Gyanwapi Case: शीर्ष न्यायालय से 1936 के फैसले का हवाला दे मांगा पूजा का अधिकार, इस्लामी कानूनों के अनुसार भी ज्ञानवापी मस्जिद नहीं-

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शीर्ष न्यायालय Supreme Court के निर्देश पर ज्ञानवापी केस Gyanvapi Case में वाराणसी डिस्ट्रिक्ट कोर्ट Varanasi District Court में सुनवाई शुरू हो गई है। सोमवार को सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गई जिसमे ज्ञानवापी परिसर में नियमित पूजा करने का अधिकार मांगा गया है। प्रस्तुत याचिका में कहा गया है कि इस्लाम धर्म के अनुसार भी ज्ञानवापी को मस्जिद नहीं कहा जा सकता।

दायर याचिका में Places of worship act 1991 प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट 1991 उपासना स्थल कानून 1991 को भी ज्ञानवापी मामले में लागू न होने की बात कही गई है। इस कानून को मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा हिंदू धर्मस्थलों पर किए गए अत्याचार को कानूनी वैधता प्रदान करने वाला भी बताया गया है। कानून के विशेषज्ञों के मुताबिक, यदि सर्वोच्च न्यायालय Supreme Court इस बात से सहमत होता है, तो यह Places of worship act 1991 प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट 1991 उपासना स्थल कानून 1991 की दोबारा समीक्षा किए जाने का आधार भी बन सकता है।

उच्चतम न्यायलय के अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय ने एक याचिका दायर कर न्यायालय से अपील की है कि संविधान में प्रदत्त अधिकारों के अनुसार ज्ञानवापी परिसर Gyanvapi Promises में पूजा करने का उनका अधिकार छीना नहीं जा सकता, इसलिए उक्त परिसर में नियमित पूजा करने की अनुमति दी जानी चाहिए।

सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय ने बताया है कि वे प्रयाग के निवासी हैं और बाल्यकाल से ही काशी के ज्ञानवापी परिसर में पूजा करते रहे हैं। बीच में सरकारी प्रतिबंधों के कारण उनका यह अधिकार बाधित हो गया था, लेकिन अब उनके इस अधिकार को पुनर्स्थापित किया जाना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय के वकील अश्विनी उपाध्याय ने मिडिया बात करते हुए कहा कि याचिका में कहा गया है कि Places of worship act 1991 उपासना स्थल कानून, 1991 केवल उन्हीं धार्मिक स्थलों पर लागू हो सकता है, जिसे इस्लामिक रीति-रिवाजों से बनाया गया हो। लेकिन चूंकि इस्लामी कानूनों के अनुसार किसी दूसरे धर्मस्थल को तोड़कर कोई मस्जिद नहीं बनाई जा सकती, ज्ञानवापी को मस्जिद नहीं कहा जा सकता। तर्क दिया गया है कि इस आधार पर ज्ञानवापी एक मस्जिद नहीं है और उस पर उपासना स्थल कानून लागू नहीं होता।

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ज्ञानवापी का उपासना स्थल कानून से संरक्षण नहीं-

अश्विनी उपाध्याय के मुताबिक, संविधान में हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध धर्म के पूजा स्थलों को सुरक्षित रखने, इन धर्मों के अनुयायियों के धार्मिक अधिकारों का संरक्षण पहले से ही स्थापित हिंदू कानूनों के अनुसार किया जाता है। इससे इतर कानून बनाना संविधान के अनुच्छेद 13 का उल्लंघन है, लिहाजा कहा जा सकता है कि इन धर्मों के पूजा स्थलों पर उपासना स्थल कानून 1991 लागू नहीं होता। याचिका के मुताबिक उपासना स्थल कानून केवल उन्हीं इस्लामिक धार्मिक स्थलों पर लागू होता है, जो इन धर्मों से संबंधित न रहे हों और जिन्हें किसी व्यक्ति द्वारा निजी अधिकारों के तहत बनाया गया हो। यदि कोई मस्जिद इस्लामिक कानूनों का उल्लंघन करके बनाई गई हो, तो उस पर उपासना स्थल कानून 1991 लागू नहीं होता। लिहाजा कहा गया है कि ज्ञानवापी परिसर को भी उपासना स्थल कानून के अंतर्गत संरक्षण प्रदान नहीं किया जा सकता। याचिका में कहा गया है कि उपासना स्थल कानून 1991 पूर्व में हिंदुओं के पूजा स्थलों के तोड़ने के कार्य को वैधानिक आधार प्रदान करता है, यह संविधान की धारा 372 (ए) की भावना का उल्लंघन है। लिहाजा इसे उचित नहीं कहा जा सकता।

क्या कहता मस्जिद के बारे में इस्लाम?

इस्लामिक मामलों के जानकार डॉ. फैयाज अहमद फैजी ने मिडिया से कहा कि इस्लाम में किसी दूसरे धर्म के पूजा स्थल को तोड़कर मस्जिद बनाने को गैर इस्लामिक माना गया है। कहा जाता है कि ऐसे किसी स्थल पर नमाज पढ़ने से अल्लाह वह नमाज कबूल नहीं करता। नमाज पढ़ने के लिए भूमि को पूरी तरह पवित्र होना चाहिए। इस्लामिक कानूनों के अनुसार मस्जिद केवल कुंवारी भूमि (जो भूमि किसी दूसरे धर्म की न हो) पर ही बनाया जा सकता है। यदि यह जमीन किसी व्यक्ति या संस्था से जुड़ी हुई है, तो मस्जिद निर्माण के लिए इसे प्राप्त करने से पहले इसका मूल्य चुकाया जाना चाहिए। (जैसे कि ताजमहल के बारे में कहा जाता है कि शाहजहां ने इस पर मकबरा बनाने के लिए जयपुर राजघराने को इसका मूल्य चुकाया था)। यहां यह ध्यान रखने योग्य बात है कि कभी रोजा खोलने के लिए मुसलमान मंदिर या गुरुद्वारे में भी नमाज पढ़ लेते हैं, लेकिन इस नमाज को स्वीकार किया गया है। क्योंकि इस नमाज को आपसी सहमति से और बिना किसी का दिल दुखाए अदा किया जा रहा है, इसलिए यह इस्लामिक है। लेकिन किसी की भूमि या पूजा स्थल को जोर-जबरदस्ती से हासिल कर उस पर नमाज अदा करना गैर इस्लामिक है।

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1936 का यह फैसला भी हिन्दुओं के पक्ष में –

1936 में दीन मुहम्मद नाम के व्यक्ति ने वाराणसी कोर्ट में एक वाद दायर कर ज्ञानवापी परिसर को वक्फ बोर्ड की संपत्ति बताने की कोशिश की थी। इस मामले में सौ से ज्यादा लोगों की गवाही भी की गई थी। लेकिन किसी भी गवाह ने इस परिसर को वक्फ बोर्ड की संपत्ति मानने के पक्ष में गवाही नहीं दी थी। लिहाजा अदालत ने इस्लामिक कानूनों, उपलब्ध गवाहों के आधार पर ज्ञानवापी को वक्फ बोर्ड की संपत्ति मानने से इनकार कर दिया था। माना जा रहा है कि बनारस कोर्ट का वह फैसला इस बार भी मुस्लिम पक्ष के खिलाफ जा सकता है। 1936 के हलफनामे में यह भी कहा गया है कि इतिहासकारों ने पुष्टि की है कि औरंगजेब ने नौ अप्रैल, 1669 को एक आदेश जारी किया था, जिसमें उसके प्रशासन को वाराणसी में भगवान आदि विश्वेश्वर (काशी विश्वनाथ मंदिर) के मंदिर को ध्वस्त करने का निर्देश दिया गया था।

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