हाई कोर्ट ने काजी को कहा कि आप अदालत नहीं हैं और नहीं दे सकते तलाक़ पर फैसला-

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Madhya Pradesh High Court एमपी हाई कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण में कहा है कि काजी अदालतों की तरह आदेश जारी नहीं कर सकते। एक मुस्लिम दंपति को काजी द्वारा तलाक का फरमान सुनाने को लेकर दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए हाई कोर्ट ने कहा कि ऐसे आदेश की कोई कानूनी मान्यता नहीं है।

हालांकि, एक विवाद को सुलझाने के लिए एक काजी मुस्लिम समुदाय के व्यक्तियों के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभा सकता है। हाईकोर्ट की इंदौर बेंच के जस्टिस विवेक रूस और जस्टिस राजेंद्र कुमार वर्मा की खंडपीठ ने 12 जनवरी को एक जनहित याचिका का निपटारा करते हुए यह टिप्पणी की।

याचिकाकर्ता, एक मुस्लिम व्यक्ति, ने 2018 में हाई कोर्ट का रुख किया था, जो एक इस्लामी संस्थान, इंदौर स्थित दारुल-काजा छावानी के मुख्य काजी के आदेश को चुनौती देता था।

मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के इंदौर बेंच ने कहा है कि मुस्लिम धर्मगुरु काजी, अदालत (Qazi can’t be Court) की तरह फैसले नहीं सुना सकते। विवादों को सुलझाने के लिए वे मध्यस्थ की भूमिका निभा सकते हैं, लेकिन आदेश पारित नहीं कर सकते। काजी द्वारा तलाक का फरमान जारी करने संबंधी एक यााचिका पर सुनवाई करते हुए हाई कोर्ट ने मंगलवार को यह फैसला दिया।

हाई कोर्ट (Indore High Court) ने स्पष्ट कहा कि मुस्लिम समुदाय के लोगों के आपसी विवाद सुलझाने के लिए कोई काजी एक मध्यस्थ की भूमिका निभा सकता है, लेकिन वह किसी मसले में अदालत की तरह न्याय का निर्णय करके “डिक्री” सरीखा आदेश पारित नहीं कर सकता।

उच्च न्यायालय इंदौर बेंच के न्यायमूर्ति विवेक रुसिया और न्यायमूर्ति राजेंद्र कुमार वर्मा ने शहर के एक व्यक्ति की दायर जनहित याचिका का निपटारा करते हुए यह टिप्पणी की। मुस्लिम समुदाय के इस व्यक्ति ने वर्ष 2018 में याचिका दायर कर इंदौर के दारुल-कजा छावनी के मुख्य काजी के आदेश को कानूनी चुनौती दी थी।

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पेटिशन में कहा गया था कि मुख्य काजी ने उसकी पत्नी की ‘खुला’ (किसी मुस्लिम महिला द्वारा अपने शौहर से तलाक मांगे जाने की इस्लामी प्रक्रिया) के लिए दायर अर्जी पर सुनवाई करते हुए तलाक का फरमान सुना दिया था।

कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि काजी अदालत की तरह डिक्री (न्यायालय का आदेश) नहीं जारी कर सकता।

सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले Vishwa Lochan Madan vs. Union of India and others reported in (2014) 7 SCC 707 का हवाला देते हुए अदालत ने कहा कि काजी के ऐसे किसी आदेश की कोई कानूनी मान्यता (Qazi order not legal) नहीं है और ऐसे आदेश को ‘एकदम नजरअंदाज किया जा सकता है’।

हाई कोर्ट ने अपने फैसले में स्पष्ट किया कि उसने याचिकाकर्ता और उसकी पत्नी के बीच के वैवाहिक विवाद को लेकर कोई राय नहीं जताई है। इस मामले में दोनों पक्ष देश के कानून के तहत इसका समाधान पाने को स्वतंत्र हैं।

केस टाइटल – आदिल पुत्र मो.आरिफ पलवल बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया और अन्य

केस नंबर – WRIT PETITION NO.24741/2018

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