इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की विलंबित प्रस्तुति पर अभियोजन का अधिकार और प्रमाणीकरण की टालमटोल—सुप्रीम कोर्ट का संतुलित दृष्टिकोण

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इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की विलंबित प्रस्तुति पर अभियोजन का अधिकार और प्रमाणीकरण की टालमटोल—सुप्रीम कोर्ट का संतुलित दृष्टिकोण

Sameer Sandhir बनाम केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर उस बहुप्रश्नित विधिक प्रश्न पर विचार किया कि क्या अभियोजन पक्ष आरोपपत्र (चार्जशीट) दायर करने के बाद और मुकदमे की सुनवाई प्रारंभ हो जाने के उपरांत भी नए साक्ष्य प्रस्तुत कर सकता है। यह विवाद उस समय उत्पन्न हुआ जब सीबीआई ने एक उच्च-प्रोफ़ाइल भ्रष्टाचार मामले में दो महत्वपूर्ण कॉम्पैक्ट डिस्क (CDs)—जिनमें टेलीफोनिक इंटरसेप्ट रिकॉर्डिंग्स थीं—मूल आरोपपत्र या अनुपूरक आरोपपत्र के साथ दाखिल नहीं कीं। जब सुनवाई के दौरान अभियोजन ने ये CDs प्रस्तुत करने का प्रयास किया, तब आरोपी (A-7, समीर संधीर) ने आपत्ति उठाई। मामला विशेष न्यायालय और दिल्ली उच्च न्यायालय से होता हुआ सुप्रीम कोर्ट पहुँचा।

प्रमुख विधिक प्रश्न:

  • क्या धारा 173(5) व 173(8) दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) के तहत अभियोजन पक्ष पहले से उपलब्ध इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य को विलंब से प्रस्तुत कर सकता है?
  • क्या यह अधिकार आरोपी के निष्पक्ष सुनवाई (fair trial) के अधिकार, विशेषकर CrPC की धारा 207 के तहत, का उल्लंघन करता है?
  • इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की प्रामाणिकता (authenticity) और धारा 65B प्रमाण-पत्र की वैधता की जांच किस चरण पर की जानी चाहिए?

निर्णय का सारांश

  • CDs दाखिल करने की अनुमति: कोर्ट ने CBI बनाम आर.एस. पाई (2002) तथा अर्जुन पंडित्राव खोतकर (2020) मामलों के आधार पर माना कि धारा 173(5) निर्देशक (directory) है, अनिवार्य (mandatory) नहीं।
  • प्रामाणिकता पर समय से पहले फैसला नहीं: दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा CDs की सत्यता पर की गई टिप्पणियाँ असमय मानी गईं; इन CDs की समानता, प्रामाणिकता, तथा धारा 65B प्रमाण-पत्र की वैधता जैसे प्रश्न ट्रायल के लिए खुले रहेंगे।
  • आरोपी के अधिकार सुरक्षित: आरोपी को CDs के संबंध में अभियोजन गवाहों को पुनः जिरह (cross-examination) के लिए बुलाने का अधिकार मिला।
  • अपील खारिज: याचिकाकर्ता कोई ऐसा विधिक त्रुटि नहीं दिखा सका जो पुनर्विचार योग्य हो; परंतु कोर्ट ने स्पष्ट किया कि CDs से जुड़े विधिक प्रश्न अब भी ट्रायल में उठाए जा सकते हैं।
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निर्णय का विश्लेषण

1 प्रमुख निर्णय और प्रभाव

  • आर.एस. पाई (2002): धारा 173(5) निर्देशक है; अभियोजन पक्ष न्यायालय की अनुमति से बाद में दस्तावेज पेश कर सकता है।
  • अर्जुन खोतकर (2020): इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की देर से प्रस्तुति की वैधानिकता की पुष्टि; केवल अनायास चूक की स्थिति में ही संभव।
  • मरियम फसीहुद्दीन (2024): नए साक्ष्य के लिए “फर्दर इन्वेस्टिगेशन” का दुरुपयोग नहीं किया जा सकता—यहाँ CDs पूर्ववर्ती रूप से जब्त थीं।
  • मनु शर्मावी.के. शशिकला मामलों में आरोपी को relied-upon दस्तावेज़ उपलब्ध कराना अनिवार्य माना गया—कोर्ट ने स्पष्ट किया कि प्रस्तुति वैध है, पर आपूर्ति भी अनिवार्य होगी।

2 विधिक तर्क

  • धारा 173(5) का प्रकृति निर्देशक: “shall” शब्द का प्रयोग साक्ष्य की प्रक्रिया को लचीला बनाए रखने के लिए निदेशात्मक रूप में व्याख्यायित किया गया।
  • विलंब बनाम पुनः जांच का अंतर: CDs चूंकि पहले ही जब्त की जा चुकी थीं और अनुपूरक रिपोर्ट में उल्लिखित थीं, अतः यह “omission” की श्रेणी में आती हैं, न कि “new material” की।
  • निष्पक्ष सुनवाई का संतुलन: आरोपी को CDs की प्रतियाँ दी गईं और जिरह की अनुमति मिली—इससे अनुच्छेद 21 के अंतर्गत मूल अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित हुई।
  • प्रामाणिकता की समयबद्धता: CDs की प्रमाणिकता और धारा 65B प्रमाण-पत्र की वैधता पर ट्रायल के समय विचार किया जाएगा, न कि दाखिले के समय।

3 संभावित प्रभाव

  • अभियोजन के लिए राहत: जाँच में हुई तकनीकी त्रुटियों को सुधारने का मार्ग प्रशस्त हुआ, विशेषकर साइबर अपराधों या डेटा-गहन मामलों में।
  • निचली अदालतों को मार्गदर्शन: दस्तावेज़ों की “प्रस्तुति” और उनकी “प्रामाणिकता” को अलग-अलग चरणों में परखा जाना चाहिए।
  • आरोपी की रणनीति: ट्रायल में प्रमाणिकता पर सवाल उठाना और गवाहों की पुनः जिरह करना—दोनों रास्ते खुले हैं।
  • डिजिटल साक्ष्य का विकास: कोर्ट ने स्पष्ट किया कि Section 65B की औपचारिकताओं की उपेक्षा नहीं की जा सकती—प्रस्तुति मात्र से प्रवेश की गारंटी नहीं मिलती।
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4. जटिल कानूनी अवधारणाओं की सरल व्याख्या

  • चार्जशीट (धारा 173 CrPC): जांच एजेंसी द्वारा दायर रिपोर्ट जिसमें आरोपितों के विरुद्ध प्रमाणिक साक्ष्य और अपराध का विवरण होता है।
  • धारा 173(5) बनाम 173(8):
    • 173(5): आरोपपत्र के साथ समस्त relied-upon दस्तावेज संलग्न करना।
    • 173(8): आगे की जांच के दौरान नए साक्ष्य संलग्न करना।
  • निर्देशात्मक (directory) बनाम अनिवार्य (mandatory): अनिवार्य प्रावधान की अवहेलना कार्य को अमान्य कर सकती है, जबकि निर्देशक प्रावधान में न्यायालय छूट दे सकता है।
  • धारा 65B प्रमाण-पत्र: इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्यों की वैधता सुनिश्चित करने हेतु अनिवार्य कानूनी प्रमाण-पत्र।
  • गवाहों की पुनः जिरह: ट्रायल के दौरान नए साक्ष्य के आलोक में न्यायालय आरोपी को यह अधिकार दे सकता है।

निष्कर्ष
समीर संधीर बनाम सीबीआई में सुप्रीम कोर्ट ने अभियोजन पक्ष की प्रक्रिया संबंधी त्रुटियों को सुधारे जाने की अनुमति देकर एक लचीला और न्यायोचित संतुलन स्थापित किया है। जहां एक ओर डिजिटल साक्ष्य के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए कोर्ट ने अभियोजन को राहत दी, वहीं आरोपी के मौलिक अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित की।

इस निर्णय से स्पष्ट होता है कि न्यायालय दस्तावेजों की प्रस्तुति और उनकी प्रवेश्यता के बीच आवश्यक अंतर को स्वीकार करता है। निचली अदालतों को इससे डिजिटल साक्ष्य के मामलों में व्यावहारिक दिशा मिलेगी और न्याय की प्रक्रिया और अधिक सुव्यवस्थित होगी।

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