शीर्ष अदालत ने कहा कि अदालतों को विलंब माफी के आवेदनों से निपटने के दौरान ‘कठोर तकनीकी दृष्टिकोण’ के बजाय न्याय उन्मुख दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। इस मामले में ट्रायल कोर्ट ने एक अक्टूबर, 2005 को मुकदमे का फैसला सुनाया गया। प्रतिवादियों ने 52 दिन की देरी माफ करने की मांग करते हुए एक आवेदन के साथ पहली अपील दायर की।
क्या था मामला –
निचली अपीलीय अदालत ने 08.10.2010 को परिसीमा के आधार पर अपील को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि देरी को ठीक से समझाया नहीं गया है। 16.04.2015 को हाईकोर्ट ने दूसरी अपील को इस आधार पर खारिज कर दिया कि विचार के लिए कानून का कोई प्रश्न नहीं है।
अपील में न्यायमूर्ति ए.एस. बोपन्ना और न्यायमूर्ति बेला एम. त्रिवेदी की पीठ ने कहा कि अपील दायर करने में केवल 52 दिनों की देरी हुई और अपीलकर्ताओं द्वारा उठाया गया मुद्दा यह था कि निर्णय उनकी जानकारी में नहीं था।
सुप्रीम कोर्ट पीठ ने कलेक्टर, भूमि अधिग्रहण, अनंतनाग और अन्य बनाम एमएसटी. कातिजी और अन्य (1987) 2 एससीसी 107, का जिक्र करते हुए कहा, “न्याय उन्मुख दृष्टिकोण को सभी अदालतों तक पहुंचाने के इरादे को व्यक्त करने वाला उपरोक्त निर्णय लगभग तीन दशक पहले दिया गया था, लेकिन दुर्भाग्य से मौजूदा मामला व्यापक असंवेदनशील दृष्टिकोण को दर्शाता है, जिसने संबंधित वादियों की पीड़ा को जारी रखने के अलावा अनावश्यक रूप से बोझ भी बढ़ा दिया है।”
उच्चतम न्यायलय ने कहा की यदि केवल संबंधित न्यायालय कठोर तकनीकी दृष्टिकोण के बजाय न्याय उन्मुख दृष्टिकोण के प्रति संवेदनशील होता, पार्टियों के बीच मुकदमेबाजी शायद उनके प्रतिद्वंद्वी विवाद के गुण-दोष पर निर्णय के बाद बहुत पहले ही समाप्त हो गई होती।
अस्तु अदालत ने कहा कि निचली अपीलीय अदालत ने देरी के आधार पर अपील खारिज कर दी, जबकि देरी अत्यधिक नहीं थी। यह मानते हुए कि यह उचित नहीं था, पीठ ने अपील को निचली अपीलीय अदालत की फाइल में बहाल कर दिया।
केस टाइटल – रहीम शाह और अन्य बनाम गोविंद सिंह और अन्य
केस नंबर – सिविल अपील नो.4628 ऑफ़ 2023