जस्टिस पारदीवाला ने कहा ”भारत को परिपक्व और सुविज्ञ लोकतंत्र के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता”, सोशल मीडिया को देश में अनिवार्य रूप से विनियमित करने की आवश्यकता-

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जस्टिस जे.बी. पारदीवाला की एक टिप्पणी पर साल 2015 में 58 सदस्यों ने राज्यसभा के तत्कालीन सभापति और उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी से जस्टिस पारदीवाला के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया शुरू करने की मांग की थी।

जस्टिस जे.बी. पारदीवाला इसी वर्ष 2022 को मई के महीने में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के रूप में शपथ ली। जे.बी. पारदीवाला इससे पहले गुजरात हाई कोर्ट के न्यायाधीश थे। बतौर जज उनकी पहले भी कुछ टिप्पणियां ऐसी थी जिसकी काफी चर्चा हुई। या यूं कहें कि आप को ऐसी टिप्पणी करके चर्चा में बने रहने का शौक है। कोविड काल के दौरान की गई टिप्पणी उनमें से एक है। वहीं आरक्षण को लेकर की गई एक टिप्पणी पर साल 2015 में 58 सदस्यों ने राज्यसभा के तत्कालीन सभापति और उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी से जस्टिस पारदीवाला के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया शुरू करने की मांग की थी।

उच्चतम न्यायालय के जस्टिस जे. बी. पारदीवाला ने सोशल मीडिया पर न्यायाधीशों पर ‘व्यक्तिगत, एजेंडा संचालित हमलों’ के लिए ‘लक्ष्मण रेखा’ पार करने की प्रवृत्ति को ‘खतरनाक’ करार देते हुए रविवार को कहा कि देश में संविधान के तहत कानून के शासन को बनाए रखने के लिए डिजिटल और सोशल मीडिया को अनिवार्य रूप से विनियमित किया जाना जरूरी है।

जस्टिस पारदीवाला ने यहां एक कार्यक्रम में यह टिप्पणी की। उनका संदर्भ पैगंबर मोहम्मद के खिलाफ भाजपा की निलंबित नेता नुपुर शर्मा की विवादास्पद टिप्पणियों को लेकर अवकाशकालीन पीठ की कड़ी मौखिक टिप्पणियों पर हुए हंगामे से था।

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भारतीय लोकतंत्र अपरिपक्व-

इस खंडपीठ में जस्टिस पारदीवाला वाला भी शामिल थे। शीर्ष अदालत ने कहा था कि उनकी ‘बेलगाम जुबान’ ने ‘पूरे देश को आग में झोंक दिया है” और उन्हें माफी मांगनी चाहिए। पीठ की इन टिप्पणियों ने डिजिटल और सोशल मीडिया सहित विभिन्न प्लेटफॉर्म पर एक बहस छेड़ दी और इसी क्रम में न्यायाधीशों के खिलाफ कुछ अभद्र टिप्पणियां की गई हैं। जस्टिस पारदीवाला ने कहा, ”भारत को परिपक्व और सुविज्ञ लोकतंत्र के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है, ऐसे में सोशल और डिजिटल मीडिया का पूरी तरह से कानूनी और संवैधानिक मुद्दों के राजनीतिकरण के लिए इस्तेमाल किया जाता है।”

एक कार्यक्रम के दौरान कही ये बात-

उन्होंने कहा कि डिजिटल मीडिया द्वारा किसी मामले का ट्रायल न्याय व्यवस्था में अनुचित हस्तक्षेप है। हाल ही में शीर्ष अदालत में पदोन्नत हुए न्यायाधीश ने कहा, ”लक्ष्मण रेखा को हर बार पार करना, यह विशेष रूप से अधिक चिंताजनक है।” जस्टिस पारदीवाला डॉ. राम मनोहर लोहिया नेशनल लॉ यूनिर्विसटी, लखनऊ और नेशनल लॉ यूनिर्विसटी, ओडिशा द्वारा आयोजित दूसरी एचआर खन्ना स्मृति राष्ट्रीय संगोष्ठी के साथ-साथ नेशनल लॉ यूनिर्विसटीज (कैन फाउंडेशन) के पूर्व छात्रों के परिसंघ को संबोधित कर रहे थे।

डिजिटल और सोशल मीडिया को देश में अनिवार्य रूप से विनियमित करने की आवश्यकता

कैन फाउंडेशन के कार्यक्रम में उन्होंने कहा, ‘हमारे संविधान के तहत कानून के शासन को बनाए रखने के लिए डिजिटल और सोशल मीडिया Digital & Social Media को देश में अनिवार्य रूप से विनियमित करने की आवश्यकता है।”

जस्टिस पारदीवाला ने कहा, ”निर्णयों को लेकर हमारे न्यायाधीशों पर किए गए हमलों से एक खतरनाक परिदृश्य पैदा होगा, जहां न्यायाधीशों का ध्यान इस बात पर अधिक होगा कि मीडिया क्या सोचता है, बनिस्पत इस बात पर कि कानून वास्तव में क्या कहता है। यह अदालतों के सम्मान की पवित्रता की अनदेखी करते हुए कानून के शासन को ताक पर रखता है।” डिजिटल और सोशल मीडिया के बारे में उन्होंने कहा कि (मीडिया के) इन वर्गों के पास केवल आधा सच होता है और वे (इसके आधार पर ही) न्यायिक प्रक्रिया की समीक्षा शुरू कर देते हैं।

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उन्होंने कहा कि वे न्यायिक अनुशासन की अवधारणा, बाध्यकारी मिसालों और न्यायिक विवेक की अंर्तिनहित सीमाओं से भी अवगत नहीं हैं।

जस्टिस पारदीवाला ने कहा, ‘सोशल और डिजिटल मीडिया आजकल उनके निर्णयों के रचनात्मक आलोचनात्मक मूल्यांकन के बजाय मुख्य रूप से न्यायाधीशों के खिलाफ व्यक्तिगत राय व्यक्त करते हैं। यह न्यायिक संस्थानों को नुकसान पहुंचा रहा है और इसकी गरिमा को कम कर रहा है।” उन्होंने कहा कि न्यायाधीशों को सोशल मीडिया चर्चा में भाग नहीं लेना चाहिए, क्योंकि न्यायाधीश कभी अपनी जिह्वा से नहीं, बल्कि अपने निर्णयों के जरिये बोलते हैं।

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