सुप्रीम कोर्ट: संविधान पीठ का महत्वपूर्ण निर्णय, अग्रिम जमानत में तय समयसीमा जरूरी नहीं-

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जस्टिस अरुण मिश्रा, जस्टिस इंदिरा बनर्जी, जस्टिस विनीत सरन, जस्टिस एम आर शाह और जस्टिस एस रविंद्र भट की संविधान पीठ ने कहा कि अग्रिम जमानत सामान्य तौर पर तब तक समाप्त नहीं किए जाने की जरूरत है जब तक अदालत द्वारा उसे समन किया जाए या आरोप तय किए जाएं. हालांकि यह अदालत पर निर्भर है कि ‘विशेष या खास’ मामलों में इसकी अवधि तय करे.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एक व्यक्ति को दी गई अग्रिम जमानत जरूरी नहीं कि एक तय अवधि के लिए सीमित हो और यह मुकदमे की सुनवाई पूरी होने तक जारी रह सकती है.

न्यायालय ने कहा कि हालांकि यह अदालत पर निर्भर है कि वह ‘विशेष या खास’ मामलों में इसकी अवधि तय करे.

न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने कहा कि अग्रिम जमानत सामान्य तौर पर तब तक समाप्त नहीं किए जाने की जरूरत है जब तक अदालत द्वारा उसे समन किया जाए या आरोप तय किए जाएं. उन्होंने कहा कि यह (अग्रिम जमानत) सुनवाई पूरी होने तक जारी रह सकती है.

इस सुनवाई में कानून के इन सवालों पर संविधान पीठ ने विचार किया. गुरबख्श सिंह सिब्बिया और अन्य बनाम पंजाब राज्य, सिद्धराम सतलिंगप्पा म्हात्रे बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य के मामलों में फैसला था कि अग्रिम जमानत सीमित अवधि के लिए नहीं होनी चाहिए जबकि सलाउद्दीन अब्दुलसमद शेख बनाम महाराष्ट्र राज्य जैसे मामले अग्रिम जमानत की सीमित अवधि के लिए कहते हैं.

अग्रिम जमानत के तहत मिला संरक्षण हमेशा समयसीमा का नहीं होता

न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा, न्यायमूर्ति इन्दिरा बनर्जी, न्यायमूर्ति विनीत सरन, न्यायमूर्ति एमआर शाह और न्यायमूर्ति एस रविन्द्र भट्ट की पीठ ने अग्रिम जमानत की समयसीमा के बारे में संविधान पीठ को भेजे गए कानूनी प्रश्नों का जवाब देते हुए अपने फैसले में न्यायालय ने कहा, ‘…यह अदालत मानती है कि किसी व्यक्ति को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 438 (गिरफ्तारी की आशंका वाले व्यक्ति को जमानत देने के निर्देश से जुड़ी धारा) के तहत दिया गया संरक्षण निश्चित रूप से एक तय अवधि तक सीमित नहीं होना चाहिए. बिना किसी समय की बंदिश के इसका लाभ आरोपी को मिलना चाहिए.’

अग्रिम जमानत की समय सीमा ट्रायल समाप्त होने तक जारी रह सकती

कोर्ट ने कहा कि अग्रिम जमानत की समय सीमा सामान्यतौर पर अभियुक्त को अदालत से सम्मन जारी होने या आरोप तय होने पर खत्म नहीं होती बल्कि यह ट्रायल समाप्त होने तक जारी रह सकती है. हालांकि कोर्ट ने साफ किया कि अगर मामले में कुछ विशिष्ट परिस्थितियां और जरूरत लगे तो अदालत को अग्रिम जमानत की समयसीमा तय करने का अधिकार है और अदालत ऐसा कर सकती है.

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कोर्ट अग्रिम जमानत में समयसीमा भी तय कर सकता है

पीठ ने कहा कि दंड प्रक्रिया संहिता की के प्रावधानों के तहत सामान्य स्थिति में एक व्यक्ति को अग्रिम जमानत दी जाती है और अगर कोई विशेष परिस्थिति या कारक इस अपराध के संदर्भ में सामने आते हैं तो यह अदालत पर निर्भर करता है कि वह उचित शर्त लगा सकती है.

अग्रिम जमानत में समयसीमा के बारे में पांच जजों की पीठ ने दी नई व्यवस्था

अग्रिम जमानत में समयसीमा के बारे में सुप्रीम कोर्ट के दो पूर्व फैसलों में दी गई व्यवस्था में अंतर होने पर तीन न्यायाधीशों की पीठ ने यह कानूनी मुद्दा विचार के लिए पांच न्यायाधीशों की बड़ी पीठ को भेजा था जिसका जवाब देते हुए कोर्ट ने यह व्यवस्था दी है. इतना ही नहीं संविधान पीठ ने अग्रिम जमानत देते वक्त अदालतों को ध्यान में रखने की बातें भी फैसले में बताई हैं.

अग्रिम जमानत की अर्जी ठोस तथ्यों पर आधारित हो

कोर्ट ने फैसले में कहा है कि जब कोई व्यक्ति गिरफ्तारी की आशंका जताते हुए संरक्षण के लिए अग्रिम जमानत की अर्जी दाखिल करे तो कोर्ट को ध्यान देना चाहिए की अर्जी ठोस तथ्यों पर आधारित हो अर्जी में सामान्य या सतही बातें न की गई हों. अर्जी में अपराध से जुडे़ जरूरी तथ्यों को देते हुए यह भी बताया गया हो कि अभियुक्त को गिरफ्तारी की आशंका क्यों है और उसका इस बारे में क्या कहना है या उसकी क्या सफाई है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अग्रिम जमानत अर्जी पर सुनवाई करने वाली अदालत के लिए जरूरी है कि वह अर्जी में जताई गई आशंका का आंकलन करे उसकी गंभीरता, और अन्य पहलुओं को जांचते परखते हुए यह देखे कि क्या उचित शर्ते लगाई जानी चाहिए.

अग्रिम जमानत की अर्जी एफआइआर दर्ज होने के बाद ही नहीं पहले भी दाखिल की जा सकती है

कोर्ट ने फैसले में यह भी कहा है कि है कि यह जरूरी नहीं है अग्रिम जमानत की अर्जी सिर्फ एफआइआर दर्ज होने के बाद ही दाखिल की जाएगी, अग्रिम जमानत की अर्जी पहले भी दाखिल की जा सकती है। जब भी व्यक्ति को गिरफ्तारी की आशंका हो उसके आधार पर दाखिल हो सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने अदालतों को सलाह देते हुए कहा है कि ऐसी स्थिति में अदालत गिरफ्तारी की आशंका और गंभीरता का आंकलन करते हुए सरकारी वकील (लोक अभियोजक) को नोटिस जारी कर मामले के तथ्य मंगा कर देख सकती हैं, यहां तक की सीमित अग्रिम जमानत देते वक्त भी।

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कोर्ट पर यह शर्त नहीं है कि वह अग्रिम जमानत देते वक्त समयसीमा तय करे

अदालत ने कहा कि ‘संसद ने पूर्व-गिरफ्तारी या अग्रिम जमानत देने, विशेषकर अवधि के संबंध में या चार्जशीट दायर होने तक या अदालतों की या गंभीर अपराधों के मामलों शक्ति या विवेक पर पर्दा डालना उचित नहीं समझा. इसलिए यह समाज के व्यापक हितों में नहीं होगा यदि न्यायालय न्यायिक व्याख्या द्वारा उस शक्ति के अभ्यास को सीमित करता है. इसका खतरा यह होगा कि पिछले 46 वर्षों में जिस कानून को विस्तृत बनाए रखने का प्रयास किया गया है उसका प्रभाव बहुत ही संकीर्ण हो जाएगा. सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सीआरपीसी की धारा 438 (अग्रिम जमानत (गिरफ्तारी से संरक्षण)) में कोर्ट पर यह शर्त नहीं है कि वह अग्रिम जमानत देते वक्त समयसीमा तय करे. या फिर उसमें एफआईआर दर्ज होने अथवा पुलिस की जांच में गवाहों के बयान दर्ज होने आदि की शर्त हो.

अग्रिम जमानत देते समय अपराध की गंभीरता, अभियुक्त की भूमिका को  देखना चाहिए

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अग्रिम जमानत देते समय ‘अदालत को अपराध की प्रकृति, व्यक्ति की भूमिका, जांच के दौरान उसके प्रभाव को प्रभावित करने, या सबूतों के साथ छेड़छाड़ करने (गवाहों को डराने सहित), न्याय से भागने की संभावना (जैसे देश छोड़ने) की संभावना आदि पर विचार करना होगा.’ अग्रिम जमानत दी जाए या नहीं यह अदालत का विवेकाधिकार है जो कि मामले के तथ्यों पर निर्भर करता है. सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया है कि अभियुक्त मिली अग्रिम जमानत आरोपपत्र दाखिल होने के बाद भी ट्रायल खत्म होने तक जारी रहना अभियुक्त के आचरण पर निर्भर हो सकता है.

अग्रिम जमानत का आदेश ब्लैंकेट नहीं हो सकता

कोर्ट ने कहा है कि अभियुक्त को मिली अग्रिम जमानत का आदेश ब्लैंकेट (सभी मामलों में समान) नहीं हो सकता, यानी कोई अभियुक्त अग्रिम जमानत मिलने के बाद दूसरा अपराध करके गिरफ्तारी से छूट के अग्रिम जमानत के आदेश का सहारा नहीं ले सकता. अग्रिम जमानत का आदेश एक निश्चित अपराध और घटना तक सीमित होता है जिसमें गिरफ्तारी की आशंका जताते हुए संरक्षण लिया गया था। यह संरक्षण भविष्य की घटनाओं या अपराधों पर लागू नहीं होगा.

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अग्रिम जमानत पुलिस के जांच करने के अधिकार को सीमित नहीं करती

फैसले में कोर्ट ने साफ किया है कि अग्रिम जमानत किसी भी तरह से पुलिस के जांच करने के अधिकार को सीमित नहीं करती. कोर्ट ने कहा है कि अभियुक्त के जमानत की शर्तो का उल्लंघन करने जांच प्रभावित करने या सहयोग न करने आदि की स्थिति में पुलिस को अदालत के पास जाकर अग्रिम जमानत या जमानत रद कर गिरफ्तारी की इजाजत मांगने का अधिकार है. पुलिस या जांच एजेंसी की अर्जी पर अपीलीय अदालत या उच्च अदालत अग्रिम जमानत की समीक्षा कर सकती है और उसे रद भी कर सकती है.

शर्तें लागू करने अदालतों छूट देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस पर हर मामले में अलग-अलग आधार पर फैसला करना होगा जो कि राज्य या जांच एजेंसी द्वारा उपलब्ध कराई गई सामग्री पर निर्भर करता है.

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि अग्रिम जमानत का आदेश इस अर्थ में खाली नहीं होना चाहिए कि वह अभियुक्तों को आगे के अपराध करने में सक्षम करे और गिरफ्तारी से अनिश्चितकालीन सुरक्षा के लिए राहत का दावा करे.

यह आदेश जांच एजेंसी यह अधिकार भी देगा कि वह किसी भी शर्त के उल्लंघन की स्थिति में अभियुक्त को गिरफ्तार करने के लिए अदालत जा सके.

केस टाइटल – सुशीला अग्रवाल और अन्य बनाम राज्य (दिल्ली NCT)

CASE NO. – SPECIAL LEAVE PETITION (CRIMINAL) NOS.7281­7282/2017

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