सुप्रीम कोर्ट ने तीन दशक पुराना संपत्ति विवाद फिर से खोलने वाले हाईकोर्ट के फैसले को निरस्त किया
मामला: कंच्छू बनाम प्रकाश चंद्र व अन्य
सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में तीन दशक से अधिक पुराना संपत्ति विवाद पुनर्जीवित करने वाले इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश को खारिज करते हुए स्पष्ट किया है कि यदि एक पक्ष (प्रतिवादी) ने लिखित बयान दाखिल कर दिया हो और उसके बाद उसे एकतरफा करार दे दिया जाए, तो उसकी प्रक्रिया में भाग लेने की अधिकारिता सीमित हो जाती है और वह साक्ष्य पेश नहीं कर सकता।
न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति मनमोहन की पीठ ने यह फैसला एक नागरिक अपील की सुनवाई में सुनाया, जो उस हाईकोर्ट के आदेश के विरुद्ध दायर की गई थी, जिसमें संविधान के अनुच्छेद 227 के अंतर्गत दाखिल रिट याचिका को स्वीकार किया गया था। उस आदेश के तहत देरी माफी, पुनर्विचार, और संशोधन की अंतरिम प्रार्थनाओं को भी अनुमति दी गई थी।
पीठ ने स्पष्ट किया कि,
“दावे और बचाव की नींव – वाद-पत्र और लिखित बयान – सिविल वादों में मूल आधार होते हैं। सिविल प्रक्रिया संहिता की आदेश VI नियम 2 के अनुसार केवल ‘मूल तथ्यों’ को ही वाद-पत्र में उल्लेखित किया जाना चाहिए। यदि लिखित बयान के बाद प्रतिवादी एकतरफा करार दे दिया जाए और वह आदेश अंतिम हो जाए, तो उसे बचाव में साक्ष्य पेश करने का अधिकार नहीं रहता। ऐसे में वह केवल वादी के गवाहों से जिरह कर सकता है और उनके बयान को असत्य सिद्ध करने का प्रयास कर सकता है।“
पृष्ठभूमि
वर्ष 1987 में अपीलकर्ता (वादी) ने 6 बीघा 5 बिस्वा ज़मीन के विक्रय पत्र को धोखाधड़ी बताते हुए निरस्तीकरण के लिए सिविल वाद दायर किया था। दस सुनवाइयों के बाद, 17 अगस्त 1991 को वाद एकतरफा रूप से स्वीकार कर लिया गया। Order IX Rule 13 CPC के तहत दायर पुनर्विचार याचिका 2002 में अस्वीकृत हो गई थी, जिसे जिला न्यायाधीश ने भी पर्याप्त कारण न मिलने पर खारिज कर दिया।
यह आदेश बाद में रिट याचिका के माध्यम से चुनौती दी गई, जिसे 2011 में निरर्थक मानते हुए खारिज कर दिया गया। छह साल बाद, उत्तरदाताओं ने उस आदेश की पुन:विचार याचिका व देरी माफी आवेदन दायर किया, जिसे हाईकोर्ट ने स्वीकार कर रिट याचिका को भी स्वीकार कर लिया। इसी निर्णय को चुनौती देते हुए यह अपील सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई थी।
न्यायालय की राय
पीठ ने कहा कि 7 वर्षों की देरी पर्याप्त कारण न होने पर स्वयं में ही देरी माफी न देने का आधार थी। तथापि, अदालत ने उत्तरदाताओं द्वारा प्रस्तुत इस दलील को सहानुभूति से देखा कि उनके अधिवक्ता ने उन्हें रिट याचिका के खारिज होने की सूचना नहीं दी थी।
हालाँकि, पीठ ने हाईकोर्ट के दृष्टिकोण को “त्रुटिपूर्ण” ठहराया और कहा कि न्यायाधीश ने उत्तरदाताओं के पक्ष में कोई ठोस आधार नहीं देखा, न ही उनके चिकित्सकीय कारणों की पुष्टि हुई। विशेषकर यह रेखांकित किया गया कि 24 अप्रैल 1991 से 17 अगस्त 1991 तक, किसी भी तारीख़ पर उत्तरदाताओं की अनुपस्थिति का पर्याप्त कारण प्रस्तुत नहीं किया गया।
निष्कर्ष
पीठ ने कहा,
“एक त्रुटिपूर्ण न्यायिक दृष्टिकोण के कारण भाइयों के बीच का दशकों पुराना विवाद पुनर्जीवित हो गया, जिसे अब फिर से समाप्त किया जा रहा है।“
अतः सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश को निरस्त कर दिया और उत्तरदाताओं की रिट याचिका को खारिज करते हुए अपील को स्वीकृत किया।
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