विदेशी दान प्राप्त करना पूर्ण अधिकार नही हो सकता, सुप्रीम कोर्ट ने FCRA कानून में संशोधनों की संवैधानिक वैधता को रखा बरकरार –

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पीठ ने कहा, ‘‘वास्तव में, धर्मार्थ गतिविधि एक व्यवसाय है।

शीर्ष अदालत SUPREME COURT ने अपने दिए निर्णय में विदेशी चंदा (विनियमन) कानून (FCRA), 2010 के प्रावधानों में कुछ संशोधनों की वैधता को बरकरार रखा, जो सितंबर 2020 में लागू हुए थे। इसके साथ ही न्यायालय ने कहा कि ‘विदेशी चंदे के दुरुपयोग के पिछले अनुभव के कारण सख्त प्रावधान आवश्यक हो गए।’’

न्यायालय ने कहा कि विदेशी चंदा FOREIGN DONATION प्राप्त करना ‘पूर्ण या निहित अधिकार’ नहीं हो सकता है और किसी को भी विदेशी दान स्वीकार करने के निहित अधिकार का दावा करते हुए नहीं सुना जा सकता है क्योंकि राष्ट्रीय राजनीति को विदेशी चंदा से प्रभावित किए जाने की आशंका के सिद्धांत को विश्व स्तर पर मान्यता प्राप्त है।

सर्वोच्च अदालत ने कहा कि विदेशी चंदे का देश की सामाजिक-आर्थिक संरचना और राजनीति पर गंभीर प्रभाव हो सकता है तथा इसके प्रवाह के लिए अनुमति देना, जो एक दान है, कानून समर्थित राज्य का नीतिगत मामला है।

न्यायालय ने कहा कि विदेशी चंदा प्राप्त करना ‘पूर्ण या निहित अधिकार’ नहीं हो सकता । इसके नाम से ही एक राष्ट्र की संवैधानिक नैतिकता समग्रता में इस प्रकार प्रतिबिम्बित होती है कि वह अपनी जरूरतों को पूरा करने और समस्याओं को सुलझाने में सक्षम नहीं है।

सर्वोच्च अदालत ने कहा कि विदेशी चंदे के कारण किसी विदेशी दाता की उपस्थिति हो सकती है और देश की नीतियों को ‘प्रभावित’ किया जा सकता है तथा कोई राजनीतिक विचारधारा को प्रभावित या थोपने की प्रवृत्ति हो सकती है।

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विदेशी चंदा (विनियमन) अधिनियम, 2010 के प्रावधानों में सितंबर 2020 में लागू हुए कुछ संशोधनों की वैधता को बरकरार रखते हुए न्यायमूर्ति ए. एम. खानविलकर की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि अपने देश में दान देने वालों की कोई कमी नहीं है। पीठ ने कहा, ‘‘वास्तव में, धर्मार्थ गतिविधि एक व्यवसाय है।’

पीठ ने कहा कि तीसरी दुनिया के देश विदेशी चंदे का स्वागत कर सकते हैं, लेकिन यह आत्मनिर्भर होने के लिए प्रतिबद्ध और अपनी जरूरतों को पूरा करने में सक्षम किसी राष्ट्र पर निर्भर करता है कि वह किसी विदेशी स्रोत से विदेशी चंदे को स्वीकार करने या मना करने की नीति का चयन करे।

गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) के विदेशी चंदों के सख्त विनियमन की खातिर किए गए संशोधनों को बरकरार रखते हुए सर्वोच्च अदालत ने गौर किया कि कि विदेशी चंदा लेने वाले कई संगठनों ने इसका उपयोग उन उद्देश्यों के लिए नहीं किया जिनके लिए उन्हें पंजीकृत किया गया था। इसके अलावा कई संगठन वैधानिक अनुपालनों को पूरा करने में भी विफल रहे।

न्यायमूर्ति एएम खानविलकर, न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी और न्यायमूर्ति सीटी रविकुमार की बेंच ने माना है कि एफसीआरए मंजूरी के लिए आधार नंबर नहीं दिए जा सकते हैं और कहा कि आवेदकों को इसके बजाय पासपोर्ट पेश करने की अनुमति दी जानी चाहिए।

न्यायमूर्ति एएम खानविलकर, न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी और न्यायमूर्ति सीटी रविकुमार के पीठ ने कहा, ‘… ‘विदेशी चंदे’ के दुरुपयोग के पिछले अनुभव और नियमों के पालन नहीं किए जाने के आधार पर 19,000 पंजीकृत संगठनों के प्रमाणपत्र रद्द करने के पिछले अनुभव के कारण सख्त व्यवस्था आवश्यक हो गई।’

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पीठ ने घोषित किया कि 2010 के कानून के संशोधित प्रावधान मुख्य रूप से धारा 7, 12(1ए), 12ए और 17 संविधान के अनुरूप हैं।

उच्चतम न्यायालय ने 132 पृष्ठों का यह फैसला एफसीआरए कानून, 2010 के प्रावधानों में संशोधन की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर दिया।

अदालत ने कहा, ‘वास्तव में, गड़बड़ी को मिटाने के लिए सुधारात्मक व्यवस्था का सहारा लेने के लिए संसद को श्रेय दिया जाना चाहिए और कोई भी संप्रभु देश गड़बड़ी को बर्दाश्त नहीं कर सकता।’

सुप्रीम कोर्ट ने आयोजित किया, “दरअसल, धर्मार्थ गतिविधि एक व्यवसाय है। धर्मार्थ गतिविधि करने के लिए भारत के भीतर योगदान प्राप्त करना अलग तरह से विनियमित किया जा सकता है और किया जा रहा है। विदेशी स्रोत से विदेशी योगदान के संबंध में समान दृष्टिकोण रखना संभव नहीं है। संक्षेप में, किसी को भी विदेशी दान स्वीकार करने के निहित अधिकार का दावा करने के लिए नहीं सुना जा सकता है, जो कि पूर्ण अधिकार से बहुत कम है।”

केस टाइटल – नोएल हार्पर और अन्य बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया और अन्य
केस नंबर – रिट पेटिशन (सिविल ) नंबर 566 ऑफ़ 2021
कोरम – न्यायमूर्ति एएम खानविलकर, न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी और न्यायमूर्ति सीटी रविकुमार

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