सर्वोच्च न्यायालय ने “द चीफ मैनेजर, सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया एवं अन्य बनाम एडी ब्यूरो एडवरटाइजिंग प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य” (2025 INSC 288, दिनांक 28 फरवरी 2025) के मामले में यह स्पष्ट किया कि क्या एक वाणिज्यिक उद्देश्य से लिया गया परियोजना ऋण उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 (“अधिनियम”) के तहत “उपभोक्ता” की परिभाषा में आता है? यह विवाद तब उत्पन्न हुआ जब राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग (NCDRC) ने एडी ब्यूरो एडवरटाइजिंग प्राइवेट लिमिटेड (“एडी ब्यूरो”) द्वारा दायर शिकायत पर अधिकार क्षेत्र ग्रहण किया और सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया को सेवा में कमी के लिए मुआवजा देने का निर्देश दिया।
एनसीडीआरसी का निर्णय और सुप्रीम कोर्ट में अपील
एनसीडीआरसी ने एडी ब्यूरो के पक्ष में फैसला सुनाया और 75 लाख रुपये का मुआवजा देने के साथ यह प्रमाण पत्र जारी करने का निर्देश दिया कि कंपनी पर कोई बकाया नहीं है। इस फैसले को चुनौती देते हुए सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया के अधिकारियों ने तर्क दिया कि यह ऋण पूरी तरह वाणिज्यिक था और उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के दायरे से बाहर है।
सुप्रीम कोर्ट ने इस तर्क को स्वीकार करते हुए कहा कि यदि किसी सेवा का प्रमुख उद्देश्य (dominant purpose) लाभ कमाना या व्यावसायिक गतिविधियों का विस्तार करना है, तो वह “उपभोक्ता” की श्रेणी में नहीं आएगा। इस आधार पर, सर्वोच्च न्यायालय ने एनसीडीआरसी के आदेश को अधिकार क्षेत्र की कमी (lack of jurisdiction) के आधार पर रद्द कर दिया।
निर्णय का सारांश
पीठ: न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया एवं न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन
यह मामला एडी ब्यूरो, जो एक ब्रांडिंग और विज्ञापन क्षेत्र की कंपनी है, द्वारा दायर शिकायत से उत्पन्न हुआ था। कंपनी ने आरोप लगाया था कि सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया ने उसे भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) के समक्ष “डिफॉल्टर” घोषित कर दिया, जिससे उसकी प्रतिष्ठा और वित्तीय स्थिति को नुकसान हुआ। एनसीडीआरसी ने इसे “सेवा में कमी” (Deficiency in Service) मानते हुए कंपनी के पक्ष में फैसला सुनाया।
बैंक का पक्ष और सुप्रीम कोर्ट का फैसला
सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की और कहा कि:
- ऋण का उद्देश्य पूरी तरह से व्यावसायिक था, क्योंकि यह एक फिल्म के पोस्ट-प्रोडक्शन के लिए वित्तपोषण हेतु लिया गया था।
- यह एक “बिजनेस-टू-बिजनेस” (B2B) लेन-देन था, न कि व्यक्तिगत उपभोक्ता सेवा।
- इसलिए, यह उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के तहत नहीं आता है।
सुप्रीम कोर्ट ने बैंक के इस तर्क को स्वीकार करते हुए स्पष्ट किया कि यदि ऋण का प्रमुख उद्देश्य व्यावसायिक लाभ कमाना है, तो संबंधित पक्ष उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत नहीं आएगा।
विधिक विश्लेषण एवं प्रमुख नज़ीरें (Precedents)
सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कई पूर्ववर्ती मामलों (precedents) को उद्धृत किया, जिनमें प्रमुख हैं:
- National Insurance Co. Ltd. बनाम हर्सोलिया मोटर्स (2023) 8 SCC 362
- न्यायालय ने कहा कि “व्यावसायिक उद्देश्य” का अर्थ है कोई ऐसा लेन-देन जिससे सीधे लाभ अर्जित हो या व्यावसायिक गतिविधि को बढ़ावा मिले। यदि कोई सेवा मुख्य रूप से व्यापार विस्तार या लाभ कमाने के लिए ली गई है, तो वह “उपभोक्ता” श्रेणी में नहीं आएगी।
- लीलावती किर्तिलाल मेहता मेडिकल ट्रस्ट बनाम यूनिक शांति डेवलपर्स (2020) 2 SCC 265
- “डोमिनेंट पर्पस टेस्ट” (Dominant Purpose Test) को परिभाषित किया गया।
- यदि किसी लेन-देन का मुख्य उद्देश्य लाभ कमाना है, तो यह उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के दायरे में नहीं आएगा।
- श्रीकांत जी. मंत्री बनाम पंजाब नेशनल बैंक (2022) 5 SCC 42
- ओवरड्राफ्ट सुविधा लेने वाले एक स्टॉकब्रोकर का मामला, जिसमें न्यायालय ने कहा कि यह एक “बिजनेस-टू-बिजनेस” लेन-देन था और उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के तहत नहीं आता।
इन मामलों के आधार पर, सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यदि कोई ऋण पूरी तरह से व्यापारिक गतिविधियों के लिए लिया गया है, तो वह उपभोक्ता फोरम के अधिकार क्षेत्र से बाहर रहेगा।
न्यायालय की कानूनी व्याख्या
सुप्रीम कोर्ट ने उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 की धारा 2(1)(d) की व्याख्या करते हुए कहा:
- यह प्रावधान उन व्यक्तियों को “उपभोक्ता” की परिभाषा से बाहर करता है जो वाणिज्यिक उद्देश्यों के लिए सेवा लेते हैं।
- हालांकि, स्वरोज़गार (livelihood) एवं व्यक्तिगत उपयोग के लिए किए गए लेन-देन इस अधिनियम के अंतर्गत आते हैं।
- “डोमिनेंट पर्पस टेस्ट” लागू करते हुए कोर्ट ने कहा कि यदि सेवा का मुख्य उद्देश्य लाभ कमाना है, तो उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम लागू नहीं होगा।
एडी ब्यूरो ने तर्क दिया कि यह ऋण “ब्रांडिंग” के लिए था, न कि सीधे मुनाफे के लिए। परंतु, सुप्रीम कोर्ट ने इस तर्क को खारिज करते हुए कहा कि ब्रांड निर्माण भी व्यावसायिक गतिविधि का हिस्सा है और अंततः मुनाफा बढ़ाने के लिए किया जाता है।
इस फैसले का प्रभाव
इस निर्णय से कई महत्वपूर्ण बिंदु स्पष्ट होते हैं:
- बड़े वाणिज्यिक ऋण उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत नहीं आएंगे।
- बैंकिंग एवं वाणिज्यिक विवादों के निपटारे के लिए उपयुक्त मंच (Debts Recovery Tribunal, सिविल न्यायालय) का चयन किया जाना चाहिए।
- उधारकर्ताओं को ऋण अनुबंधों की शर्तों को स्पष्ट रूप से समझना चाहिए, क्योंकि उपभोक्ता फोरम में शिकायत करना अब संभव नहीं होगा।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय यह स्पष्ट करता है कि जब कोई ऋण पूरी तरह से व्यावसायिक उद्देश्य से लिया जाता है, तो उधारकर्ता “उपभोक्ता” नहीं माना जाएगा। यह फैसला उन कंपनियों और व्यवसायों के लिए एक महत्वपूर्ण संदेश है जो उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के तहत शिकायत दर्ज करने की सोचते हैं।
न्यायालय ने यह भी दोहराया कि वाणिज्यिक ऋण विवादों को उचित फोरम (Debts Recovery Tribunal, सिविल कोर्ट) में ले जाया जाना चाहिए।
मुख्य संदेश:
यदि कोई सेवा या ऋण व्यक्तिगत उपयोग या स्वरोज़गार के लिए लिया गया है, तो उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम लागू होगा। लेकिन यदि ऋण मुख्य रूप से व्यावसायिक लाभ और मुनाफा कमाने के लिए लिया गया है, तो उपभोक्ता फोरम में दावा नहीं किया जा सकता।
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