न्यायालय के आदेशों की फर्जी प्रतियों का निर्माण “न्यायिक प्रक्रिया के विरुद्ध सबसे भयावह अपराध”: सुप्रीम कोर्ट
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में Shanmugam @ Lakshminarayanan बनाम मद्रास हाईकोर्ट मामले में अपने एक अहम फैसले में कहा कि,
“न्यायालय के आदेशों की फर्जी प्रति तैयार करना न केवल न्याय के प्रशासन को बाधित करता है, बल्कि यह रिकॉर्ड में जालसाजी करने की अंतर्निहित मंशा के साथ किया गया घोर अवमानना का कृत्य है।”
न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा की पीठ ने कहा कि यदि कोई व्यक्ति जानते-बूझते झूठा या भ्रामक बयान देकर न्यायालय से लाभ प्राप्त करता है, तो वह न्यायिक प्रक्रिया में स्पष्ट हस्तक्षेप माना जाएगा।
मामले की पृष्ठभूमि:
मद्रास हाईकोर्ट द्वारा पारित आदेश के खिलाफ दायर अपील को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अवमानना के आरोप में दोषसिद्धि को बरकरार रखा।
मामला तमिलनाडु के तिरुचेंगोडे स्थित डिस्ट्रिक्ट मुंसिफ कोर्ट द्वारा J.K.K. रंगम्मल चैरिटेबल ट्रस्ट के पक्ष में किराए की बकाया राशि व कब्जा वापस पाने के आदेश से शुरू हुआ। जब आदेश के निष्पादन की कार्यवाही शुरू हुई, तब प्रतिवादियों ने हाईकोर्ट की अंतरिम रोक के आदेश प्रस्तुत किए, जो बाद में फर्जी पाए गए।
जांच में सामने आया कि हाईकोर्ट के आदेशों की प्रतियां डिजिटल केंद्र पर तैयार की गई थीं, जिनमें जज की जाली हस्ताक्षर और नाम का दुरुपयोग किया गया था। इसके बाद एफआईआर दर्ज की गई और अवमानना की कार्यवाही शुरू हुई।
हाईकोर्ट का फैसला:
हाईकोर्ट ने विस्तृत सुनवाई के बाद तीन अवमाननाकारियों को छह माह के साधारण कारावास की सजा सुनाई थी। दो अन्य अभियुक्तों की मृत्यु के कारण उनके खिलाफ कार्यवाही समाप्त कर दी गई।
अपीलकर्ताओं की दलीलें:
अपीलकर्ताओं ने दलील दी कि अवमानना कार्यवाही Contempt of Courts Act, 1971 की धारा 20 के अंतर्गत समय सीमा से बाहर की गई है और यह कार्यवाही प्रक्रियात्मक रूप से त्रुटिपूर्ण है क्योंकि उनके खिलाफ औपचारिक आरोप तय नहीं किए गए थे।
उन्होंने यह भी कहा कि अपराधिक अवमानना के मामलों में “बियॉन्ड रीजनेबल डाउट” का मानक लागू होता है, जिसे इस मामले में पूरा नहीं किया गया।
प्रतिवादी की दलीलें:
मद्रास हाईकोर्ट और डिक्री धारक के वकीलों ने कहा कि फर्जी आदेशों का निर्माण और न्यायालय को प्रस्तुत करना न्याय के प्रशासन में स्पष्ट हस्तक्षेप है। उन्होंने यह भी कहा कि धारा 20 की समय सीमा स्वत: संज्ञान (suo motu) कार्यवाहियों पर लागू नहीं होती, और दोष सिद्धि ठोस साक्ष्यों पर आधारित है।
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी:
पीठ ने पाया कि यह कोई संदेहात्मक मामला नहीं, बल्कि पूरी तरह सिद्ध अपराध है। अदालत ने कहा कि:
- 18 अप्रैल 2018 से घटनाक्रम की श्रृंखला स्पष्ट रूप से फर्जी आदेशों के निर्माण और प्रयोग की ओर इशारा करती है।
- आरोपियों में से एक ने कोर्ट अमीन के समक्ष फर्जी आदेश प्रस्तुत करने की बात स्वीकार की है।
- CBCID की रिपोर्ट में प्रस्तुत की गई रिकॉर्डेड बातचीत में यह साफ है कि तीनों अभियुक्तों ने योजना बनाकर फर्जी आदेश तैयार कर प्रस्तुत किए।
पीठ ने स्पष्ट किया:
“यदि कोई व्यक्ति न्यायालय के ऐसे आदेश का लाभ उठाता है, जिसे वह जानता है कि वह गलत है, तो केवल इसका उपयोग ही उसे अवमानना का दोषी ठहराने के लिए पर्याप्त है — चाहे उसने आदेश खुद तैयार किया हो या नहीं।”
अंतिम निर्णय:
हालाँकि कोर्ट ने हाईकोर्ट द्वारा दोष सिद्धि को सही ठहराया, लेकिन छह महीने की सजा को कठोर मानते हुए उसे घटाकर एक माह का साधारण कारावास कर दिया।
मामले का सारांश:
- मामला: Shanmugam @ Lakshminarayanan बनाम मद्रास हाईकोर्ट
- अपील संख्या: क्रिमिनल अपील संख्या 5245/2024
- निर्णय तिथि: अप्रैल 2025
- पीठ: न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा
- फैसला: दोष सिद्धि बरकरार, सजा घटाकर एक माह का कारावास
यह निर्णय न्यायपालिका की गरिमा की रक्षा हेतु एक कड़ा सन्देश देता है कि न्यायालय की प्रक्रिया के साथ छेड़छाड़ या फर्जीवाड़ा न केवल अस्वीकार्य है, बल्कि उसका गंभीर दंडात्मक परिणाम भी होगा।
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