततः ऐसे अधिकारी को अपराध का संज्ञान लेने के लिए सक्षम मजिस्ट्रेट को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करना होता है।” आखिर कैसी होने चाहिए केस डायरी? धारा 172 दंड प्रक्रिया संहिता के तहत “केस डायरी” दर्ज करने का उद्देश्य, अदालतों को पुलिस द्वारा अन्वेषण के तरीके की जांच करने में सक्षम बनाना है
पियरी मोहन दस बनाम डी. वेस्टन (1911) 16 CWN 145]। पुलिस की डायरी में प्रविष्टियाँ, सावधानीपूर्वक कालानुक्रमिक क्रम पर सभी महत्वपूर्ण तथ्यों का उल्लेख करते हुए पर्याप्त विवरण में होनी चाहिए, इन्हें पूरी निष्पक्षता के साथ रखा जाना चाहिए। एक पुलिस केस डायरी का लापरवाहीपूर्वक रखरखाव न केवल इसे बनाए रखने वालों के क्रेडिट को कम करता है, बल्कि उस उद्देश्य को भी पराजित करता है जिसके लिए इसे बनाए रखने की आवश्यकता होती है ।
भागवत सिंह बनाम कमिश्नर ऑफ़ पुलिस AIR 1983 SC 826]। केस डायरी में अन्वेषण के दौरान उठाये गए वास्तविक कदम या हुई प्रगति के केवल विवरण शामिल होने चाहिए और अन्वेषण के ऐसे विवरण जो मामले पर असर डालते हैं उन्हें इसमें शामिल किया जाना चाहिए। गवाहों के वर्तमान और स्थायी दोनों पते, और अन्य सभी प्रासंगिक विवरण, केस डायरी में हमेशा दर्ज किए जाने चाहिए। न्यायालयों का यह मानना रहा है कि यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि पुलिस केस डायरी में प्रविष्टियों को पर्याप्त विस्तार से, सावधानीपूर्वक कालानुक्रमिक क्रम में एवं सभी महत्वपूर्ण तथ्यों का उल्लेख करते हुए और पूरी निष्पक्षता के साथ दर्ज किया जाना चाहिए। केस डायरी में प्रविष्टियाँ निपुणता और दक्षता के साथ की जानी चाहिए। इससे अदालतों का उनकी सत्यता पर विश्वास बढ़ता है।
धारा 172 (1-क) एवं धारा 172 (1-ख) दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 के प्रावधानों के अनुसार, यह आवश्यक है कि धारा 161 के अधीन अन्वेषण क्रम में साक्षियों के अभिलिखित विवरण केस डायरी में अंतः स्थापित किये जाने चाहिए एवं केस डायरी जिल्द में होनी चाहिए और सम्यक रूप से पृष्ठांकित होनी चाहिए। हालांकि पुलिस केस डायरी आरोपियों के खिलाफ साक्ष्य नहीं है, लेकिन आपराधिक मुकदमों के लिए यह बहुत आवश्यक है कि कोड द्वारा प्रदान किए गए तरीके के अनुसार उन्हें ठीक से रखा जाए। हालाँकि, केस डायरी को धारा 172 (1) के अनुसार, आवश्यकतानुसार बनाये रखने में विफलता, अभियोजन के साक्ष्य को निष्क्रिय नहीं करती है, हालांकि उसकी प्रतिकूल आलोचना हो सकती है और इसका मूल्य कम हो सकता है। अदालत एवं पुलिस/अन्वेषण अधिकारी द्वारा केस डायरी का कैसा होता है उपयोग जैसा कि हमने जाना कि अन्वेषण अधिकारी द्वारा दर्ज की गई पुलिस डायरी, केवल दिन प्रतिदिन किये गए अन्वेषण का एक रिकॉर्ड है। न तो आरोपी और न ही उसका एजेंट, ऐसी केस डायरी की मांग करने का हकदार है और वो जांच या परीक्षण के दौरान उन्हें देखने का भी हकदार नहीं है। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 172 (2) के तहत अदालत को पुलिस डायरी की प्रविष्टियों की जांच करने के संबंध में प्रदत्त शक्ति, अभियुक्त को केस डायरी का निरीक्षण करने के लिए इसी तरह के अनपेक्षित अधिकार का दावा करने की अनुमति नहीं दी जाएगी। दूसरे शब्दों में, भले ही अदालत को यह शक्ति दी गयी है कि वह केस डायरी की प्रविष्टियों की जांच कर सके, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि अभियुक्त को भी यह सुविधा दी जाये। गौरतलब है कि केस डायरी का उपयोग, धारा 172, दंड प्रक्रिया संहिता की सीमाओं के भीतर किया जा सकता है। यदि मामले में कोई सबूत नहीं है, तो केस डायरी, सबूत की जगह नहीं ले सकती है। केस डायरी में उल्लिखित किसी भी तथ्य को मामले में सबूत के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। डायरी में प्रविष्टियाँ को सेकेंडरी साक्ष्य कहा जा सकता है, और ये न तो पुष्ट प्रमाण हैं और न ही प्रमाणिक साक्ष्य हैं। अदालत द्वारा केस डायरी से स्वीकारोक्ति (confession) और अन्य बयानों को पढना और उस आधार पर अभियोजन या बचाव के मामले पर अविश्वास करना, न्यायोचित नहीं है।
मल्कियत सिंह एवं अन्य बनाम पंजाब राज्य 1991 SCR (2) 256 (जस्टिस के. रामास्वामी) में अदालत ने यह देखा कि:- “बिना किसी विस्तृत और आलोचनात्मक विश्लेषण के, धारा 172 को पढ़कर यह साफ़ तौर पर दिखता है कि कि केस डायरी अन्वेषण अधिकारी की दिन-प्रतिदिन की जांच का एक रिकॉर्ड है, जो जांच के माध्यम से ज्ञात परिस्थितियों के विवरण का पता लगाने के लिए है। उप-धारा (2) के तहत अदालत मामले में सबूत के रूप में डायरी का उपयोग करने के लिए परीक्षण या जांच के लिए हकदार नहीं है, लेकिन पूछताछ या परीक्षण में इसकी सहायता ली जा सकती है।”
दरअसल धारा 172 (2), दंड प्रक्रिया संहिता के तहत, डायरी में प्रविष्टियों की जांच करने के लिए न्यायालय के पास स्वयं अनफ़िल्टर्ड पावर है। यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण सुरक्षा उपाय है। इस धारा के जरिये विधानमंडल ने अदालत में, जो जांच या मुकदमे का संचालन कर रहा है, पूर्ण विश्वास को स्थापित कर दिया है। इसने अदालत को किसी भी प्रासंगिक केस डायरी को मंगाने का अधिकार दिया है, अगर केस के संदर्भ में कोई असंगतता या विरोधाभास उत्पन्न होता है, तो न्यायालय पुलिस अधिकारी को क्रॉस-चेक (खंडन) करने के उद्देश्यों के लिए डायरी की प्रविष्टियों का उपयोग कर सकता है, जैसा कि उपधारा (3) में प्रदान किया गया है। अंततः, मामले का परिक्षण करने वाले न्यायालय की तुलना में न्याय के हित का कोई बेहतर संरक्षक नहीं हो सकता है। कोई भी अदालत, अभियुक्त के लाभ के लिए डायरी की सामग्री के संदर्भ में पुलिस अधिकारी को क्रॉस-चेक करने हेतु, डायरी में प्रविष्टियों का उपयोग करने की शक्ति से इनकार नहीं करेगी।
सर्वोच्च न्यायालय ने हबीब मोहम्मद (1954) SCR 475 में यह माना है कि किसी मामले की जांच या परीक्षण के तहत पुलिस की डायरी का उपयोग, केवल सहायता के लिए किया जा सकता है। अगर अदालत अपने फैसले में इसका इस्तेमाल करती है या इस तरह की डायरियों में निहित बयानों से सबूतों की सराहना के सवाल पर अपनी राय की पुष्टि करती है, तो यह अदालत द्वारा अनुचित तरीके से कार्य करना होगा।
हाल ही में चिदंबरम प्रकरण [पी. चिदंबरम बनाम डायरेक्टरेट ऑफ़ एन्फोर्समेंट (CRIMINAL APPEAL NO. 1340 2019)] में भी केस डायरी से जुडी कुछ महत्वपूर्ण बातों को सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस आर. बानुमथी एवं जस्टिस ए. एस. बोपन्ना की पीठ द्वारा अभिनिर्णित किया गया। दरअसल इस मामले में सवाल यह था कि क्या कोर्ट के पास, जांच के दौरान एकत्र की गई केस डायरी/सामग्री प्राप्त करने के लिए उचित शक्तियां हैं? इस संबंध में, पीठ ने इस विषय पर पहले के निर्णयों का जिक्र करते हुए कहा कि अदालत, अभियोजन पक्ष द्वारा अन्वेषण के दौरान एकत्र किए गए मुकदमे की डायरी/सामग्री की जाँच, मुकदमे की सुनवाई की शुरुआत से पहले, निम्नलिखित परिस्थितियों में कर सकती है,-
(i) अपनी अंतरात्मा को संतुष्ट करने हेतु कि क्या अन्वेषण सही दिशा में आगे बढ़ रहा है
(ii) स्वयं को संतुष्ट करने के लिए कि अन्वेषण सही लाइनों में की गई है और अन्वेषण प्रक्रिया का कोई दुरुपयोग नहीं हुआ है;
(iii) आरोपी को नियमित या अग्रिम जमानत दी जानी है या नहीं इसके सम्बन्ध में निर्णय लेने के लिए;
(iv) अभियोजन के लिए अभियुक्त की कोई और हिरासत आवश्यक है या नहीं;
(v) उच्च न्यायालय/ट्रायल कोर्ट के उस फैसले की उचितता के लिए खुद को संतुष्ट करने के लिए, जो चुनौती के अधीन है।
क्या अभियुक्त को केस डायरी दिखाई जा सकती है? जो पुलिस अधिकारी किसी मामले का अन्वेषण कर रहा है, वहां उसके समक्ष जानकारी की एक ऐसी श्रृंखला आ सकती है, जो अभियुक्तों को नहीं दी जा सकती हैं। वह केस डायरी में ऐसे तथ्यों को दर्ज करने के लिए बाध्य है, पर इसका यह मतलब नहीं है कि उसके विषय में अभियुक्त को जानकारी होनी चाहिए। यदि पूरे मामले की डायरी आरोपी को उपलब्ध कराई जाती है, तो यह उन लोगों के लिए गंभीर पूर्वाग्रह पैदा कर सकता है और यहां तक कि उन लोगों की सुरक्षा और सुरक्षा को भी प्रभावित कर सकता है, जिन्होंने पुलिस को बयान दिए होंगे।
आपराधिक जांच के मामले में गोपनीयता हमेशा रखी जाती है और आरोपी को पूरे मामले की डायरी उपलब्ध कराना वांछनीय नहीं होता है।
महाबीरजी बिराजमान मंदिर बनाम प्रेम नारायण शुक्ला एवं अन्य, AIR 1965 (All) में इसी सम्बन्ध में कहा गया कि “केस डायरी में न केवल धारा 161 दंड प्रक्रिया संहिता और अन्वेषण अधिकारी द्वारा तैयार किए गए साइट प्लान या अन्य दस्तावेजों के तहत दर्ज गवाहों के बयान हैं, बल्कि अन्वेषण अधिकारी या उसके वरिष्ठों की रिपोर्ट या अवलोकन भी हैं। ये रिपोर्टें हैं। वो इनके सम्बन्ध में गोपनीय प्रकृति और विशेषाधिकार का दावा कर सकता है। इसके अलावा, इस तरह की रिपोर्ट की सामग्री के प्रकटीकरण से किसी भी पक्ष को मुकदमेबाजी में मदद नहीं मिल सकती है, क्योंकि रिपोर्ट में ऐसे अधिकारियों की राय शामिल है और उनकी राय साक्ष्य नहीं हो सकती हैं।”
मोहिंदर सिंह बनाम सम्राट, AIR 1932 (Lah) में कहा गया कि: “अभियुक्त को यह अधिकार नहीं है कि वह एक पुलिस गवाह से अपनी डायरी का हवाला देकर जानकारी देने को कहे, जो जानकारी अन्यथा विशेषाधिकार प्राप्त है। यह डायरी, बचाव पक्ष हेतु नहीं है और इसका उपयोग धारा 162 और 172 के प्रावधानों के अलावा नहीं किया जा सकता है।
धारा 172 से यह पता चलता है कि गवाह, डायरी के संदर्भ में अपनी स्मृति को ताज़ा कर सकता है, लेकिन इस तरह का उपयोग, गवाह और न्यायाधीश के विवेक पर है, जिसका कर्तव्य यह सुनिश्चित करना है कि क़ानून द्वारा उनके साथ संलग्न विशेषाधिकार को सख्ती से लागू किया जाए।” अभियुक्तों को आवश्यक रूप से डायरी तक पहुंच प्राप्त करने का अधिकार नहीं है क्योंकि एक आपराधिक परीक्षण या जांच में, अभियुक्त के खिलाफ साबित करने के लिए जो कुछ भी रिकॉर्ड पर लाया जाएगा, उसे सबूतों से ही साबित करना होगा। जैसा कि हम जानते हैं कि केस डायरी स्वयं में कोई सबूत नहीं है और इसका उपयोग केवल न्यायालय या पुलिस अधिकारी द्वारा बहुत ही सीमित उद्देश्य के लिए किया जा सकता है। हालाँकि, आरोपी के अधिकार की रक्षा के लिए धारा में ही एक सुरक्षा कवच प्रदान किया गया है। अन्वेषण अधिकारी, डायरी में दर्ज प्रविष्टियों के आधार पर न्यायालय के समक्ष अपनी बातें रखता है। यदि आरोपी या उसके वकील को यह लगता है कि वह डायरी के खिलाफ कुछ कह रहा है या वह कुछ छिपाने की कोशिश कर रहा है, जो डायरी में हो सकता है तो वह अन्वेषण अधिकारी से इस संबंध में सवाल कर सकता है, और यदि आरोपी या उसके वकील को अन्वेषण अधिकारी द्वारा दिए गए बयान की सत्यता के बारे में कोई संदेह है, तो वह हमेशा अदालत से डायरी को देखने और तथ्यों को सत्यापित करने का अनुरोध कर सकता है और, आरोपी के इस अधिकार को हमेशा सुरक्षित रखा जा सकता है।
यह सच है कि अदालत को यह तय करना है कि बताए गए तथ्य, डायरी के अनुसार हैं या नहीं, लेकिन हमे अदालत पर अपनी निर्भरता को हमेशा रखना होगा और अदालत पर भरोसा करना होगा क्योंकि वह सबसे अधिक विश्वसनीय है। हालाँकि हमे किसी भी समय यह नहीं भूलना चाहिए कि आरोपी पुलिस अधिकारी द्वारा केस डायरी से संबंधित प्रविष्टियों को डायरी में उस स्थिति में देख सकता है, जब पुलिस अधिकारी इसका उपयोग स्मृति को ताज़ा करने के लिए करता है या जब अदालत पुलिस अधिकारी को क्रॉस-चेक (या उसका विरोधाभास करने के लिए) करने के लिए इसका उपयोग करती है। जब पुलिस अधिकारी द्वारा स्मृति को ताज़ा करने के लिए पुलिस डायरी का उपयोग किया जाता है या अदालत पुलिस अधिकारी को क्रॉस-चेक करने के लिए इसका उपयोग करती है, और तब साक्ष्य अधिनियम की धारा 161 और 145 के प्रावधान लागू होते हैं। ऐसा शीर्ष अदालत द्वारा शम्सुल कँवर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (Appeal (crl) 887 of 1994) में जस्टिस एम. एम. पुंछी एवं जस्टिस के. जयचंद्र रेड्डी की पीठ द्वारा अभिनिर्णित किया गया था। ध्यान रहे कि साक्ष्य अधिनियम की धारा 145, एक गवाह के पूर्व बयान (लिखित में या जिसे लेखबद्ध किया गया हो) के क्रॉस-एग्जामिनेशन के सम्बन्ध में प्रावधान करती है, और यदि उसका उद्देश्य लेखन द्वारा उसका खंडन करना है, तो उस गवाह का ध्यान उसके उन हिस्सों पर ले जाया जाना चाहिए, जिसका उपयोग विरोधाभास के उद्देश्य के लिए किया जाना है। वहीँ धारा 161 दूसरे पक्ष के अधिकारों से संबंधित है, जब गवाह की स्मृति को ताज़ा करने के लिए किसी दस्तावेज़ का उपयोग किया जाता है। इसलिए, यहाँ यह देखा जा सकता है कि जनरल डायरी में प्रविष्टियों के संदर्भ में पुलिस अधिकारी को क्रॉस-examine करने के लिए अभियुक्त का अधिकार बहुत हद तक सीमित है और यहां तक कि यह सीमित दायरा भी केवल तब उत्पन्न होता है, जब अदालत प्रविष्टियों का उपयोग पुलिस अधिकारी का विरोधाभास करने के लिए करती है या जब पुलिस अधिकारी अपनी याददाश्त को ताज़ा करने के लिए इसका इस्तेमाल करता है और जोकि, साक्ष्य अधिनियम की धारा 145 की सीमाओं के अधीन होता है और केवल उस सीमित उद्देश्य के लिए ही अदालत के विवेकाधिकार से अभियुक्त/बचाव पक्ष को डायरी की उस विशिष्ट प्रविष्टियों को देने की इजाजत दी जा सकती है। यदि अदालत, पुलिस अधिकारी का विरोधाभास करने के उद्देश्य के लिए ऐसी प्रविष्टियों का उपयोग नहीं करती है या यदि पुलिस अधिकारी अपनी स्मृति को ताज़ा करने के लिए उस का उपयोग नहीं करता है, तो अभियुक्त/बचाव पक्ष को प्रविष्टियों का उपयोग करने का कोई अधिकार प्राप्त होने का प्रश्न उस सीमित सीमा तक उत्पन्न नहीं होता है। यह भी गौरतलब है कि एक अभियुक्त व्यक्ति, अदालत में अपने ट्रायल के दौरान, पुलिस अधिकारी को अपनी डायरी का हवाला देकर अपनी स्मृति को ताज़ा करने करने के लिए बाध्य नहीं कर सकता है। स्मृति को ताज़ा करने के लिए डायरी का उपयोग गवाह और न्यायाधीश के विवेक पर है। यह पुलिस अधिकारियों के अधिकार में हो सकता है कि वे किसी भी डायरी का उल्लेख न करें, लेकिन वे अभियुक्त को डायरी का संदर्भ देने और उनकी जानकारी के स्रोत का खुलासा करने से इनकार करने के लाभ के हकदार हैं। हालाँकि जहां एक पुलिस अधिकारी गवाहों के बयानों को, जो धारा 161 के तहत लिया जाता है, केस डायरी में रिकॉर्ड करता है, वहां इस खंड द्वारा उपलब्ध विशेषाधिकार, उन बयानों तक विस्तारित नहीं होता है। अर्थात 161 के बयानों को बचाव पक्ष से दूर/छुपाया नहीं जा सकता है, बचाव पक्ष द्वारा ऐसे बयानों का उपयोग धारा 162 के प्रयोजनों के लिए किया जा सकता है।
एक केस डायरी सामान्य रूप से अवश्य ही एक पुलिस अधिकारी द्वारा, एक आपराधिक मामले के अन्वेषण के दौरान उसकी दिन प्रतिदिन के अन्वेषण के संबंध में नोटिंग्स करने के लिए है, लेकिन वह इस डायरी में किसी भी गवाह के बयान को दर्ज करने से वंचित नहीं है। इसलिए एक आरोपी व्यक्ति द्वारा पुलिस डायरी मंगाने के मामले में विशेषाधिकार, केवल एक पुलिस अधिकारी द्वारा दर्ज की गई सूचनाओं तक ही सीमित है, न कि उसमें दर्ज गवाहों के बयानों की प्रतियों की आपूर्ति तक। केस डायरी: निष्कर्ष एवं कुछ टिप्पणियां जैसा कि हमने विस्तार से समझा की केस डायरी क्या होती है, इसकी भूमिका एवं आवश्यकता पर भी हम विस्तृत चर्चा कर चुके हैं। यदि आसान भाषा में कहा जाए तो केस डायरी किसी भी मामले में सहायता लेने के लिए उपयोग में लिया जाने वाला एक दस्तावेज है, जहाँ अदालत इसे इसलिए देखती है ताकि यह निर्णय लिया जा सके कि अन्वेषण में सबकुछ ठीक चल रहा है या नहीं और जब अदालत ट्रायल कर रही होती है तो वह यह देख सकती है कि क्या अभियोजन का मामला केस डायरी से मिलता जुलता है या नहीं (हालाँकि इस आधार पर क्या निष्कर्ष निकाले जाने हैं वह अदालत के विवेक पर निर्भर करता है), वहीं पुलिस अधिकारी अपनी स्मृति को ताज़ा करने के लिए भी उसका प्रयोग कर सकता है।
जहाँ अन्वेषण के दौरान पुलिस अधिकार/अन्वेषण अधिकारी से केस डायरी के साथ ईमानदारी बरतने की उम्मीद की जाती है, वहीँ जांच या ट्रायल के दौरान यह अदालत के ऊपर होता है कि वो केस डायरी एवं अभियोजन के मामले का (ऐसी आवश्यकता पड़ने पर) किस प्रकार से मूल्यांकन करती है। आमतौर पर अदालतें केस डायरी को अनिवार्य रूप से देखती ही हैं, हालाँकि यह जरुरी नहीं की वे उसके आधार पर पुलिस अधिकारी की बातों का खंडन करें ही। केस डायरी का विश्लेषण अदालत अपनी आवश्यकता अनुसार एवं अपने विवेक के अनुसार करती हैं। हालाँकि हमने ऊपर देखा कि अन्वेषण अधिकारी के लिए केस डायरी में अन्वेषण के दौरान तमाम चीज़ें दर्ज करना आवश्यक है, पर यदि अधिकारी ने केस डायरी रिकॉर्ड नहीं की है, तो यह ट्रायल कोर्ट के लिए है कि वह उस के प्रभाव को, कारण देते हुए, किस प्रकार से तौलती है।
हाल के एक निर्णय राज्य जरिये लोकायुक्त पुलिस बनाम एच. श्रीनिवास (CRIMINAL APPEALS NOS.776779/2018) में सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस एन. वी. रमना और जस्टिस एस. अब्दुल नजीर की पीठ ने यह माना है कि जनरल डायरी मेन्टेन नहीं करने पर पूरे अभियोजन को अवैध करार नहीं दिया जाएगा, हालांकि मामले की मेरिट पर इसके परिणाम हो सकते हैं, जो कि ट्रायल का विषय है। हमने यह भी समझा कि अभियुक्त को डायरी देखने की कोई आवश्यकता नहीं होती है और इसलिए बहुत सीमित दायरे को छोड़कर, बचाव पक्ष को डायरी देखने की अनुमति नहीं प्रदान की गयी है। सबसे महत्वपूर्ण कारण, जिसके चलते बचाव पक्ष को डायरी देखने की अनुमति नहीं दी जा सकती वह है गोपनीयता।
गौरतलब है कि एक केस डायरी, एक गोपनीय दस्तावेज है जिसकी गोपनीयता बरक़रार रखी जानी चाहिए, अन्वेषण अधिकारी ने किस गवाह से क्या जाना, उससे क्या पूछा और उसका निष्कर्ष क्या हो सकता है यह सभी बातें गोपनीय ही रखी जानी चाहिए – बालकराम बनाम उत्तराखण्ड राज्य एवं अन्य (2017) 7 SCC 668 (जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस ए. एम. खानविलकर, एवं जस्टिस मोहन एम. शंतानागौर की पीठ)। और इसी कारण वश बचाव पक्ष को डायरी देखने की अनुमति नहीं दी जाती है।
लेखक अधिवक्ता हैं और विधिक मामलों के जानकार। यह लेख लेखक द्वारा लिखा गया है।