75th Independence Day Special: स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन में शामिल हमारे देश के क्रन्तिकारी जिनसे भयभीत होते थे अंग्रेज –

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हमारे स्वतंत्रतावीर जाने उनके बारे में आजादी के 75वें जय घोष पर, विशेष-

इस स्वतंत्रता दिवस के 75वें वर्ष पर हम भारत की आजादी के महानायको और महानायिकाओं के बारे में बात करेंगे जिन्होंने देश की मिट्टी के लिए अपनी जान कुर्बान कर दिया. इन सभी भारत के सपूतों के निडरता और निर्भीकता को देख कर अंग्रेज भी भय खाते थे जो आजादी की लड़ाई में अपनी भूमिका बढ़-चढ़कर निभाई और भारत की आजादी में अपना अहम योगदान दिया.

इस वर्ष देश अपना 75वां स्वतंत्रता दिवस मनाने जा रहा है. ऐसे में हमें आजादी दिलाने वालों के नाम को याद करते हुए उन्हें दिल से जरूर नमन करना चाहिए. भारत को आजाद कराने में तमाम स्वतंत्रतावीरों और वीरांगनाओं ने अपनी जान की बाजी लगा दी थी. इनकी वजह से ही हम आजाद सुबह की किरणों को देख पाए थे. आज हम ऐसे महानायक और महानायिकाओं के बारे में बात करेंगे जिन्होंने देश की मिट्टी के लिए अपनी जान कुर्बान कर दिया. इन सभी भारत के सपूतों ने निडरता के साथ लड़कर बढ़-चढ़कर भारत की आजादी में अपना अहम योगदान दिया था.

स्वतंत्रतावीर मंगल पांडे

मंगल पांडे देश की आजादी का बिगुल बजाया था. उन्होंने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था. मंगल पांडेय भारतीय स्वतंत्रता सेनानी थे, जिन्होंने 1857 में भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. वो ईस्ट इंडिया कंपनी की 34वीं बंगाल इंफेन्ट्री के सिपाही थे. भारत के स्वाधीनता संग्राम में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. मंगल पांडे के विद्रोह की शुरुआत एक बंदूक की वजह से हुई. बंदूक को भरने के लिए कारतूस को दांतों से काट कर खोलना पड़ता था और उसमे भरे हुए बारुद को बंदूक की नली में भर कर कारतूस को डालना पड़ता था. कारतूस का बाहरी आवरण में चर्बी होती थी, जो कि उसे पानी की सीलन से बचाती थी. सिपाहियों के बीच अफ़वाह फ़ैल चुकी थी कि कारतूस में लगी हुई चर्बी सुअर और गाय के मांस से बनायी जाती है. 21 मार्च 1857 को बैरकपुर परेड मैदान कलकत्ता के निकट मंगल पांडेय जो दुगवा रहीमपुर(फैजाबाद) के रहने वाले थे रेजीमेण्ट के अफ़सर लेफ़्टीनेंट बाग पर हमला कर उसे घायल कर दिया था. 6 अप्रैल 1557 को मंगल पांडेय का कोर्ट मार्शल कर दिया गया और 8 अप्रैल को फ़ांसी दे दी गयी.

स्वतंत्रतावीर खुदीराम बोस

खुदीराम बोस का जन्म 3 दिसंबर 1889 को पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जिले के बहुवैनी नामक गांव में हुआ था. उनके पिता का नाम त्रैलोक्यनाथ बोस और माता का नाम लक्ष्मीप्रिया देवी था. उनके मन में देश की आजादी को लेकर इतना जुनून था कि उन्होंने अपनी स्कूली पढ़ाई को छोड़कर मुक्ति आंदोलन में गए थे. इस बहादुर नौजवान को 11 अगस्त 1908 को फांसी दे दी गई थी उस समय उनकी उम्र 18 साल कुछ महीने थी. अंग्रेज सरकार उनकी निडरता और वीरता से इस कदर आतंकित थी कि उनकी कम उम्र के बावजूद उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई. इस फैसले के बाद क्रांतिकारी खुदीराम बोस हाथ में गीता लेकर खुशी-खुशी फांसी पर चढ़ गए. खुदीराम की लोकप्रियता का यह आलम था कि उनको फांसी दिए जाने के बाद बंगाल के जुलाहे एक खास किस्म की धोती बुनने लगे, जिसकी किनारी पर खुदीराम लिखा होता था और बंगाल के नौजवान बड़े गर्व से वह धोती पहनकर आजादी की लड़ाई में कूद पड़े थे.

स्वतंत्रतावीर भगत सिंह

उन दिनों शहीद भगत सिंह का एक नारा था, जो आज ‘इंक़लाब ज़िंदाबाद’ के नाम से हर देशवासियों की जबान पर है. भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी सेंट्रल असेंबली में बम फोकने के आरोप में दी गई थी. भगत सिंह स्वतंत्रता संग्राम के ऐसे सिपाही रहे हैं, जिनका जिक्र आते ही शरीर में देशभक्ति के जोश से रोंगटे खड़े होने लगते हैं.

भगत सिंह का जन्म 27 सितंबर 1907 को लायलपुर जिले के बंगा में हुआ था. यह जिला अब पाकिस्तान है. उनके पिता का नाम किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती था. 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग हत्याकांड ने भगत सिंह के बाल मन पर बड़ा गहरा प्रभाव डाला था. चन्द्रशेखर आजाद और पार्टी के अन्य सदस्यों के साथ मिलकर भगत सिंह ने देश की आज़ादी के लिए अभूतपूर्व साहस के साथ शक्तिशाली ब्रिटिश सरकार का मुक़ाबला किया. लाहौर में साण्डर्स की हत्या और उसके बाद सेंट्रल असेंबली में बम फेंक कर ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध खुले विद्रोह को बुलन्दी प्रदान की.

स्वतंत्रतावीर सुखदेव थापर

सुखदेव का पूरा नाम सुखदेव थापर है. उनका जन्म 15 मई 1907 में हुआ था. इनका पैतृक घर भारत के लुधियाना शहर, नाघरा मोहल्ला, पंजाब में है. इनके पिता का नाम राम लाल था. बचपन से ही सुखदेव ने उन क्रूर अत्याचारों को देखा था, जो शाही ब्रिटिश सरकार ने भारत पर किए थे. जिसने उन्हें क्रांतिकारियों से मिलने के लिए बाध्य कर दिया.

उन्होंने भारत को ब्रिटिश शासन के बंधनों से मुक्त करने का प्रण किया. सुखदेव लाहौर नेशनल कॉलेज में युवाओं को शिक्षित करने के लिए गए और वहां उन्हें भारत के गौरवशाली अतीत के बारे में अत्यन्त प्रेरणा मिली.

उन्होंने अन्य प्रसिद्ध क्रांतिकारियों के साथ लाहौर में ‘नौजवान भारत सभा’ की शुरुआत की. जो विभिन्न गतिविधियों में शामिल एक संगठन था. इन्होंने मुख्य रूप से युवाओं को स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने और सांप्रदायिकता को खत्म करने के लिए प्रेरित किया था. सुखदेव ने खुद कई क्रांतिकारी गतिविधियों जैसे वर्ष 1929 में ‘जेल की भूख हड़ताल’ में सक्रिय भूमिका निभाई थी.

लाहौर षडयंत्र के मामले (18 दिसंबर 1928) में उनके साहसी हमले के लिए, उन्हें हमेशा भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में याद किया जाएगा, क्योंकि उसमें इन्होंने ब्रिटिश सरकार की नींव को हिलाकर रख दिया था.

स्वतंत्रतावीर बाल गंगाधर तिलक

23 जुलाई 1856 को भारतीय स्वतंत्रता सेनानी बाल गंगाधर तिलक का 162वां जन्मदिन है. पुणे के डेक्कन कॉलेज से स्नातक करने के बाद तिलक गणित के अध्यापक बन गए. उस दौर में अंग्रेजी हुकूमत भारतीयों पर लगातार जुल्म ढा रही थी. तिलक से यह सब बर्दाश्त नहीं हुआ और 1890 में उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ज्वाइन कर लिया.

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तिलक ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ एक अखबार निकाला. इस अखबार का नाम केसरी था. इसमें उन्होंने अंग्रेजी सरकार के खिलाफ लगातार लेख लिखे. उनके लेख के कारण दो अंग्रेजी अधिकारियों का खून हो गया और हिंसा भड़काने के आरोप में तिलक को 18 महीने के लिए जेल में डाल दिया गया.

तिलक महात्मा गांधी के अहिंसा के मार्ग की हमेशा आलोचना करते रहे. उनका मानना था कि इस तरीके से आजादी नहीं मिल जाए. तिलक को देश स्वतंत्रता सेनानी, राष्ट्रवादी, समाज सुधारक के तौर पर याद करती है.

स्वतंत्रतावीर चन्द्रशेखर आजाद

मध्य प्रदेश के बावरा में आज ही के दिन अमर शहीद क्रांतिकारी चन्द्रशेखर आजाद का जन्म हुआ था. वही आजाद जिनका बचपन में नाम चंद्रशेखर तिवारी था. वही आजाद जो सिर्फ 15 साल की आयु में ब्रितानियां हुकूमत से लड़ने के लिए आजादी की लड़ाई में कूद गए. तिलक की तरह आजाद का मन भी महात्मा गांधी के रास्ते से 1922 में तब उठ गया जब असहयोग आन्दोलन असफल हुआ. इसके बाद उन्होंने राम प्रसाद हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन ज्वाइन की. इस संगठन का हिस्सा बन कर वह अंग्रेजी सरकार के खिलाफ क्रांति के दम पर आजादी के लिए संघर्ष करने लगे.

आजाद ने 1925 में उन्होंने काकोरी में ट्रेन को लूटा. इसके उनकी मुलाकात भगत सिंह और सुखदेव से हुई. ब्रितानियां सरकार इन लोगों की तलाश कर रही थी. 27 फरवरी 1931 को आजाद जब सुखदेव से मिलने इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क पहुंचे तो पुलिस ने उन्हें घेर लिया. दोनों तरफ से गोलीवारी शुरू हो गई. आजाद ने तीन पुलिस वालों को मार डाला और फिर खुद को गोली मार ली. इस तरह भारत मां का यह सपूत हमेशा आजाद रहा क्योंकि उन्होंने खुद से वादा किया था कि वह कभी भी अंग्रेजी हुकूमत के हाथों नहीं पकड़े जाएंगे.

स्वतंत्रतावीर राजकुमारी गुप्ता

बांदा जिले में जन्मीं क्रांतिकारी बेटी राजकुमारी गुप्ता। साल 1902 में एक छोटे से पंसारी की दुकान चलाने वाले के घर जन्मीं राजकुमारी का विवाह बाल्यावस्था में ही कानपुर के मदन मोहन गुप्ता से कर दी गई. चूंकि मदनमोहन आजादी की लड़ाई लड़ रही कांग्रेस से जुड़ थे इसलिए स्वाभाविक तौर से राजकुमारी भी अपने पति का हाथ बंटाने लगीं. दोनों पति-पत्नी गांधी के विचारों और सिद्धांतों से प्रभावित थे. महात्मा गांधी के अहिंसावादी विचारों का राजकुमारी पर काफी प्रभाव था.

09 अगस्त, 1925 को लखनऊ के पास काकोरी ट्रेन लूट के बारे में हम सब खूब जानते हैं, जिसमें सरकारी धन लूटा गया था. काकोरी ट्रेन लूटकांड को हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन ने प्लान किया था इस कांड से रामप्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आजाद, अशफाकउल्ला खां, राजेंद्र लहरी आदि जुड़े थे. इस सरकारी धन को क्रांतिकारी कामों में लगाने का विचार था. काकोरी ट्रेन लूट कांड में शामिल क्रांतिकारियों के बारे में भी इतिहास में खूब लिखा गया है, पर क्रांतिकारियों के इस सफल मिशन में राजकुमारी का भी अहम किरदार था.

असल में इस डकैती में शामिल क्रांतिकारियों को रिवॉल्वर वगैरह देने का काम राजकुमारी ने ही किया था. तभी इस काम को इतनी सफाई से अंजाम दिया जा सका. उनके इस साहसपूर्ण काम के बाद ही उनके घरवालों को पता चला कि वे क्रांतिकारी गतिविधियों से भी जुड़ी हुई हैं. वे कहा करती थी कि ‘हम ऊपर से गांधीवादी और नीचे से क्रांतिकारी हैं.’ सरकार विरोधी कामों के कारण कई बार वे जेल भी गईं। 1930, 1932 और 1942 को उन्हें जेल की सजा हुई.

देश की आजादी के संघर्ष में महिलाओं को दोहरा संघर्ष झेलना पड़ा है. एक तरफ राजकुमारी देश की आजादी के लिए संघर्ष कर रही थीं, वहीं अपने इस तरह के कामों के कारण ही वे अपने घर से दूर कर दी गईं. क्रांतिकारियों की सहायता के लिए हथियार पहुंचाने के काम के चलते वे गिरफ्तार हुईं। तब उनके ससुराल वालों ने उनका साथ छोड़ दिया. यहीं नहीं, उन्होंने बाकायदा अखबार में संदेश देकर उन्हें अपने परिवार से बेदखल कर दिया.

स्वतंत्रतावीर अशफ़ाक़ उल्ला खॉं

अशफ़ाक़ उल्ला खॉं भारत माता के ऐसे वीर सपूत थे जो देश की आजादी के लिये हंसते-हंसते फांसी पर झूल गए. अशफ़ाक़ उल्ला खॉं का जन्म 22 अक्टूबर 1900 को उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर में हुआ था. रामप्रसाद बिस्मिल और चन्द्रशेखर आजाद के नेतृत्व में 8 अगस्त, 1925 को शाहजहाँपुर में क्रांतिकारियों की एक अहम बैठक हुई, जिसमें हथियारों के लिए ट्रेन में ले जाए जाने वाले सरकारी खजाने को लूटने की योजना बनाई गई.

क्रांतिकारी जिस धन को लूटना चाहते थे, दरअसल यह धन अंग्रेज़ों ने भारतीयों से ही हड़पा था. 9 अगस्त, 1925 को अशफ़ाक़ उल्ला खाँ, रामाप्रसाद बिस्मिल, चन्द्रशेखर आज़ाद, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, अकुर रोशन सिंह, सचिन्द्र बसशी, केशव चक्रवर्ती, बनवारी लाल, मुकुन्द लाल और मन्मथ लाल गुप्त ने अपनी योजना को अंजाम देते हुए लखनऊ के नजदीक काकोरी में ट्रेन द्वारा ले जाए जा रहे सरकारी खजाने को लूट लिया. भारतीय इतिहास में यह घटना काकोरी कांड के नाम से जानी जाती है। इस घटना को आज़ादी के इन मतवालों ने अपने नाम बदलकर अंजाम दिया था.

अशफाक उल्ला खाँ ने अपना नाम कुमारजी रखा. इस घटना के बाद ब्रिटिश हुकुमत पागल हो उठी और उसने बहुत से निर्दोषों को पकड़कर जेलों में डूंस दिया। अपनों की दगाबाजी से इस घटना में शामिल एक-एक कर सभी क्रांतिकारी पकड़े गए, लेकिन चन्द्रशेखर आज़ाद और अशफाक उल्ला खां पुलिस के हाथ नहीं आए.

इस घटना के बाद अशफाक उल्ला खाँ शाहजहाँपुर छोड़कर बनारस आ गए और वहाँ दस महीने तक एक इंजीनियरिंग कंपनी में काम किया. इसके बाद उन्होंने इंजीनियरिंग के लिए विदेश जाने की योजना बनाई ताकि वहाँ से कमाए गए पैसों से अपने क्रांतिकारी साथियों की मदद करते रहें. विदेश जाने के लिए यह दिल्ली में अपने एक पठान मित्र के संपर्क में आए, लेकिन उनका वह दोस्त विश्वासघाती निकला। उसने इनाम के लालच में आकर पुलिस को सूचना दे दी और इस तरह अशफ़ाक़ उल्ला यो पकड़ लिए गए.

स्वतंत्रतावीर सुभाष चंद्र बोस

सुभाष चंद्र बोस, जिन्हें नेताजी के नाम से भी जाना जाता है, एक भारतीय राष्ट्रवादी थे जिन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी. उनके पिता का नाम ‘जानकीनाथ बोस’ और माता का नाम ‘प्रभावती’ था.

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वे 1920 के अंत तक राष्ट्रीय युवा कांग्रेस के बड़े नेता माने गए और सन् 1938 और 1939 को वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष भी बने. उन्होंने फॉरवर्ड ब्लॉक (1939- 1940) नामक पार्टी की स्थापना की.

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अंग्रेजों के खिलाफ जापान की सहायता से भारतीय राष्ट्रीय सेना “आजाद हिन्द फ़ौज़” का निर्माण किया. 05 जुलाई 1943 को सिंगापुर के टाउन हाल के सामने “सुप्रीम कमांडर” बन कर सेना को संबोधित करते हुए “दिल्ली चलो” का नारा लागने वाले सुभाष चन्द्र बोस ही थे.

18 अगस्त 1945 को टोक्यो (जापान) जाते समय ताइवान के पास नेताजी का एक हवाई दुर्घटना में निधन हुआ बताया जाता है, लेकिन उनका शव नहीं मिल पाया था इसलिए आज भी उनकी मृत्यु एक रहस्य है.

स्वतंत्रतावीर अरुणा आसिफ अली

दिनांक 16 जुलाई 1909 ई0 को आजादी ए हिन्द की एक अहम नायिका अरुणा आसिफ अली का जन्म तत्कालीन पंजाब के कालका नामक स्थान में हुआ था। उनका परिवार ब्राहम्मण जाति से था. उनके बचपन का नाम अरुणा गांगुली था. उन्होंने लाहौर और नैनीताल के सेक्रेड हार्ट कान्वेंट में अपनी शिक्षा प्राप्त की। स्नातक की उपाधि प्राप्त करने के बाद अरुणा आसिफ अली गोखले मेमोरियल स्कूल, कलकत्ता, में शिक्षिका के तौर पर कार्य करने लगीं। इलाहबाद में उनकी मुलाकात उनके होने वाले पति आसफ अली से हुई जो इण्डियन नेशनल कांग्रेस के प्रख्यात नेता और स्वतंत्रता संग्राम के जांबाज़ योद्वा थे यह उम्र में अरूणा से 23 वर्ष बड़े थे। उन्होंने 1928 में अपने माता पिता के मर्जी के विरुद्ध जाकर शादी कर ली जो कि उनके धर्म और आयु में इतने ज्यादा अंतर के विरुद्ध थे.

चूंकि आसफ अली स्वतंत्रता संग्राम से पूरी तरह से जुड़े हुए थे इसीलिये शादी के उपरांत अरुणा आसफ अली भी उनके साथ इस मुहीम में जुड़ गयीं. वर्ष 1930 में ‘‘नमक सत्याग्रह’’ के दौरान उन्होंने सार्वजनिक सभाओं को सम्बोधित किया और जुलूस निकाला. ब्रिटिश हुकूमत ने उन पर बाग़ी होने का आरोप लगाया और उन्हें एक साल जेल की सजा सुनाई। गांधी-इर्विन समझौते के अंतर्गत सभी राजनैतिक बंदियों को रिहा कर दिया गया, पर अरुणा को मुक्त नहीं किया गया. परन्तु जब उनके पक्ष में एक जन आंदोलन हुआ तब उन्हें रिहा किया गया.

1042 ई0 में उन्होंने ‘‘भारत छोड़ो आंदोलन’’ में मुख्य भूमिका निभाई और मुम्बई गौलिया टैंक मैदान में ब्रिटिश फ़ौजियों की गोलियों की परवाह न करते हुए बहादुरी के साथ उन्होंने राष्ट्रीय ध्वज फहरा कर ‘‘भारत छोड़ो आंदोलन’’ का आग़ाज़ कर दिया। ब्रिटिश साम्राज्य उनका दुश्मन बन गया और इन्हें कई बार जेल में डाला गया. अरूणा जी निरन्तर कई वर्षों तक अंग्रेज़ी साम्राज्य से टक्कर लेती रहीं वह हिन्दुस्तानी महिलाओं के लिये एक आदर्श महिला बन गयीं.

स्वतंत्रतावीर लक्ष्मी सहगल

लक्ष्मी सहगल भारत की स्वतंत्रता संग्राम की सेनानी हैं. वे आजाद हिन्द फौज की अधिकारी तथा आजाद हिन्द सरकार में महिला मामलों की मंत्री थीं. वो व्यवसाय से डॉक्टर थी जो द्वितीय विश्वयुद्ध के समय प्रकाश में आयीं. लक्ष्मी आजाद हिन्द फौज की ‘रानी लक्ष्मी रेजिमेन्ट’ की कमाण्डर थीं. दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जब जापानी सेना ने सिंगापुर में ब्रिटिश सेना पर हमला किया तो लक्ष्मी सहगल सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिंद फ़ौज में शामिल हो गई थी. वो बचपन से ही राष्ट्रवादी आंदोलन से प्रभावित हो गई थी और जब महात्मा गांधी ने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आंदोलन छेड़ा तो लक्ष्मी सहगल ने उसमे हिस्सा लिया थी. लक्ष्मी 1943 में अस्थायी आज़ाद हिंद सरकार की कैबिनेट में पहली महिला सदस्य बनी थी. आज़ाद हिंद फ़ौज की रानी झांसी रेजिमेंट में लक्ष्मी सहगल बहुत सक्रिय रहीं. बाद में उन्हें कर्नल का ओहदा दिया गया लेकिन लोगों ने उन्हें कैप्टन लक्ष्मी के रूप में ही याद रखा. आज़ाद हिंद फ़ौज की हार के बाद ब्रिटिश सेनाओं ने स्वतंत्रता सैनिकों की धरपकड़ की और 4 मार्च 1946 को वे पकड़ी गई पर बाद में उन्हें रिहा कर दिया गया. लक्ष्मी सहगल ने 1947 में कर्नल प्रेम कुमार सहगल से विवाह किया और कानपुर आकर बस गई.

स्वतंत्रतावीर भीकाजी कामा

श्रीमती भीकाजी जी रूस्तम कामा (मैडम कामा) भारतीय मूल की पारसी नागरिक थीं जिन्होने लन्दन, जर्मनी तथा अमेरिका का भ्रमण कर भारत की स्वतंत्रता के पक्ष में माहौल बनाया. वो जर्मनी के स्टटगार्ट नगर में 22 अगस्त 1907 में हुई सातवीं अंतर्राष्ट्रीय कांग्रेस में भारत का प्रथम तिरंगा राष्ट्रध्वज फहराने के लिए प्रसिध्द हैं. उस समय तिरंगा वैसा नहीं था जैसा आज है.
उनके द्वारा पेरिस से प्रकाशित ‘वन्देमातरम्’ पत्र प्रवासी भारतीयों में काफी लोकप्रिय हुआ. 1907 में जर्मनी के स्टटगार्ट में हुयी अन्तर्राष्ट्रीय सोशलिस्ट कांग्रेस में मैडम भीकाजी कामा ने कहा, ‘भारत में ब्रिटिश शासन जारी रहना मानवता के नाम पर कलंक है. एक महान देश भारत के हितों को इससे भारी क्षति पहुंच रही है.’
उन्होंने लोगों से भारत को दासता से मुक्ति दिलाने में सहयोग की अपील की और भारतवासियों का आह्वान किया, ‘आगे बढ़ो, हम हिन्दुस्तानी हैं और हिन्दुस्तान हिन्दुस्तानियों का है.’
यही नहीं मैडम भीकाजी कामा ने इस कांफ्रेंस में ‘वन्देमातरम्’ अंकित भारत का प्रथम तिरंगा राष्ट्रध्वज फहरा कर अंग्रेजों को कड़ी चुनौती दी. मैडम भीकाजी कामा लन्दन में दादा भाई नौरोजी की प्राइवेट सेक्रेटरी भी रही थी.

स्वतंत्रतावीर रानी लक्ष्मीबाई

भारत में जब भी महिलाओं के सशक्तिकरण की बात होती है तो महान वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई की चर्चा जरूर होती है. बचपन में इनका नाम मणिकर्णिका था, बाद में लक्ष्मी बाई बनीं देवी लक्ष्मी के सम्मान में इन्होंने अपना नाम लक्ष्मी बाई रखा.

14 साल की उम्र में इनका विवाह झांसी के राजा गंगाधर राव के साथ हुआ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में प्रमुख उपलब्धियां ब्रिटिश सरकार के कानून को पालन करने से इंकार कर दिया मौत से पहले तक इन्होंने अंग्रेज के साथ वीरता से लड़ा. 22 साल की उम्र में ब्रिटिश सेना से लोहा लेते हुए शहीद हो गई.

स्वतंत्रतावीर गुलाब कौर

गुलाब कौर एक भारतीय स्वतंत्रता सेनानी थे. भारत पंजाब के संगरूर जिले में बख्शीवाला गांव के गुलाब कौर ने मान सिंह से शादी की थी. यह युगल, फिलीपींस मनीला के लिए गया था, उन्का अमेरिका जाने का इरादा था. मनीला में, गुलाब कौर ग़दर पार्टी मे शामिल हो जो ब्रिटिश शासन से उपमहाद्वीप को मुक्त करने के उद्देश्य से सिख-पंजाबी प्रवासियों द्वारा स्थापित एक संगठन था.

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गुलाब कौर ने पार्टी प्रिंटिंग प्रेस पर निगरानी रखी. पत्रकार के तौर पर एक प्रेस पास हाथ में हाथ लेकर उन्होंने ग़दर पार्टी के सदस्यों को हथियार बांट दिए.

गुलाब ने अन्य लोगों को स्वतंत्रता साहित्य बांटकर और जहाजों के भारतीय यात्रियों को प्रेरक भाषण देने के द्वारा गदर पार्टी में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किया. उसे लाहौर, उस समय ब्रिटिश-भारत में और अब पाकिस्तान में, राजद्रोहपूर्ण कृत्यों के लिए में दो साल की सजा सुनाई गई थी.

स्वतंत्रतावीर सरोजनी नायडू

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इनका जन्म 1879 में हुआ था. सबसे पहले इन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन में अहम भूमिका निभाई थी. ये इस आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी के साथ जेल भी भेजी गई थीं. 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन भी अहम भूमिका निभाते हुए इन्हें गिरफ्तार किया गया था. ये आजाद भारत की उत्तर प्रदेश की पहली महिला गवर्नर भी बनीं. ऑफिस में काम करते हुए ही इन्होंने 1942 आखिरी सांस ली.

सन 1919 ईसवी में जब प्रथम सत्याग्रह संग्राम का प्रतिज्ञा पत्र तैयार किया गया तो उसमें उन्होंने बढ़-चढ़कर भाग लिया। सन 1922 ईसवी में गांधी जी पर मुकदमा चला और उन्हें 6 वर्ष की सजा हो गई. इस समय सरोजिनी नायडू ने खद्दर वस्त्र धारण किया और देश के कोने-कोने में सत्याग्रह संग्राम का संदेश पहुंचाने के कार्य में लग गईं. वह कवित्री होने के साथ-साथ स्वतंत्रता संग्राम की उच्च कोटि की नेता भी थी.
1925 ईसवी में इन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष चुन लिया गया. इस समय गांधी जी ने उत्साह भरे शब्दों में उनका स्वागत किया और कहा “पहली बार एक भारतीय महिला को देश की सबसे बड़ी सौगात मिली है” सन 1930 ईसवी में गांधी जी ने नमक कानून तोड़ो आंदोलन में दांडी मार्च किया और नमक कानून तोड़ा।सरोजिनी नायडू महिलाओं के दल के साथ पहले से समुद्र के किनारे उपस्थित थी.
1942 ईसवी में गांधीजी के भारत छोड़ो आंदोलन में उन्होंने भाग लिया। आजादी की लड़ाई में उन्हें कई बार जेल भी जाना पड़ा लेकिन वह कभी पीछे नहीं हटी. अंततः भारत के लिए वह सुनहरा दिन भी आया जिसकी लोगों को वर्षों से प्रतीक्षा थी.
भारत स्वतंत्र हुआ और श्रीमती सरोजिनी नायडू को उत्तर प्रदेश के राज्यपाल पद का भार सौंपा गया. उत्तरदायित्व कि इतने उच्च पद पर आसीन होने वाली ये भारत की प्रथम महिला थी. उनके कार्यकाल में उत्तर प्रदेश के सांस्कृतिक जीवन में उत्साह दिखाई दिया.

स्वतंत्रतावीर किटटूर रानी चेन्नम्मा

रानी चेनम्मा भारत के कर्नाटक के कित्तूर राज्य की रानी थी. सन् 1824 में उन्होने हड़प नीति (डॉक्ट्रिन ऑफ लेप्स) के विरुद्ध अंग्रेजों से सशस्त्र संघर्ष किया था. संघर्ष में वह वीरगति को प्राप्त हुई. भारत में उन्हें भारत की स्वतंत्रता के लिये संघर्ष करने वाले सबसे पहले शासकों में उनका नाम लिया जाता है. रानी चेनम्मा के साहस एवं उनकी वीरता के कारण देश के विभिन्न हिस्सों खासकर कर्नाटक में उन्हें विशेष सम्मान हासिल है और उनका नाम आदर के साथ लिया जाता है. झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के संघर्ष के पहले ही रानी चेनम्मा ने युद्ध में अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए थे. हालांकि उन्हें युद्ध में कामयाबी नहीं मिली और उन्हें कैद कर लिया गया. अंग्रेजों के कैद में ही रानी चेनम्मा का निधन हो गया.

स्वतंत्रतावीर तारा रानी

तारा रानी

तारा रानी का जन्म पटना के पास सारण में हुआ था. साधारण परिवार में पली-बढ़ी तारा का विवाह छोटी उम्र में ही फुलेंदु बाबू से कर दिया गया। फुलेंदु बाबू स्वयं देशप्रेमी और स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थ.

तारा रानी के समय स्त्रियों को खास बुनियादी अधिकार तक प्राप्त नहीं थे. वे घर की चाहरदीवारी में रहना और रखा जाना पसंद भी करती थीं. ऐसे माहौल में भी तारा रानी महात्मा गांधी के आह्वान पर आजादी की लड़ाई में भाग लेने निकल पड़ीं. 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन चल रहा था. वे प्रदर्शन के लिए बढ़-चढ़कर भाग ले रही थीं, इसके लिए वे महिलाओं को प्रेरित भी कर रही थीं कि वे घर से बाहर निकल आंदोलन में भाग लें.

इस दौरान तारा और उनके पति फुलेंदु बाबू ने एक प्रदर्शन का आयोजन करने की ठानी. इसके लिए आम लोगों को प्रेरित किया जाने लगा। लोगों को नियत दिन एकत्र करके तारा और फुलेंदु बाबू ने सिवान पुलिस स्टेशन तक मार्च करने का निर्णय लिया. उनका उद्देश्य पुलिस स्टेशन की छत पर तिरंगा फहराकर अंग्रेजों यह बताना था कि भारत अखंड है. इस जुलूस का नेतृत्व तारा और फुलेंदु बाबू के हाथ में था. उनके ऐसे इरादे भांपकर पुलिस ने प्रदर्शनकारियों को हरसंभव रोकने की पूरी कोशिश की. प्रदर्शनकारियों को बलपूर्वक रोकने की कोशिश के बाद उन पर लाठीचार्ज किया गया. पर जब पुलिस की लाठी भी उन्हें रोकने में सफल नहीं हुई, तो गोली चलाने का निर्देश दे दिया गया.

तभी एक गोली तारा के पति फुलेंदु बाबू को लग गई. वे तत्काल तारा के देखते ही देखते जमीन पर गिर गए। इस क्षण कोई भी सोच सकता था कि अपने पति को गोली लगते देख तारा प्रदर्शन करना छोड़ अपने पति को संभालने जातीं, पर तारा ने वह कदम उठाया जो एक देशप्रेमी ही कर सकता है. अपने पति की सहायता करने के बजाय वे मार्च को लेकर आगे बढ़ती रहीं. वे पुलिस स्टेशन की छत पर तिरंगा फहरा कर ही मानीं. बाद वे पति के पास लौटीं, घायल पति ने उनके सामने दम तोड़ दिया.

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